राजनीति: अर्थव्यवस्था में भरोसे का संकट (जनसत्ता)

सरोज कुमार

भरोसा एक ऐसा शब्द है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी पर दुनिया टिकी है। भूत, भविष्य, वर्तमान सब भरोसे पर टिका है। भरोसा है तो व्यवस्था चलती है, भरोसा उठ गया तो सब ठप हो जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में भी यह उपयुक्त लगता है।

भरोसा डगमगाते ही अर्थ की व्यवस्था डगमगाने लगती है। इसलिए अर्थ और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरूरी होता है कि लोगों का इस पर भरोसा बना रहे। कोरोना विषाणु के प्रकोप बाद अर्थव्यवस्था लुढ़क कर गहरी खाई में चली गई। पहली तिमाही में देश की जीडीपी दर इतिहास में पहली बार शून्य से नीचे 23.9 फीसद पर पहुंच गई।

दूसरी तिमाही में इसमें सुधार जरूर हुआ, लेकिन अभी भी यह शून्य से नीचे साढ़े फीसद पर है। इसमें अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि अर्थव्यवस्था औपचारिक रूप से मंदी में जा चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) का हालांकि कहना है कि सुधार की मौजूदा रफ्तार बनी रही तो तीसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था मंदी से बाहर निकल आएगी।

लेकिन इस रफ्तार के बने रहने के संकेत फिलहाल नहीं हैं। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि तीसरी तिमाही में जीडीपी और नीचे जा सकती है, क्योंकि दूसरी तिमाही का सुधार त्योहारी मौसम में मांग बढ़ने के कारण हुआ है, जिसके तीसरी तिमाही में बने रहने की संभावना नहीं है।

उपभोक्ताओं का अर्थव्यवस्था पर भरोसा कोरोना से पहले ही डगमगाने लगा था। वित्त वर्ष 2018-19 में 6.1 फीसद की वृद्धि दर 2019-20 में 4.2 फीसद पर आ गई। लेकिन कोरोना के बाद भरोसा उठ-सा गया। आरबीआइ के उपभोक्ता भरोसा सर्वेक्षण के अनुसार, सितंबर में अर्थव्यवस्था का वर्तमान स्थिति सूचकांक (सीएसआइ) रिकार्ड निचले स्तर 49.9 पर चला गया।

इसके पहले जुलाई में यह 53.8 पर और मई में 63.7 पर था। पिछले दस सालों के दौरान 2010 की चौथी तिमाही में उपभोक्ताओं का भरोसा 116.70 के सर्वोच्च स्तर पर था। उस दौरान (2010-11 की चौथी तिमाही में) जीडीपी वृद्धि दर 9.2 फीसद थी।

हालांकि अगले साल यानी 2021 को लेकर उपभोक्ता आशावान हैं, क्योंकि अगस्त-सितंबर के सर्वेक्षण में भविष्य उम्मीद सूचकांक (एफईआइ) 115.9 पर था, जो जुलाई में 105.4 और मई में 100 से नीचे चला गया था। इस सूचकांक के 100 से नीचे जाने का अर्थ होता है कि भविष्य की स्थिति वर्तमान से भी खराब हो सकती है।
शायद सितंबर के एफईआइ के आधार पर ही कहा जा रहा है कि अगली तिमाही में या अगले साल अर्थव्यवस्था मंदी से उबर जाएगी। लेकिन यह सिर्फ उम्मीद है, और जब तक यह भरोसे में नहीं बदल जाती, सुधार का जश्न बेमानी है।

सवाल उठता है कि उपभोक्ताओं की उम्मीद भरोसे में कैसे बदलेगी? उपभोक्ताओं का अर्थव्यवस्था पर भरोसा तब बढ़ता है, जब उन्हें आमदनी का भरोसा हो जाए, यानी उनके पास रोजगार हो, नौकरियां हों। सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि श्रम बाजार में रोजगार की स्थिति ठीक नहीं है और रोजगार दर 2016-17 (42.8 फीसद) से ही लगातार नीचे जा रही है।

पिछले महीने यानी नवंबर के प्रथम सप्ताह में 37.5 फीसद, दूसरे सप्ताह में 37.4 फीसद और 22 नवंबर को समाप्त तीसरे सप्ताह में रोजगार दर लुढ़क कर 36.2 फीसद पर चली गई। अब तीसरी तिमाही के दो महीने बीत चुके हैं और रोजगार दर की यह हालत है। ऐसे में उपभोक्ताओं की उम्मीद को भरोसे में बदलने की उम्मीद कैसे की जाए? तीसरी तिमाही में तो संभावना न के बराबर है।

रोजगार दर नीचे होने का मतलब है उपभोक्ताओं के पास आमदनी नहीं है। आमदनी न होने पर जाहिर-सी बात है वे खरीदारी नहीं करेंगे और बाजार में मांग नहीं होगी। फिर उत्पादन नहीं होगा और उत्पादन नहीं होगा तो नौकरियां पैदा नहीं होंगी। यह स्थिति अधिक अवधि तक बनी रहती है तो जीडीपी का आकार घटने लगता है और महंगाई भी बढ़ जाती है।

