योगेंद्र नारायण, पूर्व महासचिव, राज्यसभा
सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी मिलने के बाद सेंट्रल विस्टा परियोजना का रास्ता साफ हो गया है। इस परियोजना के तहत राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट होते हुए यमुना किनारे तक की ज्यादातर सरकारी इमारतों का पुनरोद्धार या पुनर्निर्माण किया जाएगा। राजपथ को भी नया रूप दिया जाएगा। इसी में प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के आवास सहित कई नए कार्यालय भवन भी बनाए जाएंगे, ताकि मंत्रालयों और विभागों के कामकाज में सहूलियत हो। बेशक संसद भवन सहित सभी मौजूदा इमारतें कमोबेश मजबूत हैं, मगर कई दिक्कतों की वजह से नए निर्माण-कार्य की जरूरत आन पड़ी है।
मौजूदा संसद भवन की योजना, डिजाइन और निर्माण का काम लुटियन्स और हर्बर्ट बेकर की देखरेख में किया गया था, और 18 जनवरी, 1927 को तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड इरविन ने इसका उद्घाटन किया था। निचले सदन को पहले सेंट्रल लेजिस्लेटिव कौंसिल कहा जाता था, जिसकी इमारत दिल्ली के मॉडल टाउन में थी। इसमें 150 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था थी। बाद में उसका पुनरोद्धार किया गया और नई इमारत बनाई गई। इसमें 396 की सदस्यों के बैठने की व्यवस्था गई, फिर 461, 499, 522 व 530 सांसद बैठने लगे। आज 550 सांसदों के बैठने की यहां व्यवस्था है। माननीयों की संख्या बढ़ने की वजह से ही लोकसभा में कई सीटें पीलर के पीछे हैं।
संसद भवन में लोकसभा, राज्यसभा के साथ-साथ सेंट्रल हॉल भी है, जहां संयुक्त सत्र बुलाए जाते हैं। राष्ट्रपति जब बजट सत्र की शुरुआत करते हैं, तब उनका अभिभाषण इसी कक्ष में होता है। ऐसे किसी आयोजन में यहां पर सभी सांसदों (545 लोकसभा और 250 राज्यसभा) के लिए बैठने की व्यवस्था करना एक कठिन काम होता है। और, जब कोई बड़े विदेशी नेता यहां आते हैं, तब तमाम सांसदों के साथ कई अन्य मेहमानों को भी न्योता दिया जाता है। अंदाज लगाया जा सकता है कि यहां के प्रशासनिक तंत्र को कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता होगा। यहां यह महसूस किया जाता रहा है कि सदस्यों के अनुपात में जगह काफी कम है। सत्र के दौरान मंत्रियों का अपने कार्यालयों में बैठना अनिवार्य होता है। मगर मंत्रियों की संख्या बढ़ने के कारण उनके बैठने के लिए अंदरखाने में कई तरह के कतर-ब्योंत करने पड़े हैं। चूंकि यहां कमरे सीमित हैं, इसलिए उन्हें लगातार छोटा किया जाता रहा है। अब तो आलम यह है कि संसदीय क्षेत्रों से आने वाले लोगों को भी सांसद शायद ही कहीं बिठा पाते हैं। गैलरी या केंद्रीय कक्ष में ही उनसे मेल-मुलाकात की जाती है।
