निश्चित मूल्य नहीं आय जरूरी (बिजनेस स्टैंडर्ड)

टी. एन. नाइनन 

देश के किसानों के समक्ष जो समस्या है वह फसल कीमतों से अधिक आय से संबंधित है। सरकार 2,000 रुपये प्रति क्विंटल से कम कीमत पर गेहूं खरीदती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी यह लगभग इसी कीमत पर मिल सकता है। परंतु चावल, जिसका भारत एक प्रमुख निर्यातक है वह एक अलग तस्वीर पेश करता है। भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपना चावल सबसे सस्ती कीमत पर बेचता है। इसके बावजूद इसकी कीमत इतनी आकर्षक है कि किसान भारी मात्रा में धान का उत्पादन करते हैं। बल्कि ऐसे राज्यों में भी धान बोया जाता है जहां भूजल स्तर काफी कम हो चुका है। जबकि इन किसानों को अन्य फसलों का रुख करना चाहिए, खासकर तब जबकि धान की सरकारी खरीद की कीमत उतनी आकर्षक नहीं रह जाए। किसान ऐसा नहीं करते और यह अपने आप में हमें कुछ बताता है।

चावल के उलट भारतीय चीनी वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी नहीं है। गत वर्ष इसका निर्यात करीब 30 फीसदी सरकारी सब्सिडी की मदद से किया गया था। इस वर्ष चूंकि सब्सिडी की घोषणा नहीं की गई इसलिए निर्यात भी नहीं हुआ। सब्सिडी किसान को जाती है जिसे ईख या गन्ने के लिए काफी भुगतान किया जाता है। यानी चावल की तरह गन्ने की फसल भी जरूरत से अधिक उत्पादित की जा रही है।


चावल और गन्ने की फसल में बहुत अधिक पानी की जरूरत होती है और देश में पानी की कमी है। कीमतें इस तरह तय होनी चािहए कि इन फसलों का रकबा कम हो। परंतु किसानों की राजनीतिक ताकत की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस समय दिल्ली के चारों ओर इस बात को महसूस किया जा सकता है। चूंकि दोनों फसलों का खरीद मूल्य निर्धारित है तो किसान तो इन फसलों के लिए प्रदर्शन करेंगे। यदि सरकार हार मान लेती है तो किसान घर लौट जाएंगे लेकिन देश को वह कृषि सुधार नहीं मिलेगा जिसकी आवश्यकता है। इन सुधारों से कुछ और नहीं तो जल संकट और अधिक गंभीर होने से बच सकता है।


यदि सरकार वैश्विक कीमतों के समान कीमतों की पेशकश करे तो क्या प्रदर्शनकारी किसान लौट जाएंगे? शायद धान किसान लौट जाएं लेकिन गन्ना किसान नहीं लौटेंगे। उधर रबर जैसी फसल उगाने वाले किसान उच्च आयात शुल्क रूपी संरक्षण जारी रखना चाहेंगे। यानी अलग-अलग फसल के लिए अलग-अलग कीमत जारी रहेगी। सरकार प्रदर्शनकारी किसानों से चाहे जिस तरह निपटे लेकिन फसलों को तार्किक बनाना जरूरी है। इसके साथ ही उत्पादन में सुधार भी जरूरी है। खेतों में बहुत बड़ी तादाद में लोग काम करते हैं। ऐसे में प्रति व्यक्ति आय कम है और किसान गरीब महसूस करते हैं और उनके मन में निराशा का भाव रहता है। ज्यादातर किसान इसलिए गरीब हैं क्योंकि श्रमशक्ति का आधा हिस्सा खेती में है और राष्ट्रीय आय का केवल सातवां हिस्सा उत्पादित करता है।


समस्या का हल खेतों में नहीं बल्कि कारखानों में है। अधिशेष श्रमिकों को श्रम आधारित विनिर्माण में खपाया जा सकता है। वे कारखाने में उत्पादन बढ़ाएंगे और उन्हें अधिक भुगतान मिलेगा। यदि खेतों में कम लोग काम करेंगे तो उनकी प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी। तब किसान सुनिश्चित आय को लेकर कम चिंतित होंगे।


विनिर्माण क्षेत्र में समुचित रोजगार के अभाव में लोग दूसरे पेशों का रुख कर रहे हैं। आर्थिक जनगणना के मुताबिक 5.8 करोड़ ऐसे प्रतिष्ठान हैं जिनमें काम करने वाले 70 फीसदी लोगों को कोई भुगतान नहीं किया जाता। इनमें से आधे अपने घरों से काम कर रहे थे। घर से बाहर काम करने वालों के पास कोई तयशुदा ढांचा नहीं था। इनमें से अधिकांश को वास्तव में प्रतिष्ठान नहीं कहा जा सकता। वे बस किसी तरह काम चला रहे हैं। बिना समुचित रोजगार के समस्या का विस्तार खेतों से परे भी होना तय है।


पुनश्च: किसी को यह अभियान शुरू करना चाहिए कि एफसी कोहली को भारत रत्न दिया जाए। उनका कुछ दिन पहले 96 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। केवल एमएस स्वामीनाथन (कृषि में) और वर्गीज कुरियन (डेरी में) ने ही लोगों के जीवन और देश के आर्थिक परिदृश्य में बदलाव लाने में कोहली से अधिक योगदान किया है। उन्होंने टाटा कसल्टेंसी सर्विसिज में सॉफ्टवेयर सेवा उद्योग की बुनियाद रखी जो देश का सबसे बड़ा निर्यातक है और लाखों लोगों का रोजगार प्रदाता भी है। उनका काम यहीं तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने सिस्टम्स इंजीनियरिंग शिक्षा को बढ़ावा दिया और ऐसे सॉफ्टवेयर विकसित करने के पाठ्यक्रम तैयार किए जो उनके मुताबिक सामान्य कंप्यूटर पर 40 घंटे में निरक्षरता समाप्त कर सकता था। वह एकदम सहज तरीके से रहते थे लेकिन उनका प्रदर्शन एम विश्वेश्वरैया और एपीजे अब्दुल कलाम जैसा था। अब तक केवल इन्हीं दो इंजीनियरों को भारत रत्न मिला है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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