अजय शुक्ला
बीते दो दशक में अमेरिका के दोनों दलों में भारत के साथ मजबूत, बहुमुखी सामरिक साझेदारी को लेकर मजबूत सहमति रही है। यहां तक कि अमेरिका ने भारत में राजनीतिक अधिनायकवाद, बहुसंख्यकवाद की ओर झुकाव तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के क्षरण को भी अब तक बरदाश्त किया है, जबकि ये विषय उसे बहुत प्रिय हैं। ऐसे में जो बाइडन के बतौर राष्ट्रपति कमान संभालने के बाद भी केवल कार्य शैली में बदलाव आएगा। दोनों देशों के रक्षा रिश्तों में कोई बड़ा बदलाव आता नहीं दिखता।
पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन प्रतिरोध के बीच अमेरिका और भारत की बढ़ती करीबी भी इसे रेखांकित करती है। गुरुवार को नौसेना प्रमुख ने बताया कि अमेरिकी कंपनी जनरल एटॉमिक्स से दो एमक्यू-9बी समुद्री सुरक्षा मानवरहित हवाई यान (यूएई) पट्टे पर लिए गए हैं। ये नवंबर के आरंभ से हिंद महासागर में चीनी पनडुब्बियों और युद्धपोतों की पड़ताल करते आ रहे हैं। नौसेना ऐसे 22 उच्च क्षमता संपन्न ड्रोन खरीदना चाहती है लेकिन उनकी कीमत आड़े आती रही। अब अमेरिकी रक्षा विभाग द्वारा इन्हें पट्टे पर देने से हल निकल आया है। इनका रखरखाव और प्रशिक्षण भी अमेरिका संभालेगा। भारत ने ऐसे पट्टे के लिए एक नई अधिग्रहण प्रक्रिया बनाई है। इसके अलावा इन सी गार्डियन के प्रभावी इस्तेमाल के लिए भारत ने बेसिक एक्सचेंज ऐंड कॉपरेशन एग्रीमेंट ऑन जियो-स्पेशल इंटेलिजेंस (बेका) समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जो भारत को अमेरिका की सटीक मैपिंग का लाभ देगा।
इसी प्रकार 2016 में किए गए एक समझौते के तहत भारत ने अमेरिका से भारतीय जवानों के लिए 11,000 ऐसे कपड़े मांगे जो लद्दाख में अत्यंत ठंड में काम आ सकें। भारत वर्षों तक अमेरिका से ऐसे बुनियादी समझौते करने से बचता रहा कि कहीं वह उसके करीब न नजर आने लगे। अब इनकी क्षमता साबित होने के बाद यह हिचक समाप्त हो गई है। अमेरिका की बहरीन नौसैनिक कमान में एक भारतीय अधिकारी की तैनाती भी इस सहयोग को प्रभावी बना रही है।
यह उस दौर से एकदम अलग है जब कई बार वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारियों के भारत आने के बाद बताया जाता था कि बैठक रद्द कर दी गई है क्योंकि रक्षा मंत्रालय में उनके समकक्ष अधिकारी बहुत व्यस्त हैं। अमेरिका भारत का इकलौता ऐसा अहम रक्षा साझेदार है जो ऐसे हथियार विकास कार्यक्रम में शामिल नहीं है जिसे भारत 'सामरिक' मानता है। इजरायल भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के साथ मिलकर अत्यधिक संवेदनशील बैलिस्टिक मिसाइल प्रणाली के विकास पर काम कर रहा है, फ्रांस भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों को परमाणु क्षमता संपन्न बनाने और पारंपरिक पनडुब्बियां बनाने में मदद कर रहा है। रूस भारत की परमाणु पनडुब्बी योजना में अहम भूमिका निभा रहा है। हालांकि इस तुलना में अमेरिका की कोई सामरिक पहल नहीं है। वह भारत को जरूरी हथियार बेचकर संतुष्ट है। बहुचर्चित अमेरिका-भारत रक्षा व्यापार और तकनीक पहल ने भी कोई खास प्रगति नहीं की।
