वरुण गांधी, भाजपा नेता
तमिलनाडु सरकार ने आगामी मई में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सरकारी और निजी स्कूलों के 3,00,000 से ज्यादा शिक्षकों को चुनाव ड्यूटी में तैनात करने का आदेश जारी किया है। प्रशिक्षण, चुनावों के संचालन और नतीजों की घोषणा में लगने वाले समय को मिलाकर इस तरह के मतदान का काम आम तौर पर एक महीने से ज्यादा समय तक चल सकता है। दूसरी तरफ सरकार जल्दी ही स्कूलों को खोलने पर भी विचार कर रही है। लेकिन शिक्षकों की चुनाव में ड्यूटी लगाए जाने पर महामारी में लंबे समय तक बंद रहे स्कूल सत्र चलाने की कोशिश बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है। हो सकता है, स्कूल खोलना आगामी जून तक टल जाए। लगातार होने वाले चुनावों की समाज द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत हम पता नहीं क्यों, समझ नहीं पा रहे।
शायद एक साथ चुनाव कराने की दूरगामी सोच पर विचार करने का समय अब आ गया है, जिसकी वकालत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी की है। भारत में चुनाव कराना हमेशा ही कठिन और भारी खर्च वाला काम रहा है। पहाड़ी और जंगली इलाकों में ईवीएम पहुंचाने के लिए हाथियों के इस्तेमाल से लेकर तमाम तैयारियों में प्रशासनिक सहभागिता और भारी खर्च की जरूरत पड़ती है। वर्ष 2014 में लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर लगभग 4,500 करोड़ रुपये का खर्च आया था। यह आंकड़ा 'संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की व्यावहारिकता' को लेकर कार्मिक, जन शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति की 2015 में आई 79 वीं रिपोर्ट का है।
दूसरे देश यह काम कुछ अलग तरह से करते हैं। स्वीडन में स्थानीय काउंटी काउंसिल और म्यूनिसिपल काउंसिल के चुनाव आम चुनाव के साथ सितंबर के दूसरे हफ्ते में रविवार को होते हैं। यह चुनाव स्थानीय नगरपालिका और राष्ट्रीय चुनाव प्राधिकरण द्वारा कराया जाता है। आमतौर पर मतदान किसी स्थानीय सरकारी भवन (जैसे कि स्कूल, सामुदायिक केंद्र) में होता है। इसी तरह दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, जिसके करीब दो साल बाद नगरपालिका चुनाव कराए जाते हैं।
भारत में एक साथ चुनाव कराना कोई नया विचार नहीं है। वर्ष 1951-52 में पहले आम चुनाव में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराए गए थे; अगले तीन चुनाव इसी तरह हुए। फिर जब कुछ राज्य विधानसभाओं को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग कर दिया गया, तो पूरा समन्वित चक्र टूट गया। समय बीतने के साथ लोकसभा भी कार्यकाल पूरी करने से पहले भंग होने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि जल्द ही केंद्र और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने खत्म हो गए। अब सभी दलों के नेता लगातार चुनाव अभियान की हालत में रहने को मजबूर हैं, और वे एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच दौड़ लगाते रहते हैं, जबकि केंद्र और राज्य की प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल तिमाही आधार पर जहां-तहां चुनाव कराने में किया जाता है। बार-बार इस तरह की ड्यूटी में लगाने से शिक्षकों के बर्बाद होने वाले कार्य-घंटों की गिनती का जरा अंदाजा लगाइए। इसी तरह सीआरपीएफ और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों को नियमित रूप से चुनाव ड्यूटी पर लगाए जाने से आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर पड़ने वाले असर
पर विचार करें; इस तरह की तैनाती उनकी ट्रेनिंग और कानून-व्यवस्था की बहाली को प्रभावित कर सकती है।
जहां तक मुमकिन हो, एक साथ चुनाव कराना (अनुच्छेद 356 के जरूरी इस्तेमाल और उप-चुनावों को छोड़कर) बड़ी मात्रा में खर्च कम करने में मददगार होगा, साथ ही, आदर्श आचार संहिता लागू होने की अवधि को कम करेगा। इसका प्रभावी असर पड़ेगा, क्योंकि इस दौरान विकास कार्य थम जाते हैं और सरकारी काम-काज बाधित होता है; खास तौर से जब चुनाव कई चरणों में होते हैं। यह भी उम्मीद है कि तय समय पर एक साथ चुनाव होने से नीतिगत अनिर्णय और सरकार की व्यस्तता कम करने के साथ-साथ नीतिगत मामलों पर राजनीतिक रूप से ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी।
बेशक, इसके लिए बुनियादी ढांचा बनाने की चुनौतियां होंगी-ईवीएम का पहले से बड़ा स्टॉक तैयार करना होगा, साथ ही, वीवीपैट पेपर और चुनावी स्याही जुटानी होगी। लेकिन हम दूसरे देशों में अपनाए गए तरीकों पर भी विचार कर सकते हैं, जैसे कि पोस्टल मतपत्र, एक चुनाव में कई पदों के लिए एक ही फॉर्म। इसके अलावा यह सुनिश्चित करने के लिए सांविधानिक संशोधनों की जरूरत पड़ सकती है कि भविष्य में ऐसी एकरूपता में रुकावट न आए। अविश्वास प्रस्ताव द्वारा सरकार को अस्थिर करने से रोकने को संविधान संशोधन किया जा सकता है और अविश्वास प्रस्ताव पेश किए जाने के साथ सरकार बनाने के लिए विश्वास प्रस्ताव अनिवार्य किया जाना भी इसका समाधान हो सकता है। ऐसे कुछ सुझाव केंद्रीय विधि आयोग द्वारा चुनावी कानूनों में सुधार पर पेश 170वीं रिपोर्ट में दिए गए हैं।
हमें चुनावों की सरकारी फाइनेंसिंग और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग जैसे सुधारों पर भी विचार करना चाहिए, और यह सब करने में बेशक जनता की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। दलगत खेमेबंदी से परे कई राजनीतिक दलों ने वास्तव में ऐसे सुझावों का स्वागत किया है। पंचायतों, नगर निकायों और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करा हम एक शुरुआत तो कर ही सकते हैं। हमारे पूर्व औपनिवेशिक शासक ब्रिटेन द्वारा पेश उदाहरण पर विचार करें। उसने 2011 में ब्रिटिश संसद के कार्यकाल को ज्यादा स्थिरता और निश्चितता प्रदान करने पर जोर देते हुए फिक्स्ड-टर्म पार्लियामेंट कानून पारित किया। यह कानून सुनिश्चित करता है कि हर पांच साल में मई के पहले बृहस्पतिवार को संसद का चुनाव होगा, साथ ही संसद पर अपना कार्यकाल पांच साल से आगे बढ़ाने पर पाबंदी लगाई गई है।
समय पूर्व चुनाव की मंजूरी सिर्फ उसी हालत में मिलेगी, जब सदन के दो तिहाई सदस्य इसके लिए सहमत होते हैं या सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जाता है। हम भी ऐसे किसी भी कदम के साथ कम से कम शुरुआत तो कर सकतेहैं। बेशक, बहुत से ऐसे लोग हैं, जो देश की अपनी चुनावी विविधता खो देने को लेकर चिंतित हैं-लेकिन शायद उन्हें यह फैसला परिपक्व भारतीय मतदाताओं पर छोड़ देना चाहिए।
सौजन्य - अमर उजाला।
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