नीलकंठ मिश्रा
भारत कोविड महामारी को पीछे छोडऩे की राह पर आगे बढ़ता दिख रहा है। व्यापक टीकाकरण अभियान शुरू होने के पहले ही संक्रमण के नए मामलों एवं मौतों की संख्या में गिरावट जारी है। हालांकि इसके आर्थिक असर का अंदाजा अभी लगाया ही जा रहा है। पिछले कुछ महीनों में आर्थिक गतिविधियों का पहिया सकारात्मक दिशा में बढ़ा है और बहुत लोग अचरज में हैं। वित्त वर्ष 2020-21 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि के बारे में पूर्वानुमान गत वर्ष मार्च-सितंबर में दर्ज सतत गिरावट के रुझान को पलटने लगा है और 10 फीसदी गिरावट के बजाय अब थोड़े सकारात्मक रूप में 8 फीसदी गिरावट की ही बात की जा रही है। वर्ष 2021-22 के वृद्धि पूर्वानुमान में भी सुधार देखा गया है।
सवाल है कि वर्ष 2021-22 में जीडीपी वृद्धि 2019-20 की तुलना में कैसी रहेगी? पिछले साल के शुरू में महामारी की वजह से लॉकडाउन लगने के पहले 2021-22 में आउटपुट 2019-20 की तुलना में 13 फीसदी अधिक रहने को लेकर लगभग आमराय थी। लेकिन हालात बदलने के साथ ही अनुमानों में गिरावट का दौर शुरू हो गया और सबसे कम पूर्वानुमान 1 फीसदी गिरावट का था। लेकिन पिछले महीने से यह धीरे-धीरे सकारात्मक दिशा में लौट आया है। अर्थशास्त्रियों के पूर्वानुमानों में संशोधन और आमराय वाले डेटाबेस में इन अनुमानों के नजर आने के बीच कुछ समयांतराल होता है। कुछ अर्थशास्त्रियों के पूर्वानुमानों को देखें तो यह संख्या पहले ही 1-2 फीसदी वृद्धि दायरे में होनी चाहिए।
हम इन अनुमानों को यथार्थपरक, आशावादी या निराशाजनक होने के बारे आकलन को लेकर गौर करते हैं तो हमें इस नजरिये से शुरू करना चाहिए कि महामारी से पहले भारत की वार्षिक वृद्धि दर 6.5 फीसदी के आसपास थी। यह आंशिक रूप से श्रम संख्या में वृद्धि और आंशिक तौर पर बढ़ती उत्पादकता का नतीजा था और बुनियादी ढांचे, शिक्षा एवं स्वास्थ्य देखभाल में सुधार का इसमें बड़ा हाथ रहा है। अगर मार्च एवं सितंबर के दौरान वृद्धि में आई गिरावट सिर्फ आर्थिक गतिविधियां ठप होने का नतीजा थी तो पाबंदियां हटने के साथ ही हालात तेजी से सामान्य हो जाने चाहिए थे। आखिर श्रम बल में बढ़त एवं उत्पादकता सुधार जैसे संभावित वृद्धि उत्प्रेरक अब भी सक्रिय थे। अगर मान लें कि 15 मार्च, 2020 से अगले छह महीनों में आर्थिक प्रगति पूरी तरह रुक गई थी और फिर एकदम फर्राटा भरने लगी तो फिर वह 2019-20 और 2021-22 के दौरान कोई लॉकडाउन न होने पर मुमकिन 13 फीसदी की वृद्धि में से एक चौथाई वृद्धि गंवा देगा। इसकी वजह यह है कि 24 महीनों में से छह महीनों तक आर्थिक क्रियाकलाप ठप रहे थे। इसका मतलब है कि वृद्धि दर 13 फीसदी से घटकर 10 फीसदी पर आ जाएगी।
अब इस वृद्धि आंकड़े पर नजर डालते हैं। सच यह है कि लॉकडाउन के दौरान भी न तो सभी आर्थिक गतिविधियां रुकी थीं और न ही हम अब पूरी तरह सामान्य स्थिति में आ चुके हैं। नकारात्मक पक्ष पर शिक्षा जैसे अर्थव्यवस्था के तमाम इलाके अब भी बंदिशों से घिरे हैं। इसकी वजह से वृद्धि 10 फीसदी कम हो सकती है। करीब आधे छात्रों के पास शिक्षा का कोई जरिया नहीं होने और कोविड से इतर बीमारियों के इलाज की स्थिति सामान्य नहीं हो पाने और रोजमर्रा के टीकाकरण कार्यक्रमों के सुस्त पडऩे के दीर्घकालिक आर्थिक दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
रोजगार की तलाश कर रहे लोग एवं नियोक्ताओं में नहीं कोई मेल: रोजगार बाजार में एक तरफ खाली पड़े पद हैं तो दूसरी तरफ बेरोजगारी का आलम है जिससे वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है। सकारात्मक रूप से देखें तो जीडीपी आंकड़े के आधार पर उत्पादकता को गति देने वाले निवेश में पहली छमाही में 28 फीसदी की गिरावट आई जो सभी छह महीनों के लिए वृद्धि को बट्टा खाते में डालने वाली सोच से काफी कम है। असल में, उत्पादकता बढऩे से वृद्धि को रफ्तार मिली। औपचारिक गतिविधियों के तेज होने पर यूपीआई लेनदेन में साल-दर-साल बढ़त अब महामारी से पहले के स्तर पर जा चुकी है और ई-कॉमर्स की पैठ बुनियादी भोज्य पदार्थों एवं फर्नीचर जैसे क्षेत्रों में भी खासी बढ़ चुकी है। ऑनलाइन शिक्षा ने भी बड़ी छलांग लगाई है। इस वित्त वर्ष में 2 करोड़ घरों तक पेयजल की पाइपलाइन पहुंचाने जैसे बुनियादी ढांचागत सुधार से भी उत्पादकता बढ़ेगी।
