हमें जाना है तेजस से बहुत आगे (हिन्दुस्तान)

सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन 


आज सेना दिवस है और रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए सरकार ने एक महत्वपूर्ण पहल की है। इसकी सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) ने उन्नत श्रेणी के 83 स्वदेशी तेजस मार्क- 1ए जेट विमानों की खरीद का जो फैसला किया है, उसका देश की अर्थव्यवस्था और रक्षा पर दूरगामी असर पडे़गा। डिजाइन और विनिर्माण क्षेत्रों में एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम श्रेणी के उद्योग) सहित करीब 500 भारतीय कंपनियां इस खरीद में हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के साथ मिलकर काम करेंगी। जाहिर है, इससे हमारी आर्थिकी भी आगे बढ़ेगी। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा विकसित आकाश मिसाइल, अर्जुन टैंक, ध्रुव हैलिकॉप्टर, पिनाका रॉकेट लॉन्चर, नाग टैंक रोधी मिसाइल जैसी कई उपलब्धियों का भी हमें खासा फायदा मिला है। आज यदि कोई राष्ट्र दुनिया में अपना सिक्का चलाना चाहता है, तो उसे आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा। मगर आत्मनिर्भरता का अब वह अर्थ नहीं रहा, जिसे पुरानी पीढ़ी के नेता पालते-पोसते रहे। 1960-70 के दशक में जिस तरह की आत्मनिर्भरता की हम वकालत किया करते थे, उसमें हमने खुद को एक लिहाज से दुनिया से काट लिया था। इससे हमारा विकास थम सा गया था और हमारी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई थी। मगर आज आत्मनिर्भरता का मतलब है, अपना दबदबा इस कदर बनाना कि दूसरे देश चाहकर भी हमसे रिश्ता तोड़ न सकें। मसलन, चीन रक्षा क्षेत्र में जहाज से लेकर पनडुब्बी तक सब कुछ बनाता है। वह कृत्रिम बुद्धिमता, यानी एआई का उपयोग इस तरह से करता है कि साइबर व सैटेलाइट युद्ध लड़ने में भी सक्षम है। किसी पर उसकी निर्भरता नहीं है। नतीजतन, कोई देश उससे संबंध नहीं तोड़ सकता।

अपने यहां नेहरू काल से ही सुरक्षा से जुड़े मसले सरकारी संस्थानों के अधीन रहे। हमारा जोर आयात पर अधिक रहा। निजी क्षेत्र को रक्षा उत्पाद विकसित करने की अनुमति नहीं दी गई। मगर हाल के वर्षों में उसका महत्व समझा गया है, जिससे तरक्की के नए दरवाजे खुले। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं है कि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने काम नहीं किया। मगर 1962 में हमें यह सबक मिला कि यदि हम किसी देश पर बहुत ज्यादा निर्भर रहेंगे, तो वह हमें मुश्किल में भी डाल सकता है। चीन के साथ 62 की जंग में हमने पहले उस रूस से मदद मांगी थी, जिससे हम हथियार खरीदते रहे थे। मगर तब उसने टका सा जवाब दे दिया था, लिहाजा हमें अमेरिका का मुंह ताकना पड़ा। इस संदर्भ में देखें, तो 48,000 करोड़ रुपये की स्वदेशी विमान की खरीद का यह फैसला काफी महत्व रखता है। मगर कुछ सवाल हैं, जिन पर हमें सोचने की जरूरत है, खासकर रक्षा चुनौतियों के मोर्चे पर। तेजस एक अच्छा लड़ाकू विमान है, पर यह दुनिया का सबसे बेहतरीन जहाज नहीं है। यह अच्छी बात है कि इसमें हम लगातार सुधार कर सकते हैं। मगर इसको उन्नत बनाने के लिए पूंजी की दरकार होगी और वक्त भी खासा लगेगा। ये दोनों काफी मायने रखते हैं। जैसे, सुखोई विमान हम अपने देश में भी बनाते हैं, पर इसे रूस से खरीदना आसान और सस्ता सौदा है। असल में, कुछ विमानों का उत्पादन आसान है, लेकिन बड़ी संख्या में उनका निर्माण मुश्किल भरा काम है। इसमें ऐसी दक्षता की दरकार होती है कि कम समय में अधिक उत्पादन संभव हो सके। उम्मीद है, पूर्व की खरीद के साथ 120 तेजस विमानों की खरीदारी से अपने यहां यह ढांचा तैयार हो सकेगा, जिसका फायदा उद्योग जगत को मिलेगा। और, अगर यह ‘प्रोडक्शन लाइन’ नहीं बन सकी, तो फिर तेजस हमारे लिए महंगा साबित हो सकता है। हालांकि, मारुति का अनुभव हमारी उम्मीद बढ़ाता है। उल्लेखनीय है कि मारुति की गाड़ियां पहले अपने यहां ‘असेंबल’ होती थीं। उसके कल-पुर्जे दूसरे देशों से आयात होते थे। फिर, धीरे-धीरे स्थानीय कंपनियां इस काम में आगे आईं, और आज ऑटो दुनिया में पाट्र्स निर्यात करने वाले देशों में भारत पहले स्थान पर है।

