ऋतु सारस्वत
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि गृहणियों के लिए दुर्घटना के मामलों में मुआवजा तय करने के लिए न्यायालय को गृह कार्य की प्रकृति को ध्यान में रखना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि मुआवजे से संबंधित मामलों में गृहणियों की काल्पनिक आय तय करना समाज के लिए एक संकेत है कि कानून और अदालतें उनके श्रम, सेवाओं और बलिदानों को महत्व देती हैं।
देश में अधिकारिक तौर पर कराए जाने वाले अध्ययनों में आज भी गृहणियों की गिनती एक गैर-उत्पादक वर्ग में की जाती है और उनके काम को काम ही नहीं माना जाता। यूनिसेफ की 'लड़कियों के लिए आंकड़े एकत्र करना, समीक्षा करना और 2030 के बाद की दूरदृष्टि' नामक शीर्षक से जारी एक रिपोर्ट बताती है कि घरेलू कार्यों का बोझ लड़कियों पर बहुत कम आयु में ही बढ़ जाता है। पांच से नौ साल की आयु वर्ग की लड़कियां अपने ही उम्र के लड़कों के मुकाबले एक दिन में 30 प्रतिशत ज्यादा समय काम करती हैं।
एक राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक, 60 प्रतिशत ग्रामीण और 64 प्रतिशत शहरी महिलाएं, जिनकी आयु 15 साल या उससे ज्यादा है, पूरी तरह से घरेलू कार्यों में लगी रहती हैं। 60 वर्ष से ज्यादा की आयु वाली एक चौथाई महिलाएं ऐसी हैं, जिनका सर्वाधिक समय इस उम्र में भी घरेलू कार्य में ही बीतता है। इनसे स्पष्ट है कि पितृसत्तात्मक समाज यह मानकर चलता हैं कि महिलाएं सिर्फ सेवा कार्य के लिए बनी हैं और यह सोच विश्व के हर कोने में व्याप्त है। महिलाओं के अवैतनिक घरेलू कार्य के साथ एक कठोर सच्चाई यह भी है कि आर्थिक गणना में ही नहीं, भावनात्मक रूप से भी उनके कार्यों को नगण्य माना जाता है और उन्हें निरंतर यह विश्वास दिलाया जाता है कि वे घर में रहकर कुछ नहीं करतीं, जिसके चलते महिलाएं स्वयं भी मानने लगती हैं कि वे कुछ नहीं कर रहीं।
माउंटेन रिसर्च जनरल के एक अध्ययन के दौरान उत्तराखंड की महिलाओं ने कहा कि वे कोई काम नहीं करतीं, लेकिन विश्लेषण से पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन नौ घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे। अगर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान भी किया जाता, तो पुरुषों को 128 रुपये और महिलाओं को 228 रुपये प्रतिदिन मिलते। जनगणना में गैर-कमाऊ श्रेणी में गिनी जाने वाली घरेलू महिलाएं वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ भारत में ही दिन भर में 350 मिनट अवैतनिक घरेलू कार्यों में बिताती हैं, जिसके लिए उन्हें कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलता।
अक्तूबर, 2020 में आई एक रिपोर्ट यह खुलासा करती है कि भारतीय महिलाएं एक दिन में औसतन 243 मिनट अवैतनिक काम करती हैं, जबकि पुरुष मात्र 25 मिनट। कुछ देशों एवं संस्थानों ने घरेलू अवैतनिक कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए कुछ विधियों का प्रयोग शुरू किया है। इन विधियों में से एक टाइम यूज सर्वे है। इस विधि से यह गणना की जाती है कि जितना समय महिला अवैतनिक घरेलू कार्यों को देती है, यदि उतना ही समय वह वैतनिक कार्यों के लिए देती, तो उसे कितना वेतन मिलता। कई देशों ने अवैतनिक कार्यों की गणना के लिए मार्केट रिप्लेसमेंट कॉस्ट थ्योरी का भी इस्तेमाल किया है। इस थ्योरी के जरिये यह जानने की कोशिश की जाती है कि जो कार्य अवैतनिक रूप से गृहिणी द्वारा घर पर किए जा रहे हैं, यदि उन सेवाओं को बाजार के माध्यम से उपलब्ध कराया जाएगा, तो कितनी लागत आएगी। वाशिंगटन स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमैन ने ग्वाटेमाला सेंट्रल अमेरिका में टाइम यूज सर्वे विधि का प्रयोग करते हुए निष्कर्ष निकाला कि लगभग 70 प्रतिशत कार्य वहां महिलाओं द्वारा अवैतनिक रूप से किए जाते हैं।
ये तमाम अध्ययन बताते हैं कि घरेलू महिलाओं के कार्यों का किस प्रकार अवमूल्यन हो रहा है। अब समय आ गया है कि उनके अवैतनिक घरेलू कार्यों की आर्थिक उत्पादन के रूप में गणना हो। हमारे देश में घरेलू स्त्री के कार्य के आर्थिक मूल्य को स्वीकार न करने की प्रवृत्ति देश को पीछे धकेल देगी। मेक कीन्स ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने पाया है कि अवैतनिक घरेलू कार्यों की गणना अगर दैनिक न्यूनतम वेतन के मापदंड पर भी की जाए, तो यह भारत के सकल घरेलू उत्पादन में 39 प्रतिशत की बढ़ोतरी करेगी।
सौजन्य - अमर उजाला।
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