(पाठक उस गंवाए हुए समय का अंदाजा लगा सकते हैं जब किसी कारणवश पाइपलाइन को नुकसान होने से उनके घरों में पानी नहीं पहुंच पा रहा था।)
इस तरह उत्पादकता के नजरिये से देखें तो सकारात्मक समायोजन ने नकारात्मकता को पीछे छोड़ दिया और 10 फीसदी वृद्धि के अनुमान को जानबूझकर कम करने की जरूरत नहीं है।
फिर हमें लॉकडाउन से लगे आर्थिक चोटों का रुख करने की जरूरत है जो कि भावी जीडीपी वृद्धि को नुकसान पहुंचा सकते हैं। बंद हो चुके कारोबार, कुछ ग्राहकों को हमेशा के लिए गंवा देने वाली आपूर्ति शृंखलाएं, अपनी कार्यशील पूंजी को भी खा जाने वाले कारोबार हों या फिर अपनी संपत्ति बेचने या कर्ज लेने के लिए बाध्य हुए परिवार हों। अधिकांश फर्मों के लिए निवेश का इंतजाम पहले के सालों में जोड़ी गई कमाई से होता है। इसका मतलब है कि मुनाफे में कमी ने इन कारोबारों की निवेश करने की क्षमता कम-से-कम एक साल के लिए बाधित कर दी। असल में पूंजी की कमी ने फर्मों एवं परिवारों की निवेश एवं खपत धारणा को गहरी चोट पहुंचाई है।
महामारी के शुरुआती दौर में बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक लेख में हम इस बात को लेकर फिक्रमंद नजर आए थे कि ब्याज, किराया एवं वेतन जैसी तय लागत कंपनियों के मुनाफे पर चोट करेंगी जिससे उनकी भावी निवेश क्षमता भी प्रभावित होगी। जून एवं सितंबर तिमाहियों में सूचीबद्ध कंपनियों के नतीजों से ऐसा लगा कि वे वेतन मद एवं अन्य तय लागतों में व्यय को नीचे लाने में काफी हद तक सफल रहीं। इससे उनकी मुनाफा कमाने की क्षमता पर असर भी कम हुआ। कंपनियों ने अपने आपूर्तिकर्ताओं पर दबाव बढ़ाकर खर्चों में कटौती की और छोटे आपूर्तिकर्ता भी इसकी जद में आए। आखिर में इसका खमियाजा कर्मचारियों की कम मजदूरी एवं छोटी फर्मों के कम मुनाफे के रूप में चुकाना पड़ा।
परिवारों ने कम वेतन मिलने की काट लॉकडाउन में घटे हुए उपभोग से की। उन्होंने न तो कमाया और न ही खपत की। लेकिन परिवारों के भीतर कम आय वाले सदस्यों की कमाई खपत कम करने की उनकी क्षमता से भी अधिक प्रभावित हुई थी। वहीं अधिक आय वाले सदस्यों की वित्तीय परिसंपत्ति लॉकडाउन खत्म होने तक बढ़ ही गई। इन लोगों की खपत क्षमता पर दूरगामी असर नगण्य रहा है। जहां कम आय वाले परिवारों की आर्थिक स्थिति को सुधरने में वक्त लग सकता है, वहीं व्यापक अर्थव्यवस्था पर असर सीमित ही होगा। जनसंख्या के शीर्ष 10 फीसदी लोग नीचे की आधी आबादी जितनी खपत नहीं करते हैं और निचले तबके की खपत अधिक विवेकाधीन भी नहीं होती है।
आर्थिक जख्मों के निशान इतना अधिक होने के आसार नहीं हैं कि 10 फीसदी वृद्धि अनुमान को घटाकर 1 फीसदी पर ला सकें। इसमें बस एक जोखिम वैश्विक वृद्धि की रफ्तार है।
इन अनुमानित सुधारों का वाजिब हिस्सा इक्विटी बाजारों में नजर आ रहा है। लेकिन यह देश के राजकोषीय लक्ष्यों के बारे में कुछ अहम सवाल भी खड़े करता है। वर्ष 2021-22 का बजट तैयार करने में जुटी केंद्र एवं राज्य सरकारों के नॉमिनल जीडीपी वृद्धि अनुमान राजस्व प्राप्तियों के बारे में आधार तैयार करेंगे। संभव है कि सरकारें अधिक विश्वसनीय एवं रक्षणीय आंकड़े चुनें लेकिन यह संख्या बहुत कम हो सकती है और कर संग्रह भी कम हो सकता है जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ सकता है।
(लेखक क्रेडिट सुइस के एशिया-प्रशांत एवं भारत रणनीति के सह-प्रमुख हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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