दूसरी चिंता की बात इसकी आपूर्ति में लगने वाला वक्त है। मार्च, 2020 में ही रक्षा खरीद परिषद ने तेजस विमानों की खरीद को मंजूरी दी थी, लेकिन इस पर कैबिनेट को सहमति जताने में करीब 10 महीनों का वक्त लग गया। कहा गया है कि जब इस करार पर अंतिम मुहर लगेगी, तब उसके तीन साल के बाद पहला जहाज मिलेगा। इसका अर्थ है कि आज समझौता यदि हो भी जाए, तो 2024 से पहले हमें इस खरीद का पहला तेजस नहीं मिल सकता। फिर, पूरी आपूर्ति पांच साल में होगी, जिसका अर्थ है कि हर साल कमोबेश 16 विमान बेड़े में शामिल होंगे। ऐसे में, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम ऐसी व्यवस्था करें कि हमारा उत्पादन समय के साथ बढ़ता चला जाए? खासतौर से चीन व पाकिस्तान से मिल रही चुनौतियों के मद्देनजर ऐसा किया जाना जरूरी है। सवाल यह भी है कि इसमें इस्तेमाल हो रही तकनीक चार-पांच साल के बाद कितनी प्रासंगिक रह पाएगी? खासतौर से सूचना-प्रौद्योगिकी में जिस तेजी से बदलाव होते हैं, उसको देखते हुए यह चिंता स्वाभाविक है। ड्रोन का ही उदाहरण लें। पांच साल के बाद किस उन्नत श्रेणी के ड्रोन रक्षा क्षेत्र में इस्तेमाल होंगे, इसकी कल्पना आज नहीं कर सकते। जाहिर है, शोध व अनुसंधान के कामों को इतना तवज्जो देना होगा कि वे भविष्य की तकनीकों पर आज ही शोध-कार्य करें। स्पष्ट है, ‘आत्मनिर्भर भारत’ की दिशा में स्वदेशी विमानों की खरीद एक प्रशंसनीय कदम जरूर है, लेकिन रक्षा चुनौतियों को देखते हुए हमें कई दूसरे प्रयास भी करने होंगे। हमें दुश्मन देशों के बराबर ताकत जुटाने पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि यह कोशिश करनी चाहिए कि उनकी ताकत को हम किस तरह से बेअसर कर सकते हैं। यानी, काट की रणनीति हमें अपनानी चाहिए, न कि हथियारों की दौड़ में मुब्तिला रहना चाहिए। हमें यह तय करना ही होगा कि हमारी लड़ाई किससे है और किस नई तकनीक से हम जीत हासिल कर सकते हैं? यह सवाल तब और प्रासंगिक हो जाता है, जब सामने चीन जैसा राष्ट्र हो, क्योंकि सैन्य साजो-सामान के मामले में फिलहाल हम उससे बीस साबित नहीं हो सकते।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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