मृत्युदंड से समाज नहीं बदलेगा, सोच को बदलना ज्यादा जरूरी (अमर उजाला)

तस्लीमा नसरीन  

बांग्लादेश में भी बलात्कार के लिए मृत्युदंड घोषित किया गया है। क्या उम्मीद करूं कि सख्त सजा को देखते हुए वहां अब बलात्कार की घटनाएं नहीं घटेंगी? भारत में पहले ही बलात्कार पर मौत की सजा है। इसके बावजूद भारत में बलात्कार कम नहीं हुए हैं। कारावास, उम्रकैद और मृत्युदंड भी लोगों को बलात्कार से रोकने में सक्षम क्यों नहीं हैं? यह देखा गया है कि जहां गंभीर अपराधों के लिए मृत्युदंड दिया जाता है, वहां गंभीर अपराध के आंकड़े कम नहीं हुए हैं।


मनुष्य जोखिम उठाकर ही अपराध करता है। क्या ऐसे पुरुषों को साहसी कहा जाएगा? वे साहसी पुरुष कतई नहीं हैं। हमने देखा है, विभिन्न देशों में समय-समय पर कुछ क्रांतिकारी लोगों की भलाई के लिए, समाज में समता लाने के लिए 'अपराध' करते हैं, जान का जोखिम उठाकर भी अपना काम जारी रखते हैं। तानाशाही या कुशासन का अंत होने पर वैसे 'अपराधों' को क्रांति कहकर सम्मानित किया जाता है। लेकिन मृत्युदंड का जोखिम उठाकर बलात्कार करने, यौन अपराध करने या अपने स्वार्थ में किसी की जान लेने को क्रांति नहीं कह सकते, यह तो जघन्यतम अपराध है।


ऐसे अपराध संगठित रूप क्यों ले लेते हैं? इसकी वजह ढूंढकर अगर उसे निर्मूल करने की दिशा में कदम उठाए जाएं, तभी बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का खात्मा किया जा सकता है। बलात्कार, यौन अत्याचार और महिलाओं को परेशान करने के मूल कारण को निर्मूल किए बिना बलात्कार को रोका नहीं जा सकता। बांग्लादेश के समाज में दो तरह के बदलाव आए हैं। एक बदलाव यह है कि वहां धर्मांधता बढ़ी है, जो बहुत भयावह है। दूसरा बदलाव यह है कि अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध स्त्री-पुरुष एक साथ सड़कों पर उतरते हैं, जो अच्छी बात है।


मुझे याद है, बीती सदी के आठवें दशक में जब मैंने बलात्कार के विरुद्ध वहां की पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे थे, तब मेरी बहुत आलोचना हुई थी और कहा गया था कि ऐसी बातें समाज के सामने न ही आएं, तो अच्छा। वर्ष 1991 में जब मैंने बलात्कार के विरुद्ध निमंत्रण नाम की एक उपन्यासिका लिखी, तो मुझ पर ताबड़तोड़ हमले हुए और आरोप लगाया गया कि मैं अश्लीलता को बढ़ावा दे रही हूं। हालांकि कुछ महिलाओं ने सच्चाई सामने लाने के लिए तब मेरा आभार जताया था। आज मेरी उस किताब को कोई अश्लीलता को बढ़ावा देने वाली नहीं कहेगा, क्योंकि बलात्कार आज हमारे समाज की कटु सच्चाई है।


पहले लोगों की सोच थी कि अश्लील, गलत या कुरूप तथ्यों का दबा-छिपा रहना ही उचित है। इस कारण बलात्कार की शिकार लड़कियां अपना मुंह बंद रखती थीं। इसके अलावा प्रबुद्ध लोगों का मानना था कि बलात्कार की खबरों का अखबारों में छपना तो ठीक है, लेकिन बलात्कार साहित्य का विषय नहीं हो सकता। तीस-चालीस साल पहले बलात्कार के विरोध में सड़कों पर उतरना अस्वाभाविक था। लेकिन आज बलात्कार की निरंतर घटनाओं को देखते हुए लोगों का सड़कों पर उतरना बिल्कुल स्वाभाविक है। और यह निश्चय ही एक सकारात्मक बदलाव है।


