पाकिस्तान पर इस्रायल को मान्यता देने का भारी दवाब, क्या करेंगे इमरान? (अमर उजाला)

मरिआना बाबर  

जब ज्यादातर मुस्लिम देश शांति समझौते करने के साथ इस्रायल को मान्यता दे रहे हैं, तब पाकिस्तान पर भी इस्राइल को मान्यता देने का भारी दबाव है। प्रधानमंत्री इमरान खान ने माना है कि उन पर दबाव डालने वाले देशों में अमेरिका भी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप व्हाइट हाउस छोड़ने से पहले पश्चिम एशिया में शांति स्थापित करने की विरासत छोड़कर जाना चाहते हैं। इसलिए वह सऊदी अरब पर भी इस्रायल को मान्यता देने का दबाव डाल रहे हैं। ट्रंप न केवल अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम स्थानांतरित कर चुके हैं, बल्कि इस्राइल के विस्तारवाद को भी उन्होंने मंजूरी दी है। इमरान खान ने हालांकि सऊदी अरब का उल्लेख नहीं किया, पर कुछ अधिकारियों ने कहा है कि रियाद भी पाकिस्तान को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि इस्राइल को मान्यता देने का समय आ गया है। सऊदी अरब ने इसी हफ्ते एक नई नीति की घोषणा की है, जिसके तहत वह अब इस्रायल के विमानों को अपने हवाई क्षेत्र से संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) तक पहुंचने की अनुमति देगा।


पाकिस्तान में अमीरात, बहरीन और सूडान के खिलाफ न तो कोई सार्वजनिक बयानबाजी हुई है और न ही जुलूस निकाले गए हैं। आम पाकिस्तानी महंगाई और कोविड-19 से लड़ने में इस कदर व्यस्त है कि उसने इस पर ध्यान ही नहीं दिया। पिछले कुछ महीनों के दौरान अमीरात, बहरीन और सूडान ने इस्राइल के साथ शांति समझौते किए हैं, और अगर सऊदी अरब भी ऐसा ही करता है, तो वह एक बहुत बड़े बदलाव का सूचक होगा। इस्रायल को मान्यता देने के संबंध में पाकिस्तान की नीति यह है कि वह पहले मोहम्मद अली जिन्ना के नजरिये के मुताबिक फलस्तीन मसले का हल देखना चाहता है। मसले का हल ऐसा होना चाहिए, जिससे फलस्तीन के लोग खुश हों। पाकिस्तान अभी तक इस्राइल को मान्यता देने का घनघोर विरोधी रहा है। फिर मुस्लिम देश इस्राइल को ऐसे समय मान्यता दे रहे हैं, जब इस्रायल यहूदी बस्तियों का विस्तार कर रहा है।

पाकिस्तान आर्थिक रूप से सऊदी अरब और अमीरात पर निर्भर है। इन दो देशों में पाकिस्तान से काफी लोग काम करने जाते हैं। विदेशों में काम करने वाले इन पाकिस्तानियों द्वारा भेजे गए धन से ही पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है। ऐसे में, इस्रायल को मान्यता देने से संबंधित सऊदी अरब और अमीरात के दबाव को पाकिस्तान आखिर कब तक झेल सकेगा? पाकिस्तानियों को लगता है कि दो-राष्ट्र मुद्दे के हल के बगैर इस्रायल के साथ रिश्ता सामान्य करने की कोई भी कोशिश फलस्तीनियों को अलग-थलग कर सकती है, और इससे पश्चिम एशिया में संघर्ष तेज हो सकता है। 

