आज देश भर में किसान आंदोलन को लेकर बहुत चर्चा हो रही है। लेकिन आज हम सरकार और किसानों के बीच हो रहे इस आंदोलन के हल निकालने के लिए अपनाए जा रहे तरीकों पर चर्चा करेंगे। इसी से अंदाजा लगेगा कि यह आंदोलन किस ओर जा रहा है। दरअसल‚ यह विलेषण हमारे मित्र‚ चिंतक और समाज वैज्ञानिक सुधीर जैन ने किया है। जैन का कहना है कि पारंपरिक ज्ञान है कि किसी भी समस्या या परेशानी से निपटने के लिए कौटिल्य द्वारा बताए गए साम‚ दाम‚ दंड व भेद का रास्ता ही सबसे उचित है। अगर हम इनको एक–एक करके देखें तो हो सकता है कि हमें कुछ अंदाजा लगे कि इस आंदोलन में आगे क्या हो सकता है। साम‚ दाम‚ दंड व भेद में एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि ये सब एक क्रम में हैं।
सबसे पहले साम यानी समझौते या संवाद को अपनाया जाता है। लेकिन इस समस्या में साम की बात करें तो ये देखा जाएगा कि साम के बजाए बाकी तीनों विकल्पों को पहले अपनाया जा रहा है। इस बात से आप सभी भी सहमत होंगे कि जो भी स्थितियां पिछले दिनों में बनीं‚ उनमें दंड और भेद ज्यादा दिखाई दिए। लेकिन इस बात का विरोध करने वाले यह कहेंगे कि साम यानी संवाद वाले औजार का प्रयोग हो तो रहा है। लेकिन पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें तो साम का इस्तेमाल कोई ज्यादा दिखाई नहीं दे रहा। न तो किसानों की ओर से और न ही सरकार की ओर से। अलबत्ता बाकी तीन चीजों का इस्तेमाल ज्यादा दिखाई देता है।
दाम की स्थिति यह है कि वर्षों से स्थापित किसान नेताओं को इस आंदोलन में कोई ज्यादा छूट नहीं दी गई है। जिस तरह से देश भर के किसानों के प्रतिनिधियों को इस आंदोलन में देखा जा रहा है‚ ३५ संगठन कम नहीं होते। इन ३५ संगठनों को घटा कर एक संगठन या मंडल में सीमित करना कोई आसान काम नहीं है। किसान इस बात पर राजी नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन कम और सामूहिक या सामाजिक आंदोलन ज्यादा नजर आता है। सरकार को इसमें दाम के औजार को इस्तेमाल करने में काफी कठिनाई आ सकती है। अगर सारे आंदोलन का एकमुश्त नेतृत्व चंद लोगों के हाथ में होता‚ तो सरकार उनसे डील कर सकती थी‚ जैसा अक्सर होता है। पर यहां सभी बराबर के दमदार समूह हैं। इसलिए उसकी संभावना कम नजर आती है। ॥ दंड की बात करें‚ तो इसमें थोडÃी कोशिश जरूर की गई है। इस आंदोलन में जिस तरह अडÃचन डाली गई या किसानों को भयभीत किया गया कि किसी तरह इस आंदोलन को शुरू न होने दिया जाए। लेकिन दंड का औजार इस आंदोलन में ज्यादा असरदार नहीं दिखा। आज देश की स्थितियां काफी संवेदनशील हैं और इन स्थितियों में ऐसी दबिश या जबरदस्ती करना सम्भव नहीं दिखता। लेकिन इस आंदोलन में अगर दंड के रूप में थोडÃा आगे देखें‚ तो अदालत एक ऐसा रास्ता दिखाई देता है‚ जिसे सरकार आने वाले समय में अपना सकती है। ऐसा पहले हुआ भी है‚ जब किसी आंदोलन में कोई समझौता‚ दबिश या दंड का रास्ता नहीं काम आया तो अदालत का दरवाजा खटखटाया जाता है। कोविड के नाम पर अदालत से किसानों को हटाने के आदेश मांगे जा सकते हैं। पर तब सवाल खडÃा होगा कि बिहार और हैदराबाद सहित जिस तरह लाखों लोगों की भीडÃ कंधे से कंधा सटाकर जनसभाओं में हफ्तों जमा होती रही‚ उन पर कोविड का महामारी के रूप में क्या कोई असर हुआॽ अगर नहीं‚ तो अदालत में किसानों के वकील ये सवाल खडÃा कर सकते हैं।
साम‚ दाम‚ दंड के बाद अब अगर भेद की बात करें‚ तो उसमें दो–तीन बातें आती हैं जैसे कि भेद लेना‚ तो किसानों से भेद लेना कोई आसान सी बात नहीं दिखती। सब कुछ टिकैत के आंदोलन की तरह एकदम स्पष्ट है। इतने सारे किसान नेता हैं‚ प्रवक्ता हैं‚ इनमें भेद करना या फूट डालना मुश्किल होगा। फिर भी वो कोशिश जरूर होगी। इस दिशा में जितनी भी कोशिशें हो रही हैं‚ अगर उनको आप ध्यान से देखेंगे या उससे संबंधित खबरों को देखेंगे‚ तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि भेद डालने के क्या–क्या उपक्रम हुए हैं। ये काम भी हर सरकार हर जनांदोलन के दौरान करती आई है। इसलिए इस हथकंडे को मौजूदा सरकार भी अपनाने की कोशिश करेगी। ॥ इन सब से हट कर एक गुंजाइश और बचती है और वो है वक्त। ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए जो भी सरकार या नौकरशाही या कारपोरेट घराने हों‚ वो इस इंतजार में रहते हैं कि किसी तरह आंदोलन को लंबा खिंचवाया जाए तो वो धीरे–धीरे ठंडा पडÃ जाता है। ये विकल्प अभी बाकी है कि किस तरह से इस आंदोलन को अपनी जगह पर ही रहने दें और इंतजार किया जाए। यानी मुद्े को वक्त के साथ मरने दिया जाए। अलबत्ता किसानों ने आते ही इस बात का ऐलान भी कर दिया था कि वो तैयारी के साथ आए हैं। वो ४–५ महीनों का राशन भी साथ लेकर आए हैं। इनके उत्साह को देखते हुए यह पता लग रहा है कि किसान एक लंबी लडÃाई लडÃने के लिए तैयार हैं। इसलिए इस औजार का इस्तेमाल करने में भी मुश्किल आएगी। अगर आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश के करोडÃों बेरोजगार नौजवान भी इस आंदोलन से जुडÃ गए‚ तो ये विकराल रूप धारण कर सकता है। ये तो वक्त ही बताएगा की >ंट किस करवट बैठेगा।
जहां तक आंदोलन के खालिस्तान समर्थक होने का आरोप है‚ तो यह चिंता की बात है। ऐसे कोई भी प्रमाण अगर सरकार के पास हैं तो उन्हें अविलंब सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या' की तर्ज पर कुछ टीवी चैनलों का ये आरोप लगाना बचकाना और गैर जिम्मेदाराना लगता है‚ जब तक वे इसके ठोस प्रमाण सामने प्रस्तुत न करें। यूे तो हर जन आंदोलन में कुछ विघटनकारी तत्व हमेशा घुसने की कोशिश करते हैं। अब ये किसान आंदोलन के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वो ऐसे तत्वों को हावी न होने दें और अपना ध्यान मुख्य मुद्ों पर ही केंद्रित रखें। सरकार भी खुले मन से किसानों की बात सुने और वही करे‚ जो उनके और देश के हित में हो।
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
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