पिछले वित्त वर्ष (2019-20) में भारत की जीडीपी 2.94 खरब डॉलर थी और देश दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। अब 2020 में भारत की जीडीपी का आकार घट कर 2.6 खरब डॉलर होने की बात कही जा रही है और देश अब एक पायदान नीचे खिसक कर दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था होगा। उत्पादन कम होने और मांग अधिक होने से महंगाई बढ़ती है।

लेकिन इस समय मांग न होने के बावजूद महंगाई बढ़ रही है। अक्तूबर में खुदरा महंगाई दर छह साल के उच्चस्तर 7.61 फीसद पर पहुंच गई। सबसे बड़ा आश्चर्य खाद्य महंगाई दर को लेकर है, जो अक्तूबर में बढ़ कर 11.07 फीसद हो गई। जबकि कृषि विकास दर दूसरी तिमाही में भी 3.4 फीसद पर बनी हुई है और सरकार के अनुसार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज भी दिया जा रहा है।

अर्थशास्त्र की भाषा में अर्थव्यवस्था की इस स्थिति को मुद्रास्फीतिजनित मंदी कहते हैं। तो भारत सिर्फ मंदी ही नहीं, बल्कि मुद्रास्फीति जनित मंदी की चपेट में है। इस मंदी से बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता भरोसा ही है। लेकिन सवाल उठता है कि उपभोक्ताओं में यह भरोसा जागेगा कैसे और इसे कौन जगाएगा?

भारत की जीडीपी में उपभोक्ता खर्च की हिस्सेदारी साठ फीसद से अधिक है। जबकि रोजगार की दर गिर कर 36.2 फीसद हो गई है, यानी श्रमशक्ति का 63.8 फीसद हिस्सा बेरोजगार है। जिनके पास रोजगार है, उनकी भी कमाई घट गई है।

परिणामस्वरूप उपभोक्ताओं का भरोसा रिकार्ड निचले स्तर 49.9 पर चला गया है। इस भरोसे को ऊपर उठाने के सिवाय अर्थव्यवस्था को उबारने का दूसरा रास्ता नहीं है। ऐसे में हमें यह देखना होगा कि कहां क्या किया जा सकता है। हालांकि सरकार ने उपाय किए भी हैं।

लेकिन अब तक किए गए उपाय अपेक्षित परिणाम देते नजर नहीं आते, क्योंकि ज्यादातर उपाय निजी क्षेत्र के उद्यमों और उद्यमियों को प्रोत्साहित करने वाले रहे हैं। जबकि निजी क्षेत्र सिर्फ बाजार में मांग बढ़ने से प्रोत्साहित होता है। हां, जहां सरकार ने उपभोक्ताओं के लिए सीधे तौर पर उपाय किए हैं, वहां परिणाम दिखा है।

मनरेगा के कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था को थोड़ा सहारा मिला है। सार्वजनिक क्षेत्र में कर्मचारियों के भत्तों में भले कटौती हुई हो, लेकिन नौकरियां नहीं गई हैं। सार्वजनिक क्षेत्र ने कोरोना काल में शानदार काम किया है। कमजोर ढांचे के बावजूद सरकारी स्वास्थ्य महकमे ने ही कोरोना से लोहा लिया।

कृषि क्षेत्र ने इस संकट में सुरक्षा कवच का काम किया है। अर्थव्यवस्था के खाई में लुढ़क जाने के बावजूद कृषि क्षेत्र में लगातार दो तिमाही से 3.4 फीसद की वृद्धि दर बनी हुई है। यानी सरकारी उद्यम, सरकारी अस्पताल और कृषि क्षेत्र इस आर्थिक अंधेरे में चमकते सितारे साबित हुए हैं। फिर इन्हें ही मजबूत क्यों न किया जाए।

जहां तक निजी क्षेत्र का जहां तक सवाल है, वह हमेशा सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर ही फलता-फूलता है। इस बात के समर्थन में तमाम सबूत और उदाहरण मौजूद हैं। सामान्य दिनों में सार्वजनिक उद्यमों को औने-पौने दाम में निजी हाथों में सौंप दिया जाता है और जब ये निजी उद्यम संकट में होते हैं तब भी उसे बचाने के लिए सरकार को राहत पैकेज देने पड़ते हैं।

लेकिन जब देश पर संकट आता है तो यही निजी क्षेत्र मददगार बनने के बदले अपने दरवाजे बंद कर घर के अंदर बैठ जाता है। यह अलग बात है कि निजी क्षेत्र अर्थव्यवस्था में तात्कालिक वृद्धि दर मुहैया कराता है, लेकिन अर्थव्यवस्था चक्र में थोड़ा-सा व्यवधान आने पर अर्थव्यवस्था को उसी रफ्तार से नीचे भी पहुंचा देता है।

भरोसेमंद उसी को माना जाता है, जो संकट में साथ दे। लिहाजा हमें सार्वजनिक क्षेत्र और कृषि क्षेत्र को मजबूत कर भरोसे वाली अर्थव्यवस्था का एक भरोसेमंद मॉडल विकसित करना होगा, ताकि उपभोक्ताओं का भरोसा हमेशा बना रहे और अर्थव्यवस्था का पहिया चलता रहे।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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