महीपाल
उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में पंचायतों के चुनाव प्रस्तावित हैं। अनेक पंचायतों के संगठन पंचायतों की वकालत इस तरह कर रहे हैं कि पंचायतों को अधिक अधिकार एवं शक्तियां प्रदान की जाएं, ताकि वे ग्रामीण विकास प्रभावी ढंग से कर सकें। स्वयं सेवी संस्थाएं भी लोगों को जागृत कर रही हैं कि आपका वोट कीमती है, उसे ईमानदार पंचायत प्रतिनिधि को दें।
गांव में दारू के दौर भी चल रहे हैं। ये दौर वे चला रहे हैं जो कि सरपंच या प्रधान पद का चुनाव लड़ना चाहते हैं। आइए, यह तो देखें कि पंचायतें जिनमें विभिन्न पदों पर आने के लिए लोग लालायित हैं, वे वास्तव में कितने सशक्त हैं। पंचायतों को कितना सशक्त किया गया है, इसका आकलन करने के लिए 2016 में एक अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन में पंचायतों को कितने कार्य वित्त एवं कर्मी हस्तांतरित किए हैं, उसके आधार पर हस्तांतरित सूचकांक तैयार किया गया था।
यह अध्ययन बताता है कि किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में वांछित 100 प्रतिशत शक्तियों का हस्तांतरण, जो राज्य से पंचायतों को होना था, वह नहीं हुआ है। जबकि 73वें संविधान संशोधन को पारित हुए तीन दशक होने जा रहे हैं। केरल ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां पर 75 प्रतिशत शक्तियों का हस्तांतरण हुआ है। मात्र सात राज्य अर्थात केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, सिक्किम व पश्चिम बंगाल हैं, जहां पर 50 प्रतिशत से अधिक शक्तियों का हस्तांतरण पंचायतों में हुआ है।
इसमें यह तथ्य भी सामने आता है कि दक्षिण के राज्यों में पंचायतों को सशक्त करने की प्राथमिकता है, जबकि ऐसा उत्साह उत्तर के राज्यों में प्रतीत नहीं होता है। उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा जहां पर चुनाव होने वाले हैं, विकेंद्रीकरण सूचकांक क्रमशः 36 प्रतिशत एवं 41 प्रतिशत है। अर्थात राज्य स्तर से जो वांछित विकेंद्रीकरण होना था, उसका मात्र 36 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में हुआ है व 41 प्रतिशत हरियाणा में हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पंचायतें स्वायत्त शासन की संस्थाएं अर्थात ग्राम सरकार या जिला सरकार नहीं बन सकी। अगर बनीं, तो सिर्फ राज्य सरकार एवं उसकी नौकरशाही की मात्र अनुबंध।
समस्या पंचायतों को सशक्त करने की उतनी नहीं है, जितनी शासित करने की है। पंचायतों की वास्तविक समस्या शासन की है। शासन का अर्थ है, नियम कायदों को अमल में लाना। अर्थात पंचायती राज अधिनियम एवं अधिनियमों के अनुसार पंचायतों की कार्यवाही चले, तो पंचायतें स्वयं ही सशक्त होंगी। सभी सदस्यों का उन पंचायतों को सहयोग होगा और संपूर्ण ग्रामीण समाज उनके साथ होगा। आइए, शासन को कुछ उदाहरण से समझते हैं।
ग्राम पंचायत स्तर पर किसी राज्य में एक महीने में एक बार व कहीं दो बार इनकी बैठक होती है। बैठक के लिए लिखित नोटिस एवं एजेंडा के साथ सभी पंचों या वार्ड सदस्यों को जाना अनिवार्य है। यह भी निश्चित है कि बैठक होने के कितने दिन पहले नोटिस जारी होना है। क्या कहीं ऐसा होता है? ऐसा प्रतीत तो नहीं होता। इसके अतिरिक्त पंचायती राज के अंतर्गत स्वास्थ्य समिति का गठन होता है। उनका भी नोटिस एवं एजेंडा ग्राम पंचायत की बैठकों जैसे ही जारी होता है। क्या ऐसा वास्तव में होता है, संभवतः नहीं।
इस संबंध में एक उदाहरण देना चाहूंगा। आरटीआई सामाजिक कार्यकर्ता हरीश हुण- ग्राम पंचायत अनूपपुर, ब्लॉक डिबाई जिला हापुड़, उत्तर प्रदेश ने 16 सितंबर 2020 को वित्तीय वर्ष 2016-17 से 20-21 के अंतर्गत निम्न सूचनाएं मांगी थी- प्रथम, ग्रामसभा की बैठकों के छायाचित्र/ वीडियोग्राफी, उपस्थित लोगों/सदस्यों के हस्ताक्षर, कार्यवाही एजेंडा रजिस्टर तथा पारित प्रस्तावों की छायाप्रति; दूसरे, ग्राम पंचायत की बैठकों की कार्यवाही एजेंडा रजिस्टर तथा पारित प्रस्तावों की छायाप्रति; तीसरे, समस्त समितियों की बैठकों के समय, तिथि, उपस्थिति तथा कार्यवाहियों का विवरण। सूचनाओं के लिए आवेदन दिए चार महीने बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक प्रार्थी को सूचना नहीं मिली है। आवेदक ने अपीलें भी की हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं है। कारण, सूचनाएं उपलब्ध हों तो दें। यह कोई एक ग्राम पंचायत की सच्चाई ही नहीं है, यह समस्या विस्तृत है।
-लेखक पूर्व भारतीय आर्थिक सेवा के अधिकारी रहे हैं
सौजन्य - अमर उजाला।
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