देविंदर शर्मा
नए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसान पीछे हटने को तैयार नहीं हैं और उन्होंने बुराड़ी जाने के सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। अब केंद्रीय गृह सचिव ने किसान संघों को बातचीत का न्योता दिया है, पर प्रदर्शन स्थल बदलने की शर्त रखी है। लेकिन किसान संगठन सरकार से बिना शर्त बातचीत चाहते हैं। किसानों का यह आंदोलन अनूठा और ऐतिहासिक है। पहली बार ऐसा देखने में आया है कि पंजाब के किसानों के नेतृत्व में चल रहा यह आंदोलन किसी राजनीतिक दल या धार्मिक संगठन से प्रेरित नहीं है, बल्कि किसानों ने राजनीति और धर्म, दोनों को इस आंदोलन का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया है।
शिरोमणि अकाली दल पहले केंद्र द्वारा लाए गए तीनों कृषि कानूनों को किसानों के हित में बता रहा था। लेकिन जब उसे लगा कि इससे उनके मतदाताओं के बीच गलत संदेश जा रहा है, तो उसने एनडीए से अलग होने का फैसला किया और केंद्रीय कैबिनेट से अपने मंत्रियों को भी वापस बुला लिया। साफ है कि किसानों का यह आंदोलन राजनीति से प्रेरित नहीं है, बल्कि इसने राजनीति को एक दिशा दी है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी भी कह रही है कि हमारे गुरुद्वारे और हम लगातार किसानों के समर्थन में खड़े हैं। इस आंदोलन में न केवल किसानों के परिजन हिस्सा ले रहे हैं, बल्कि पंजाब के गायक, अभिनेता, दुकानदार और अन्य पेशों के लोगों के साथ-साथ भारी संख्या में युवा भी समर्थन में खड़े हैं। यह बहुत वर्षों के बाद देखने में आया है कि किसी आंदोलन में पूरे पंजाब की भागीदारी नजर आती है।
जब से केंद्र सरकार ने कृषि से संबंधित तीन कानून बनाए हैं, तब से किसानों की नाराजगी बढ़ी है और उनके गुस्से का प्रसार हुआ है। लेकिन यह गुस्सा कई दशकों की किसानों की अनदेखी के चरम के रूप में फूटा है। हरित क्रांति के समय से ही पंजाब और हरियाणा में एपीएमसी मंडी का जाल बिछाया गया था, क्योंकि देश को खाद्यान्न की जरूरत थी। इसके अलावा इन वर्षों में एपीएमसी मंडियों से लेकर किसानों के खेतों तक ग्रामीण सड़कों का जाल बिछाया गया। तब यह जानते हुए कि, ज्यादा उत्पादन होने पर किसानों की उपज की कीमतें गिरेंगी, सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था बनाई। यानी जब किसान अपनी फसल लेकर मंडी में जाएगा और कोई व्यापारी उसे समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत देने को तैयार नहीं होगा, तो सरकार भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से आगे आएगी और एमएसपी पर किसानों से खाद्यान्न खरीदेगी।
यह व्यवस्था छह दशकों से पंजाब में चल रही है और आज भी पंजाब और हरियाणा में 80 हजार करोड़ रुपये हर साल किसानों को एमएसपी के माध्यम से मिलता है। अभी जो तीनों केंद्रीय कानून आए हैं, हालांकि उसमें कहा गया है कि एमएसपी को खत्म नहीं किया गया है, लेकिन किसान जानते हैं कि कई दशकों से ऐसे प्रयास हो रहे थे कि एपीएमसी की मंडियों को खत्म किया जाए और एमएसपी को हटाया जाए। राजनेता, अर्थशास्त्री आदि कहा करते थे कि इनको हटाए बिना किसानों की तरक्की नहीं हो पाएगी। इसलिए किसानों का कहना है कि केंद्र द्वारा लाए गए ये तीनों कानून कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाएंगे और किसानों का दोहन बढ़ जाएगा।