इसी सप्ताह अमीरात ने पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम देशों के लिए यात्रा वीजा और कार्य वीजा पर प्रतिबंध लगा दिया। अमीरात की तरफ से अब तक इसकी कोई आधिकारिक वजह नहीं बताई गई है। अनेक पाकिस्तानी मुस्लिम देशों के लिए इस नई वीजा नीति को अमीरात द्वारा इस्राइल के करीब होने की कोशिशों से जोड़ रहे हैं। एक वजह यह भी हो सकती है कि इस्राइल को मान्यता देने के तुरंत बाद बड़ी संख्या में इस्रायली नागरिक पर्यटन और खरीदारी के लिए अमीरात गए हैं। क्या अमीरात ने इस्रायल के साथ टकराव से बचने के लिए पाकिस्तान समेत दूसरे मुस्लिम देशों के कार्यबलों के प्रवेश पर रोक लगाने का फैसला लिया है? यह कहना मुश्किल है, पर पाक श्रमिकों को डर है कि उनकी नौकरियां अन्य दक्षिण एशियाई देशों के लोगों द्वारा छीन ली जाएंगी। पाकिस्तानी टीवी पर इस हफ्ते कुछ एंकरों ने इस्रायल को मान्यता देने संबंधी बहस की शुरुआत की। वे इस मुद्दे पर मुल्क के रवैये को भांपना चाहते हैं। 


रिपोर्टों में बताया गया है कि सैन्य प्रतिष्ठान इस्रायल को मान्यता देने में दिलचस्पी रखता है। जब पूर्वी और पश्चिमी सरहदों पर परेशानी और अशांति है, तब वह चाहता है कि इस क्षेत्र में एक दुश्मन तो कम हो। पाकिस्तान की इस घोषित नीति के बावजूद, कि फलस्तीनियों को उनका हक मिले बिना उसके रुख में बदलाव नहीं आनेवाला, पूर्व सैन्य तानाशाह और सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने गुपचुप तरीके से सितंबर, 2005 में इस्रायल के साथ संपर्क बनाने की कोशिश की थी। उन्होंने अपने विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी को उनके इस्रायल समकक्ष के साथ बातचीत के लिए तुर्की भेजा था। पर खुर्शीद कसूरी जब पाकिस्तान लौटे, तब आम लोगों में गुस्सा था, जिसे फलस्तीनियों के साथ विश्वासघात के रूप में देखा गया था। तब सैन्य प्रतिष्ठान को एहसास हुआ था कि यह इस्रायल से संपर्क बनाने का सही वक्त नहीं है। 


सितंबर, 2005 में फिर से मुशर्रफ को न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान अमेरिकी यहूदी कांग्रेस को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। इस्रायल के साथ सार्वजनिक राजनयिक संपर्क शुरू करने के लिए तब वहां मौजूद प्रतिनिधियों ने खड़े होकर उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया था। इससे चकित मुशर्रफ ने कहा था कि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि यहूदी समुदाय एक पाकिस्तानी नेता का खड़े होकर सम्मान करेगा। मुशर्रफ ने पाकिस्तान-इस्रायल के संबंधों के बारे में कहा था कि दोनों देशों के बीच कोई दुश्मनी नहीं है। लेकिन अपनी सत्ता को जोखिम में डालकर इस यहूदी देश के साथ संबंधों को सामान्य बनाना उनके लिए संभव नहीं था। इस्रायल को मान्यता देने के पाकिस्तान के कदम को फलस्तीन के साथ विश्वासघात माना जाता।


ऐसे ही पाकिस्तान की अपनी कश्मीर नीति के बावजूद मुशर्रफ और वाजपेयी ने लीक से हटकर एक व्यापक योजना पर काम किया था। इतिहास बताता है कि इस्रायल और कश्मीर जैसे संवेदनशील विदेश नीति पर पाकिस्तान के सैन्य तानाशाहों ने ही कदम उठाया है, किसी चुने गए प्रधानमंत्री ने नहीं। ज्यादातर मुस्लिम देशों द्वारा इस्रायल के साथ संबंध सुधारने में आम पाकिस्तानी कोई बुराई नहीं देखते, पर वे खुद इस पर तब तक राजी नहीं होंगे, जब तक फलस्तीन का मुद्दा हल नहीं हो जाता। बहरीन, अमीरात और सूडान द्वारा इस्राइल को मान्यता देने पर इस्लामी दुनिया में कोई हंगामा न देखकर सऊदी अरब भी इस्राइल को मान्यता दे सकता है। लेकिन पाकिस्तान इसके लिए अभी तैयार नहीं है। 

सौजन्य - अमर उजाला। 

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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