शंकालु प्रकृति के लोगों का मानना है कि अमेरिका भारत को हथियार बेचकर संतुष्ट है और वह सामरिक तकनीक साझा नहीं करना चाहता। परंतु सच यह है कि भारत ने कभी सामरिक परियोजनाओं में सहयोग को लेकर अमेरिका को गंभीरता से परखा नहीं है। समुद्री परमाणु क्षमता में अमेरिका विश्व में अग्रणी है। जबकि भारत की नौसेना और डीआरडीओ भारतीय पनडुब्बियों के लिए रिएक्टर बनाने में जूझ रहे हैं। परमाणु क्षमता संपन्न विमानवाहक पोत बनाने में भी यही स्थिति है। दरअसल इस मामले में सहयोग का उचित अनुरोध कभी नहीं किया गया। सन 1950 के दशक से अमेरिका की अन्य देशों के साथ सैन्य परमाणु सहयोग न करने की नीति रही है। बस करीबी सहयोगियों ब्रिटेन और फ्रांस के साथ कुछ परियोजनाओं पर काम हुआ। इस पुरानी नीति में कोई बदलाव तभी संभव है जब उच्चतम राजनीतिक स्तर पर अनुरोध किया जाए। साफ कहें तो प्रधानमंत्री मोदी को अगले माह अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को फोन करके कहना चाहिए कि हमें चीन से साफ खतरा है और हम चाहते हैं कि अमेरिका हमारे पनडुब्बी और विमानवाहक पोत को परमाणु क्षमता संपन्न बनाने में मदद करे।
मोदी को बाइडन को याद दिलाना होगा कि अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बहुपक्षीयता बढ़ाना चाहता है और इसमें शक्तिशाली भारत की अहम भूमिका है। दोनों देशों का सामरिक सहयोग भारत को मजबूत समुद्री साझेदार बनाएगा। अमेरिकी रक्षा विभाग में कुछ लोग इसका विरोध करेंगे लेकिन वहां समझदार लोगों की भी कमी नहीं। उसके नीति निर्माताओं को समझाया जा सकता है कि छह परमाणु क्षमता संपन्न हमलावर पनडुब्बियों की योजना के साथ भारत पहले ही इस दिशा में प्रतिबद्ध है। उन्हें यह भी पता है कि अगर अमेरिका मना करता है तो रूस मदद के लिए तैयार है।
केवल एक फोन से काम नहीं बनने वाला। यह एक सतत प्रक्रिया होगी। वर्षों पहले भारतीय नौसेना के वाइस एडमिरल रवि गणेश नौसेना प्रमुख की ओर से यह पता लगाने पेंटागन गए थे कि अमेरिका परमाणु पनडुब्बी सहयोग के बारे में क्या रुख रखता है। जब गणेश ने यह विनम्रता से यह सवाल उठाया तो किसी अमेरिकी अधिकारी ने इसे खारिज नहीं किया। बल्कि उनसे पूछा गया कि भारतीय प्रधानमंत्री इस मामले में औपचारिक अनुरोध क्यों नहीं कर रहे? कहा गया कि जब भी ऐसा अनुरोध होगा उसका उचित जवाब दिया जाएगा। इंदिरा गांधी के बाद मनमोहन सिंह को छोड़कर भारत का राजनीतिक नेतृत्व रक्षा और सामरिक मसलों में प्रत्यक्ष संपर्क का अनिच्छुक रहा है। परंतु अब चीन की आक्रामकता और पाकिस्तान की गतिविधियों के बीच भारत के लिए बाहरी संतुलन कायम करना जरूरी है। भारत को अब सामरिक साझेदारों, खासकर अमेरिकी की जरूरत है ताकि उसे ऐसे सामरिक लाभ मिलें जो सामान्य युद्ध और उपकरणों की खरीद से इतर हों। प्रधानमंत्री मोदी जब नए अमेरिकी राष्ट्रपति को बधाई दें तो उन्हें अमेरिका के साथ ऐसे रिश्तों का प्रयास करना चाहिए जो भारत के लिए सामरिक लाभ लेकर आए।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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