इन दिनों पंजाब समेत देश के कई राज्यों के किसान आंदोलनरत हैं। आंदोलन राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं तक पहुंच चुका है। प्रदर्शनकारी किसानों को विपक्षी दलों का समर्थन भी मिल रहा है। ये किसान उन नए कृषि विपणन कानूनों से नाखुश हैं जिन्हें केंद्र सरकार ने पिछले दिनों कृषि क्षेत्र के लंबित सुधारों के एक हिस्से के रूप में पेश किया था। इन कानूनों को जून में अध्यादेश के माध्यम से पेश किया गया था और तब से ही कृषि उपज विपणन समितियों का एकाधिकार समाप्त किए जाने को लेकर नाराजगी उत्पन्न हो रही थी। जून के बाद से मंडी के बाहर होने वाले लेनदेन की तादाद बढ़ी है। आपूर्ति शृंखला को मजबूत करने, भंडारण और इन्वेंटरी को आसान बनाने और किसानों के साथ उपज को लेकर अनुबंध को आसान बनाने के लिए अन्य सुधार भी किए गए। अधिकांश अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि ये कदम खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने, कृषि उत्पादन सुधार, बुनियादी निवेश में सुधार और किसानों की औसत आय सुधारने की दृष्टि से अहम हैं।
हालांकि कुछ किसान संगठन इनसे अप्रसन्न हैं। नाराजगी की एक वजह कुछ हद तक सत्ता गंवाना भी है। आपूर्ति शृंखला में बाजार कारकों के प्रवेश और एकाधिकार के नष्ट होने से उन लोगों को यकीनन नुकसान होगा जो यथास्थिति बरकरार रखना चाहते हैं। अन्य किसान वैचारिक विरोध कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि कृषि विपणन व्यवस्था का कॉर्पोरेटीकरण किया जा रहा है। इसके बावजूद तमाम किसान ऐसे भी हैं जिन्हें मौजूदा उपज खरीद व्यवस्था के तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में गलत जानकारी दी जा रही है। अर्थशास्त्री और यहां तक कि अफसरशाह भी यह कहते रहे हैं कि एमएसपी की जरूरत समाप्त हो चुकी है और इस क्षेत्र की सहायता के लिए अन्य तरीके मौजूद हैं जो अधिक स्थायी हैं। खुद सरकार का फिलहाल एमएसपी समाप्त करने का कोई इरादा नहीं है। भविष्य में किसानों को मिलने वाली मदद के तरीकों की प्रकृति को लेकर वैध आपत्तियां हो सकती हैं। खासकर तब जबकि उपज के समय कीमतों में अचानक उतार या चढ़ाव आने से आय में अस्थिरता आती है।
प्रधानमंत्री का यह कहना बिल्कुल सही है कि अतीत में हर राजनीतिक दल इनके पक्ष में रहा है लेकिन अब वे राजनीतिक लाभ के लिए विरोध कर रहे हैं। परंतु उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को भी यह अनुमान होना चाहिए था कि कृषि सुधारों का विरोध होगा। कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ किसानों के दिल्ली कूच के हालात के गहन राजनीतिक प्रबंधन की आवश्यकता है। सरकार को किसानों के समक्ष अपना रुख बेहतरी से रखना चाहिए। उसे अब यह सुनिश्चित करना होगा कि किसानों के समर्थन की वैकल्पिक प्रणाली विकसित हो और उसका समुचित प्रचार हो ताकि किसान समझ सकें कि उन्हें नुकसान नहीं होने वाला। इससे विरोध प्रदर्शन का प्रसार रोकने में मदद मिलेगी। ऐसी समर्थन व्यवस्था बनाई जा सकती हैं जो नए कृषि विपणन कानूनों को नुकसान न पहुंचाए।
सच तो यही है कि मूल्य समर्थन के मौजूदा तरीके बाजार में विसंगति पैदा करते हैं। इसके चलते कुछ खाद्यान्नों का अत्यधिक उत्पादन होता है। यह पर्यावरण तथा अन्य तरह से भी नुकसानदेह है। इसके अलावा चुनिंदा अनाजों का अत्यधिक उत्पादन आजीविका सुनिश्चित करने की दृष्टि से अपर्याप्त है और भारत के अंतरराष्ट्रीय व्यापार दायित्वों का उल्लंघन भी है। गोदामों की रसीदों की मदद से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि हड़बड़ी में बिक्री न हो। अतीत में भी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ऐसी अनुशंसा कर चुका है। आदर्श स्थिति तो अखिल भारतीय आय समर्थन योजना की होगी। अन्य विकल्प एमएसपी और बाजार मूल्य के बीच के अंतर के भुगतान का है। इन हालात में मौजूदा सुधारों की चिंता का हल और अधिक सुधार ही हैं।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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