कोविड-19 महामारी के कारण हुई देशव्यापी बंदी के असर से अर्थव्यवस्था के उबरने का सिलसिला जारी है और आगामी आम बजट से यही आशा होगी कि वह सुधार की प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए जरूरी नीतिगत हस्तक्षेप करेगा। व्यापक आर्थिक सुधार को गति देने वाले महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है बैंकिंग व्यवस्था की स्थिति। खासतौर पर सरकारी बैंकों की हालत। कोविड-19 महामारी के कारण हुई उथलपुथल के कारण बैंकिंग तंत्र में फंसे हुए कर्ज का स्तर बढऩे की आशंका है इसलिए सरकार से यही उम्मीद होगी कि वह सरकारी बैंकों में पूंजीकरण के लिए पर्याप्त धनराशि का आवंटन करे। बहरहाल एक तथ्य यह भी है कि सरकार के लिए पूंजी का आवंटन करना आसान नहीं होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था पहले ही दबाव में है। ऐसे में सरकार को सरकारी बैंकों में पूंजी डालने के अलावा और भी कदम उठाने होंगे ताकि उन्हें लंबी अवधि के दौरान स्थायित्व प्रदान किया जा सके।
साल दर साल बैंकों में पूंजी डालने के वांछित परिणाम नहीं हाथ लगे हैं। जानकारी के मुताबिक भारतीय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के बाद बीते पांच वर्ष के दौरान उनके प्रदर्शन का ब्योरा तलब किया है। निरंतर राजकोषीय बाधाएं बनी रहने के कारण इससे सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की वास्तविक अवसर लागत निर्धारित करने में मदद मिल सकती है। सीएजी द्वारा उठाए गए कदम का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे न केवल मौजूदा परिस्थितियों बल्कि सरकारी बैंकों के भविष्य से संबंधित नीतिगत बहस का दायरा व्यापक होगा। अब तक की बात करें तो सरकार ने 2015-16 और 2019-20 के बीच सरकारी बैंकों में 3.5 लाख करोड़ रुपये की राशि डाली है। यह राशि प्रत्यक्ष तौर पर अथवा पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड के माध्यम से डाली गई। परंतु सरकारी बैंकों का बाजार पूंजीकरण 4 लाख करोड़ रुपये से जरा ही अधिक है। बल्कि अभी हाल तक तो यह डाली गई पूंजी से भी कम था। इससे पता चलता है कि सरकारी बैंकों का किस कदर मूल्यह्रास हुआ है। स्पष्ट है कि यथास्थिति बनाए नहीं रखी जा सकती है और दबाव कम करने के लिए सुधार जरूरी हैं।
इस समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक सरकार बजट में बैंक इन्वेस्टमेंट कंपनी (बीआईसी) के गठन की योजना पर विचार कर रही है। मौजूदा हालात में यह सही दिशा में उठाया गया कदम होगा। इसके लिए बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम तथा भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम में भी संशोधन करने होंगे। यह सुझाव पीजे नायक समिति ने 2014 में दिए थे। सरकार कंपनी अधिनियम के तहत बीआईसी का गठन कर सकती है। समिति ने यह सुझाव भी दिया था कि सरकार बीआईसी के साथ समझौता करे जिसके जरिये उसे स्वायत्तता प्रदान की जाए और उसके नियंत्रण वाले बैंकों के वित्तीय प्रतिफल के लक्ष्य तय किए जाएं। ऐसा करने से एक तरह से ये बैंक सरकार के नियंत्रण से मुक्त होंगे और अधिक पेशेवर अंदाज में काम कर सकेंगे। इससे मूल्यांकन बढ़ेगा और सरकारी बैंक बाजार से पूंजी जुटा सकेंगे। बीआईसी स्वयं भी निजी भागीदारी से पूंजी जुटा सकती है।
इस समय बीआईसी बेहतर विकल्प नजर आ रही है क्योंकि सरकारी बैंकों का निजीकरण मुश्किल दिख रहा है और सरकार इस स्थिति में नहीं है कि वह निरंतर पूंजी डाल सके। बहरहाल, यह तभी कारगर होगा जब सरकार नियंत्रण त्यागना चाहे। नायक समिति की एक और अनुशंसा बैंक्स बोर्ड ब्यूरो के साथ अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। यदि बीआईसी भी सरकार के विस्तार के रूप में काम करेगी तो वह तय लक्ष्य हासिल नहीं कर सकेगी। ऐसे में सरकार को बीआईसी को पूरी स्वायत्तता देनी होगी और पेशेवर प्रबंधन नियुक्त करना होगा। वक्त आ गया है कि सरकार केवल पूंजी डालने के अलावा भी विचार करे। आगामी बजट इसके लिए अच्छा अवसर है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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