दिलीप बीदावत
राजस्थान का थार क्षेत्र केवल बालू की भूमि ही नहीं है, बल्कि कुदरत ने इसे भरपूर प्राकृतिक संसाधनों से भी नवाजा है। लेकिन धीरे-धीरे अब इसके अस्तित्व पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। यह संकट मानव निर्मित हैं, जो अपने फायदे के लिए कुदरत के इस अनमोल खजाने को छिन्न-भिन्न करने पर आतुर है।
यहां की शामलात भूमि (सामुदायिक भूमि) को अधिगृहीत कर उसे आर्थिक क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। जिससे न केवल पशु पक्षियों, बल्कि स्थानीय निवासियों को भी भूमि और जल के संकट का सामना करना पड़ रहा है। इसका एक उदाहरण बाड़मेर जिले की पचपदरा तहसील का कोरणा गांव है। जहां वर्ष 2016 में विद्युत विभाग का सब ग्रिड स्टेशन बनाने के लिए तालाब के आसपास की भूमि प्राप्त करने के लिए ग्राम पंचायत से अनापत्ति प्रमाण-पत्र मांगा गया। 2800 बीघा इस शामलात भूमि पर छोटे-मोटे करीब 18 तालाब हैं, जिनसे इन्सान एवं मवेशी पानी पीते हैं। विद्युत विभाग की ओर से 765 केवी का ग्रिड सब स्टेशन बनाने के लिए गांव की कुल शामलात भूमि में से 400 बीघा जमीन अधिग्रहण के लिए चिह्नित की गई। भूमि चिह्नित करने से पूर्व ग्राम समुदाय और पंचायत से राय तक नहीं ली गई।
कोरणा के पूर्व सरपंच गुमान सिंह ने बताया कि एनओसी के लिए पत्र आया, तब हमें पता चला कि हमारे गांव की शामलात भूमि में से तालाब के आगौर की भूमि का अधिगृहण किया जाना है। ग्राम पंचायत ने एनओसी देने से इनकार किया। सरपंच ने जिला कलेक्टर से मुलाकात की तथा उनको बताया कि गांव के लोग एनओसी देने के लिए तैयार नहीं है। कलेक्टर बाड़मेर ने ग्राम पंचायत स्तर पर रात्रि चौपाल कार्यक्रम रखा तथा गांव के लोगों को भूमि अधिग्रहण का निर्णय सुनाया। ग्राम पंचायत व गांव के लोगों ने भी जिला कलेक्टर को शामलात संसाधनों के महत्व से अवगत कराते हुए अधिग्रहण निरस्त करने की मांग की। गांव के लोगों ने बताया कि यहां जल स्रोतों से आस-पास के 20 गांवों के 30 से 35 हजार लोग पेयजल के लिए निर्भर हैं। गांव के चारागाह पर 10 हजार पशु चारागाह के लिए इसी पर निर्भर हैं। गांव के लोग राज्य स्तरीय उच्च अधिकारियों, नेताओं व मंत्रियों से मिले, लेकिन सहयोग नहीं मिला। अंत में गांव के लोगों ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल में केस दायर किया जहां से उन्हें राहत मिली। एनजीटी ने पूरे मामले की जांच की तथा ग्राम पंचायत व गांव के लोगों द्वारा पेयजल, चारागाह, जैव विविधता, पर्यावरण एवं इक्को तंत्र के सभी तर्कों को सही माना। एनजीटी ने सरकार के शामलात भूमि अधिग्रहण पर रोक लगा दी एवं भविष्य में भी इसके अन्य प्रयोजन में उपयोग पर रोक लगाई।
इतना ही नहीं इसी बाड़मेर जिले की पचपदरा तहसील में केंद्र सरकार द्वारा रिफाइनरी लगाने का काम युद्ध स्तर पर चल रहा है। विकास के इस दौड़ में प्रकृति और जन-जीवन हाशिये पर है। रिफाइनरी के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है। अधिग्रहित भूमि की सीमा पर कई गांव आते हैं, उनमें से एक गांव सांभरा भी है। यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन रहा है। पीने के पानी की किल्लत को ध्यान में रखते हुए स्थानीय समुदाय ने उचित स्थानों पर जल स्रोतों का निर्माण कर मीठे पानी के संग्रहण की व्यवस्था बनाई। लेकिन रिफाइनरी के लिए अधिग्रहित की गई भूमि में सांभरा का कुम्हारिया तालाब भी शामिल है। निपटारे के दौरान राजस्व रिकार्ड में तालाब की भूमि दर्ज नहीं होने के कारण यही रिफाइनरी की चारदीवारी में कैद हो गया। स्थानीय समुदाय ने प्रशासन से तालाब को बचाने की मांग की, लेकिन उनकी आवाज अनसुनी कर दी गई। इसके बाद लोगों को सरला तालाब से उम्मीद थी। लेकिन रिफाइनरी एवं सड़कों के निर्माण के लिए उसे भी नष्ट कर दिया गया।
बाड़मेर जिले के ही खारड़ी गांव के चारागाह में बने जल स्रोत से गांव के लोग सदियों से पानी पीते आ रहे थे। लेकिन सड़क निर्माण के नाम पर इसे भी खत्म कर दिया गया। यहां की पथरीली चट्टानें और चारागाह का मैदान लोगों की आजीविका के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है। आम लोगों के विरोध के बावजूद खनन और राजस्व विभाग के लोकसेवक खनन माफिया के बचाव में खड़े दिखे। गांव की निगरानी पर अवैध खनन तो रूका, लेकिन प्रशासन ने खनन माफियाओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इसी कारण से क्षेत्र के बहुत से तालाब और चारागाह अवैध खनन के शिकार हुए हैं।
यह घटनाएं केवल राजस्थान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि समूचे देश में जहां भी जल स्रोत, पशु चारागाह, वन, खलिहान जैसे प्राकृतिक संसाधन सदियों से समुदाय द्वारा सुरक्षित व संरक्षित हैं, उन्हें विकास की असंतुलित हवस का शिकार बनाया जा रहा है। ऐसा लगता है कि सतत विकास लक्ष्य सूचकांक केवल दिखावे भर के लिए प्रचारित किए जा रहे हैं, विकास योजनाओं से उनका कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में गांव और शहर के लोगों को मिलकर इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए एकजुटता दिखाने की ज़रूरत है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब रेगिस्तान के प्राकृतिक परिवेश को विकास के नाम पर बर्बाद कर दिया जाएगा, जिसकी भरपाई आने वाली सात पीढ़ियां भी नहीं कर पाएंगी।
सौजन्य - अमर उजाला।
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