मौजूदा संसद भवन का नक्शा 1921-27 का है। वह संरचना आज के हिसाब से काफी पुरानी पड़ चुकी है। जब मैं लोकसभा महासचिव के रूप में अपनी सेवा दे रहा था, तब मुझे शिकायत मिली कि कमरों में काफी अधिक बदबू है, जिसके कारण वहां बैठना संभव नहीं। जांच-पड़ताल के बाद पता चला कि यहां की रसोई से जो कचरा निकलता है, वह नालियों में फंस जाता है। चूंकि जब इस इमारत को तैयार किया गया था, तब रसोई की संकल्पना नहीं की गई थी। इसकी शुरुआत बाद में हुई है, इसलिए रसोई से निकलने वाले कचरे को नालियों में ही बहाया जाता रहा है। पुरानी योजना की वजह से हम लोकसभा में पंखे उल्टा लटकते हुए देखते हैं और फायर अलार्म की व्यवस्था भी काफी बाद में की गई है। सरकार अपने कामकाज में सहूलियत के लिए संसदीय समिति बनाती रही है। मौजूदा संसद भवन में इसकी बैठकों के लिए तीन कमरे आरक्षित हैं। चूंकि समितियां अब ज्यादा बनाई जाती हैं, इसलिए सदस्यों को बैठकों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें या तो कहीं और बैठकें करनी पड़ती हैं या फिर कक्ष के खाली होने का लंबा इंतजार करना पड़ता है। सुरक्षा के लिहाज से भी नए भवन की जरूरत है। सुरक्षा जांच करने वाले अधिकारियों ने बताया था कि रासायनिक युद्ध होने पर यह भवन सांसदों के लिए सुरक्षित नहीं रहेगा। भविष्य के युद्ध का हमें कोई इल्म नहीं है, इसलिए ऐसी व्यवस्था होनी ही चाहिए कि ऐसे किसी हमले में सांसदों को बचाया जा सके। सवाल यह है कि नया भवन कितना मुफीद होगा? इसमें तमाम सांसदों के लिए अलग-अलग कमरे होंगे, जैसा कि अमेरिका में होता है। मंत्रियों के लिए भी कमरे बनाए जाएंगे। बैठक के लिए हॉल भी अधिक बनेंगे। इतना ही नहीं, नए भवन में तमाम राज्यों की कलाकृतियों को जगह दी जाएगी। पुराने भवनों के रख-रखाव पर हमें हर साल तकरीबन 800 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। अत्याधुनिक तकनीक से बनने वाली नई इमारतें इस खर्च को काफी कम कर देंगी।
इस परियोजना के तहत प्रधानमंत्री आवास भी बनाया जाएगा। अभी यह जिमखाना क्लब से सटा हुआ है, जहां की सुरक्षा एक बड़ी चुनौती है। फिर, वह मुख्य सड़क पर भी है। प्रधानमंत्री जब बैठकें बुलाते हैं, तो सभी को मंत्रालय छोड़कर उनके घर पर जाना पड़ता है। इसमें काफी वक्त जाया होता है। नए भवन में सभी 83 मंत्रालय एक साथ रहेंगे। इससे अंतर-मंत्रालयी बैठकों में शामिल होना आसान होगा।
इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि अभी की व्यवस्था में शासन पर कोई बहुत ज्यादा असर पड़ता है। मगर हां, सेंट्रल विस्टा से कामकाज में सहूलियत जरूर हो जाएगी, जिससे कर्मचारियों व सांसदों की कार्यक्षमता बढ़ जाएगी। मसलन, अभी हमें वित्त मंत्रालय जाने के लिए कई जगह पास बनवाने पड़ते हैं। इसमें दो-तीन घंटे का समय लग जाता है। और इस दरम्यान यदि दूसरे मंत्रालय का कोई जरूरी काम आन पड़ा, तो काफी दौड़-भाग करनी पड़ जाती है। रक्षा मंत्रालय का ही उदाहण लें। अभी वायु भवन, सेना भवन जैसी कई इमारतें हैं। यहां से कई फाइलें लाई और ले जाई जाती हैं। इसमें संवेदनशील जानकारियों के लीक हो जाने का खतरा बना रहता है। नई परियोजना में तमाम ब्लॉक अंदर ही अंदर आपस में जुड़े रहेंगे। सुरक्षा के लिहाज से भी न्यूक्लियर सेंटर नीचे बनाया जा सकता है। रासायनिक युद्ध में बचाव तो होगा ही। साफ है, सेंट्रल विस्टा परियोजना हर मामले में हमारे लिए लाभदायक साबित होने वाली है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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