आचार्य पवन त्रिपाठी
हते हैं कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते। हालांकि सयानों का कहना है कि पूर्ववÌतयों से सीखने में कोई बुराई नहीं लेकिन महाराष्ट्र की महा विकास आघाड़ी सरकार इसे मानने को तैयार नहीं। यह उसका सिर्फ एक राजनीतिक पूर्वाग्रह है कि पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की सकारात्मक बातें सामने नहीं आनी चाहिए। मेट्रो कार शेड की जगह के बारे में तो यही तथ्य दिखाई दे रहा है जबकि इसी सरकार द्वारा गठित एसीएस मनोज सौनिक समिति का साफ–साफ मानना है कि लाइन ३ के लिए वर्तमान का कारशेड यानी आरे ही सर्वोत्तम है। समिति ने यह भी माना है कि आरे कारशेड में ग्रीन फेसिलिटी का प्रावधान है अर्थात इसमें कार्बन उत्सर्जन न्यूनतम रहेगा मसलन कारशेड की छत पर सोलर पैनेल‚ प्रदूषित पानी को परिष्कृत कर पुनः व्यवहार में लाना‚ एलईडी बल्ब के प्रयोग से बिजली की बचत इत्यादि।
पता नहीं क्यों उद्धव ठाकरे सरकार कांजुरमार्ग के पीछे पड़ी हुई है‚ जबकि इस राह में बहुत कांटे हैं। इसके उलट आरे का रास्ता साफ सुथरा और समतल है पर चूंकि आरे फडणवीस की परियोजना है‚ इसलिए ठाकरे सरकार ने कांजुरमार्ग का खेल खेल दिया। मनोज सौनिक समिति का यह भी कहना है कि कारशेड को कहीं और स्थानांतरित किया जाता है‚ तो मेट्रो लाइन ६ परियोजना को तुरंत रोकना पड़ेगा एवं इसमें सिर्फ भारी फेरबदल ही नहीं करना पड़ेगा‚ बल्कि इसमें नये सिरे से काम करना पड़ेगा। यह तकनीकी oष्टि से समय सापेक्ष और खर्चीला होगा। यह भी तय नहीं है कि यह काम तकनीकी oष्टि से संभव हो पाएगा या नहींॽ समिति के मुताबिक कारशेड के कांजुरमार्ग स्थानांतरण से यह परियोजना दिसम्बर‚ २०२१‚ जो उसकी पूर्व निर्धारित तय सीमा है‚ तक पूरा नहीं हो पाएगी क्योंकि सिर्फ कारशेड बनाने में ही कम से कम ४.५ साल लगेंगे। जो लोग कांजुरमार्ग को जानते हैं‚ उन्हें पता है कि यहां की जमीन की भराई और उसे समतल करने में ही दो साल लगेंगे यानी मुंबईकरों को और अनेक सालों तक मेट्रो से वंचित रहते हुए दुखः झेलने पड़ेंगे।
समिति ने यह भी स्वीकार किया है कि कांजुरमार्ग स्थानांतरण करने से मेट्रो ३ एवं मेट्रो ६ दोनों के करारों में भारी फेरबदल करना पड़ेगा। इस से न सिर्फ समय का दुरु पयोग होगा‚ बल्कि परियोजना में भी बदलाव करना पड़ेगा और खर्चों में भारी बढ़ोतरी होगी। समिति की रिपोर्ट के अनुसार एक ही कारशेड होने से यह दोनों लाइनों की जरूरतें समय से पूरा नहीं कर पाएगी जिससे दोनों लाइन का परिचालन बाधित होगा और क्षमता के अनुरूप कार्य नहीं हो पाएगा। अन्ततः जनता को समयानुसार सेवा भी नहीं मिल पाएगी।
अपनी रिपोर्ट में समिति ने उल्लेख किया है कि लाइन ३ में ८ डिब्बे का प्रावधान है जबकि लाइन ६ में सिर्फ ६ डिब्बे के रैक होंगे। तकनीकी oष्टि से यह बड़ी बात है। दोनों के लिए एक कारशेड में खर्च में कमी नहीं आएगी। यह प्रस्ताव परिचालन में खर्चीला होगा जिसका बोझ सीधे तौर पर जनता पर होगा। यहां पर मुंबई मेट्रो के त्रिपक्षीय करार पर ध्यान देना भी आवश्यक है। इस करार में प्रावधान है कि परियोजना में अनावश्यक देरी का कारण खर्च में वृद्धि होती है‚ तो महाराष्ट्र सरकार जिम्मेदार होगी और अतिरिक्त वित्तीय भार वहन करेगी। कारशेड स्थानांतरण से परियोजना में अतिरिक्त वित्तीय बोझ की बात की जाए तो समिति का कहना है कि सिर्फ जमीन की कीमत (न्यायालय इसे व्यक्तिगत संपत्ति माने तो) के मद में सरकार को ७८६२ करोड़ रुûपये चुकाने होंगे। ध्यान रहे कि मेट्रो लाइन ३ में एक दिन की देरी से परियोजना पर ५.