अगर यह मान भी लिया जाए कि मृत्युदंड के भय से बलात्कार कम हो जाएंगे, लेकिन पुरुष में बलात्कार की इच्छा तो रह ही जाएगी, जो किसी दूसरे रूप में सामने आएगी। हम जानते हैं कि पुरुषों की नारी-विरोधी मानसिकता ही बलात्कार के लिए जिम्मेदार है। मृत्युदंड से पुरुषों की उस नारी-विरोधी सोच में तो बदलाव आने से रहा। जबकि उस सोच को बदलना ज्यादा जरूरी है।


इस सोच को बदलने के लिए जो उद्यम जरूरी है, क्या राष्ट्र उसकी जिम्मेदारी लेगा? समाज के सभी स्तरों में इस सोच को बदलने की जिम्मेदारी सरकार के साथ-साथ गैरसरकारी संगठनों को लेनी पड़ेगी। स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम में नारी विरोध, नारी अत्याचार और खतरनाक पुरुषवादी सोच के बारे में छात्रों को सजग करना होगा। दरअसल पुरुष तंत्र में जो यह अशिक्षा घर कर गई है कि- पुरुष स्वामी और महान है, जबकि स्त्री दासी और भोग की वस्तु है-इस अशिक्षा को खत्म किए बिना नारी-विरोधी मानसिकता को बदलना संभव नहीं है। घर में दी जाने वाली शिक्षा भी बहुत महत्वपूर्ण है।


शिशु अपने माता-पिता को जिस रूप में देखता है, वह भी जीवन के प्रति उसका नजरिया बनाता है। अगर बच्चा घर में अपने पिता को मालिक और माता को दासी की भूमिकाओं में देखता है, तो उसके मानस में स्त्री-पुरुष की यह छवि स्थायी हो जाती है। अगर पिता उसकी मां पर अत्याचार करता है, तो शिशु उसे ही सत्य मान लेता है। 21वीं सदी में भी क्या स्त्री को समान अधिकार नहीं मिलना चाहिए? अगर उसे समान अधिकार मिलता है, तो आने वाली पीढ़ी स्त्री को दासी या संतान उत्पन्न करने की मशीन नहीं समझेगी। अगर इस सदी में नारी को आर्थिक स्वतंत्रता मिलती है, तो आगामी पीढ़ी स्त्री को परनिर्भर या गुलाम नहीं मानेगी।


मैं पहले भी कह चुकी हूं, अब भी कहती हूं, मृत्युदंड सभी अपराधों का समाधान नहीं है। बलात्कार और यौन हिंसा के असंख्य कारण हैं। उन वजहों को खत्म करना होगा, तभी महिलाओं पर अत्याचार खत्म होगा। और यह भी कोई समाधान नहीं है कि लड़कियों के कपड़ों पर टोकाटोकी करें, उन्हें अकेले या रात में बाहर जाने पर प्रतिबंध लगाएं, क्लब या होटल में न जाने दें। बल्कि जो पुरुष अपराध करता है, अंकुश तो उस पर लगाना चाहिए। महिलाएं जंजीरें तोड़कर जितनी बाहर निकलेंगी, बाहर की दुनिया उतनी ही उनकी अपनी होगी। घर के अंदर बंद रहकर बाहर की दुनिया नहीं बदली जा सकती।


मुझे तो लगता है कि जो लोग बलात्कारियों की फांसी की मांग करते हैं, वे कहीं न कहीं बलात्कार के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार मानते हैं। बांग्लादेश के अनेक प्रबुद्ध जनों को मैं जानती हूं, इसलिए कह रही हूं कि उनमें से अनेक लोग बलात्कार को अपराध नहीं मानते। भारत में भी ऐसे बड़े लोग होंगे, जो बलात्कार को महिलाओं की गलती और पुरुषों की एक छोटी-सी चूक मानते होंगे। जब विशिष्ट लोगों की सोच ऐसी है, तो आम जनता से कोई क्या उम्मीद करे? मैं बलात्कार क्यों, किसी भी अपराध के लिए मृत्युदंड की समर्थक नहीं हूं। दुनिया के 140 देशों ने मृत्युदंड पर रोक लगा दी है। उन्हीं देशों में अपराध सबसे कम हैं, जहां मृत्युदंड नहीं है। इसलिए मेरा विश्वास है कि एक दिन बाकी बचे देश भी मृत्युदंड खत्म करेंगे।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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