अक्सर एपीएमसी मंडियों की खामियां गिनाई जाती हैं। उन खामियों को दूर करने के लिए एपीएमसी मंडियों की संरचना में सुधार करना चाहिए था। लेकिन लगता है कि एमपीएमसी मंडियां धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी। नए कानून से एक देश में दो बाजार बन गया है। एक बाजार है एपीएमसी मंडी के अंदर, जिसमें कोई भी व्यापारी जब कोई खरीद करेगा, तो उसे टैक्स देना पड़ेगा। और दूसरा बाजार है एपीएमसी मंडी के दायरे के बाहर, जिसमें खरीदारी करने पर टैक्स देने की जरूरत नहीं है। जाहिर है, धीरे-धीरे व्यापारी फसल बाहर से खरीदेंगे। इस तरह से एपीएमसी मंडियां धीरे-धीरे खत्म होती जाएंगी और जब वे खत्म होती जाएंगी, तो एमएसपी का जो प्रावधान है, वह भी खत्म हो जाएगा। कई वर्षों से यह भी देखने में आ रहा है कि मंडियों में किसानों की फसल खरीदने से सरकार पीछे हटने की कोशिश करती रही है।
तर्क यह दिया जाता है कि सरकार के पास पहले से ही बहुत अनाज पड़ा है। ये तीनों कानून अमेरिका और यूरोप में छह-सात दशकों से चल रहे कानूनों की तर्ज पर ही हैं। वहां भी खेती गहरे संकट में फंसी हुई है। तो फिर उस विफल मॉडल को हम क्यों भारत में लाना चाहते हैं? आज भी अमेरिका में किसानों पर 425 अरब डॉलर का कर्ज है। एक अध्ययन के अनुसार, वहां के 87 फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। यूरोप में भी भारी सब्सिडी मिलने के बावजूद किसान खेती छोड़ रहे हैं।
किसानों की मांग है कि इन तीनों केंद्रीय कानूनों को हटाया जाए। लेकिन मेरा मानना है कि एक चौथा कानून लाया जाए, जिसमें यह अनिवार्य हो कि देश में कहीं भी किसानों की फसल एमएसपी से कम कीमत पर नहीं खरीदी जाएगी। किसानों की आय बढ़ाने के लिए यह जरूरी है। देश में इस समय एपीएमसी की सात हजार मंडियां हैं, जिनमें से अधिकतर पंजाब और हरियाणा में हैं। हमें देश में अभी 42,000 एपीएमसी मंडियों की जरूरत है। हमें इसमें निवेश बढ़ाना चाहिए, ताकि किसानों को घर के पास एक मंडी की सुविधा उपलब्ध हो। किसानों को असली आजादी तब मिलेगी, जब मंडी उनके घर के पास हो। दूसरी बात यह है कि अभी 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित होती है, पर मुख्यतः धान और गेहूं की ही खरीद होती है।
अगर पूरे देश में इन 23 फसलों को एमएसपी से कम पर नहीं खरीदने का कानून लागू कर दिया जाए, तो 80 फीसदी फसलें इसके तहत कवर हो जाएंगी। इससे किसानों की बड़ी आबादी लाभान्वित होगी। बहुत से छोटे किसान जिनके पास बेचने के लिए कुछ नहीं बचता, उनकी आय सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री-किसान निधि की राशि को छह हजार से बढ़ाकर 18,000 रुपये प्रति वर्ष कर देना चाहिए। तीसरी बात, अमूल डेयरी हमारे सामने एक सहकारी मॉडल है। अमूल डेयरी में अगर उपभोक्ता सौ रुपये का दूध खरीदता है, तो उसका 70 फीसदी किसानों के पास जाता है।
हमारे देश में यही सहकारी मॉडल दालों, अनाजों, सब्जियों, फलों इत्यादि पर क्यों नहीं लागू किया जाता, ताकि किसानों को फायदा मिल सके? इन्हीं तीनों चीजों से होकर आत्मनिर्भर भारत का रास्ता निकलता है। ये तीनों चीजें हमारी सामर्थ्य हैं। दूसरे देशों की नीति उधार लेने के बजाय अगर इसी में सुधार किया जाए, तो देश के किसानों को फायदा होगा। सरकार को वैसी नीतियां लानी चाहिए, जो देश के किसानों के हित में हों।
सौजन्य - अमर उजाला।
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