८७ करोड़ का बोझ पड़ता है। चार साल की देरी भी मानें तो ८५७० करोड़ रु पये का अतिरिक्त भार महाराष्ट्र सरकार को वहन करना पड़ेगा। मेट्रो लाइन ६ का अतिरिक्त भार अलग से होगा। ॥ महkवपूर्ण तथ्य यह भी है कि परियोजना पूरी होने में देरी के कारण राज्य की अर्थव्यवस्था में होने वाली क्षति का सटीक आकलन अभी से कर पाना मुमकिन नहीं है‚ पर मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि दोनों मेट्रो लाइन के लिए यह ५३५६ से ४३‚८२६ करोड़ रुûपये तक हो सकता है‚ यह बात समिति ने भी मानी है। सवाल है कि इतना भारी वित्तीय बोझ अपने छोटे से राजनैतिक लाभ के लिए जनता पर डालना कहां तक उचित हैॽ समिति का निष्कर्ष है कि जब कांजुरमार्ग जमीन के मालिकाना हक का फैसला तक नहीं हुआ है‚ और यह मामला न्यायालय में लंबित है‚ तो वहां कारशेड स्थानांतरण का विचार प्रासंगिक नहीं है। यह सच्चाई है कि सॉल्टपेन जमीन के अधिकार का विषय राज्य और केंद्र के बीच ४० साल से फंसा हुआ है।
दरअसल‚ १९३० के समझौते का यह प्रावधान था कि जिस जमीन पर नमक की खेती होती है उस जमीन का मालिकाना हक नमक आयोग के पास रहेगा। फिर इस पर विवाद तब शुरू हुआ जब १९८१में तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने २९७८ एकड़ नमक खेती को राज्य सरकार की मलकियत घोषित कर दिया। तब आयोग ने कोर्ट में इसे चुनौती दी जो पिछले चार दशक से लंबित है॥। बात आरे की करें तो वहां पर २१४१ पेड़ काटे जा चुके हैं। कांजुरमार्ग जमीन में कोई भी परियोजना वहां जैव विविधता को क्षति पहंुचाएगी। यह भी जान लीजिए कि कांजुरमार्ग की जमीन सॉल्टपेन है‚ जहां सदाबहार यानी मैंग्रोव्स हैं‚ और मैंग्रोव्स प्रतिबंधित वृक्ष हैं। यातायात विभाग के आंकड़े बताते हैं कि २००९ से २०१९ के बीच वाहनों की संख्या में २०८‡ की बढ़ोतरी हुई है। बृहन मुंबई में रास्ते की लंबाई करीब २००० किमी. है‚ जिसमें इन वषाç में कोई खास बढ़ोतरी भी नहीं हुई है। शहर के पर्यावरण पर इसका जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है‚ वह विचारणीय है और इसके समाधान में अब और देरी होने की संभावना है। मुंबई जिलाधिकारी के पत्र दिनांक १ अक्टूबर‚ २०२० में साफ लिखा है कि उच्च न्यायालय ने प्रस्तावित कांजुरमार्ग जमीन पर किसी भी प्रकार का कार्य के लिए अगले आदेश तक रोक लगा दी है। इसका मतलब है कि वहां पर कारशेड के लिए उच्च न्यायालय की अनुमति लेनी होगी। इसके लिए खर्च एमएमआरडीए को वहन करना पड़ेगा यानी एक और वित्तीय बोझ। मजे की बात है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे कांजुरमार्ग को किफायती मानते हैं पर हकीकत इससे कोसों दूर है। फडणवीस का कहना है कि यह मेट्रोविहीन प्रस्ताव है। कहने का तात्पर्य है कि जब मेट्रो परियोजना की ७६ फीसदी सुरंग के काम हो चुके हैं‚ तो अगले ४ से ५ साल तक कारशेड का ना होना परियोजना की वित्तीय साध्यता को विफल करता है। देखना है कि आरे बनाम कांजुरमार्ग की लड़ाई में जीत सच की होती है‚ या बोझ‚ देरी और फिजूलखर्ची बाजी मार ले जाते हैं।
पता नहीं क्यों उद्धव सरकार कांजुरमार्ग के पीछे पड़ी हुई है‚ जबकि इस राह में बहुत कांटे हैं जबकि आरे का रास्ता साफ सुथरा और समतल है पर चूंकि आरे फडणवीस की परियोजना है‚ इसलिए उद्धव सरकार ने कांजुरमार्ग का खेल खेल दिया। मनोज सौनिक समिति का कहना है कि कारशेड को कहीं और स्थानांतरित किया जाता है‚ तो नये सिरे से काम करना पड़ेगा ॥
सौजन्य - राष्टीय सहारा।
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