कहीं लोगों का भरोसा डिग न जाए (हिन्दुस्तान)

 नीरजा चौधरी, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक  

देश में कोरोना टीके को लेकर चल रही राजनीति प्रत्याशित थी। इसकी शुरुआत 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से ही हो गई थी, जब भारतीय जनता पार्टी ने अपने संकल्प पत्र में मतदाताओं को मुफ्त में कोरोना टीका देने की बात कही। इस वादे का उसे कितना चुनावी लाभ मिला, यह ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है, लेकिन सत्ता में उसकी वापसी कोरोना वैक्सीन पर संभावित सियासी टकराव का संकेत दे रही थी। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव द्वारा इसे भारतीय जनता पार्टी की  वैक्सीन बताना, इसी की कड़ी है। हालांकि, बाद में उन्होंने सफाई भी दी, लेकिन तब तक विरोधी पार्टियां उन पर हमलावर हो चुकी थीं। साफ है, मतदाताओं को प्रलोभन देने के लिए वैक्सीन की राजनीति करना जितना गलत था, उसे खास पार्टी का टीका बताना उतना ही निंदनीय। मगर इसमें तीसरा पक्ष भी है। कुछ विपक्षी नेता स्वदेशी वैक्सीन की मंजूरी पर सवाल उठा रहे हैं। उनकी चिंता है कि तीसरे फेज का ट्रायल पूरा हुए बिना टीके का इस्तेमाल जोखिम भरा हो सकता है। इसे हम राजनीति नहीं कह सकते। चिकित्सक व महामारी विज्ञानी भी इस बाबत चिंता जता रहे हैं। लोगों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिए विपक्ष का आवाज बुलंद करना वाजिब है। सरकार की नीतियां अगर सही से काम नहीं कर रही हों, तो उस पर सवाल उठेंगे ही। संविधान ने तमाम दलों को ये अधिकार दे रखे हैं। पर विपक्ष का अति-उत्साहित होकर अपना यह दायित्व निभाना जन-विरोधी भी हो सकता है। उसे फूंक-फूंककर अपना कदम उठाना चाहिए, क्योंकि यदि लोगों के मन में एक बार शंका घर कर गई, तो फिर टीकाकरण अभियान पर  इसका नकारात्मक असर पड़ सकता है, और इसका नुकसान अंतत: आम जनता को ही होगा। विरोधियों को बेशक प्रश्न पूछने चाहिए, लेकिन किसी तरह के अविश्वास को खाद-पानी देने से उन्हें बचना चाहिए। यह बहुत बारीक रेखा है, जिसके लिए विपक्ष को सतर्क रहना होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि सरकार की कोई जवाबदेही नहीं है। लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए उसे कहीं ज्यादा गंभीरता दिखानी होगी। सावधानी और सुरक्षा लाजिमी है, लेकिन सबसे जरूरी पारदर्शिता है। इसलिए सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि सुरक्षित ट्रायल के बिना टीके के इस्तेमाल की अनुमति क्यों दी गई है? ऐसी कौन सी मजबूरी है कि उसे यह जोखिम भरा कदम उठाना पड़ा? कहा जा रहा है कि कोरोना वायरस के लगातार म्यूटेट (रूप बदलने) करने और नए स्ट्रेन के बढ़ते संक्रमण की वजह से सरकार ने आनन-फानन में टीकों को मंजूर किया। क्या यही एकमात्र वजह है? हालांकि, अभी अपने यहां नए स्ट्रेन से संक्रमित मरीजों की संख्या 50 के आस-पास है, और इनके आइसोलेशन व ट्रेसिंग से संक्रमण थामा जा सकता है। या, सरकार यह साबित करना चाहती है कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ परवान चढ़ चुका है और स्वदेशी वैक्सीन से टीकाकरण की शुरुआत करने में देश सक्षम है? ऐसे सवालों के ठोस जवाब सामने आने चाहिए। सरकार द्वारा अपनी मंशा और मकसद को जाहिर करना किस कदर तंत्र में लोगों का भरोसा बढ़ाता है, न्यूयॉर्क इसका एक बड़ा उदाहरण है। अमेरिका के सर्वाधिक आबादी वाले इस शहर के गवर्नर एंड्रयू क्योमो की आज इसलिए तारीफ हो रही है, क्योंकि उन्होंने कोरोना काल में हर अच्छी-बुरी खबरें लोगों से साझा कीं। उनका मंत्र यही था कि जनता को सब कुछ पता होना चाहिए; बिना उसकी मदद से कोरोना के खिलाफ जंग नहीं जीती जा सकती। यह एक बेहतरीन रवैया था। इस तरह के संवेदनशील मामलों में पारदर्शिता बहुत जरूरी होती है। जनता अगर यह समझती है कि सरकार उससे कुछ नहीं छिपा रही, तो तंत्र में उसकी भागीदारी स्वाभाविक तौर पर बढ़ जाती है। कोरोना संक्रमण-काल की नाजुकता से हर कोई वाकिफ है। यह सभी जानते हैं कि सरकार एक बड़ी चुनौती से मुकाबिल है। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में सबको टीका लगाना इतना आसान भी नहीं। हालांकि, अपने यहां टीकाकरण का बुनियादी ढांचा मौजूद है, जो एक राहत की बात है। हमने बडे़-बडे़ टीकाकरण अभियान सफलतापूर्वक चलाए हैं। वैक्सीन के उत्पादन का हमारा अनुभव और क्षमता भी हमें कई देशों से बेहतर बनाता है। ऐसी स्थिति में सत्ता पक्ष और विपक्ष का आपस में उलझना हमें कई मोर्चों पर पीछे धकेल सकता है। हर लोकतांत्रिक देश में विभिन्न मुद्दों पर राजनीतिक दल आपस में गुत्थम-गुत्था होते रहते हैं। अमेरिका में तो जबर्दस्त खींचतान है। यूरोप में भी कुछ कम थी, लेकिन जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन खुद कोरोना-संक्रमित हुए, तब सरकार का रवैया बदल गया। अब वहां फिर से लॉकडाउन लगाया गया है और जनता भी सरकार का हरसंभव साथ दे रही है। लोग सरकार की मंशा भांप लेते हैं, इसलिए हर मुद्दों पर वे पारदर्शिता की अपेक्षा रखते हैं। अगर विपक्ष द्वारा कुछ वाजिब सवाल पूछे जा रहे हैं, तो सरकार को उतनी ही गंभीरता से जवाब देना चाहिए। इस संक्रमण-काल में सरकार के लिए कई नए मोर्चे खुले हैं और कई मोर्चों पर उसकी जंग लगातार जारी है। ऐसे में, चूक होने की आशंका भी स्वाभाविक है। और अगर कोई उस गलती की तरफ उसका ध्यान खींचता है, तो उसे उस पर गौर करना चाहिए। उसका यह व्यवहार कोरोना के खिलाफ जंग को मजबूत बनाएगा। प्रधानमंत्री चाहें, तो एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर अपने इस रुख का परिचय दे सकते हैं। वह बंद कमरे में सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं से कोरोना संक्रमण के विस्तार, मंजूर किए गए दोनों टीकों के असर, टीकाकरण अभियान की चुनौती, सरकार की रणनीति जैसी तमाम बातें साझा कर सकते हैं। यकीनन इसका व्यापक असर होगा। मगर सवाल यह है कि कुछ मामलों में संवादहीनता को बतौर रणनीति इस्तेमाल करने वाली सरकार इस दिशा में आगे बढ़ेगी? इसका जवाब तो सत्ता पक्ष ही दे सकता है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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