ए के भट्टाचार्य
राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार वर्ष 2020-21 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.7 फीसदी का संकुचन होने के आसार हैं। अगले वित्त वर्ष यानी 2021-22 के लिए 1 फरवरी को पेश होने वाले बजट पर इसके अहम निहितार्थ होंगे और सरकारी वित्त पर इसका असर देखने को मिलेगा।
एनएसओ के अनुमान के मुताबिक, चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का नॉमिनल आकार 195 लाख करोड़ रुपये रहने की संभावना है जो कि 2019-20 में हासिल किए जा चुके 203 लाख करोड़ रुपये के नॉमिनल आकार से करीब 4 फीसदी कम होगा। इसके अलावा वर्ष 2020-21 के लिए जीडीपी का 195 लाख करोड़ रुपये का आकार 225 लाख करोड़ रुपये के मौलिक पूर्वानुमान से 13 फीसदी कम होगा।
चालू वित्त वर्ष में सरकार के शुद्ध राजस्व में 20 फीसदी की अनुमानित वृद्धि इस संकल्पना पर आधारित थी कि इस साल नॉमिनल जीडीपी 11 फीसदी बढ़ेगी। अगर वृद्धि होने की जगह अर्थव्यवस्था सिमटी है तो फिर स्पष्ट तौर पर राजस्व पूर्वानुमान लक्ष्य से भटकेंगे। लेकिन कोविड महामारी के प्रकोप के बीच सरकार को इस साल अधिक खर्च करने की जरूरत है। लिहाजा सरकारी खर्च में बहुत कटौती की संभावना कम है, हालांकि सरकार ने अभी तक अपने खर्च पर तगड़ा अंकुश लगाया हुआ है। अप्रैल-नवंबर 2020 की अवधि में सरकार का कुल व्यय 5 फीसदी से भी कम बढ़ा है जबकि बजट में ही 13 फीसदी वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था।
बहरहाल राजस्व में आई गिरावट के चलते वर्ष 2020-21 में राजकोषीय घाटे के जीडीपी के 3.5 फीसदी लक्ष्य से काफी अधिक रहने की आशंका है। नवंबर तक ही सरकार करीब 10 लाख करोड़ रुपये उधार ले चुकी थी। अब इसके पास वित्त वर्ष के बाकी चार महीनों में 2 लाख करोड़ रुपये की उधारी लेने की गुंजाइश और बची है। अगर इस साल कुल सरकारी उधारी 12 लाख करोड़ रुपये के करीब रहती है तो राजकोषीय घाटा जीडीपी के 6.1 फीसदी से कम नहीं रहेगा।
लेकिन आने वाले साल के बारे में क्या कहा जाए? एनएसओ के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का आगामी बजट अर्थव्यवस्था के संकुचन वाले दौर से गुजरने के बीच पेश किया जाएगा। आजादी के बाद से केवल तीन बार ही ऐसा हुआ है जब बजट को संकुचन की पृष्ठभूमि में पेश करना पड़ा हो। ऐसे मौके 1966-67, 1973-74 और 1980-81 के बजट पेश करते समय आए थे। इन बजट से ठीक पहले के वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमश: 3.7 फीसदी, 0.3 फीसदी और 5.2 फीसदी तक संकुचित हुई थी। इन तीनों बजट और उन्हें तैयार किए जाने की आर्थिक पृष्ठभूमि पर करीबी निगाह डालने से बहुतेरे संकेत मिल सकते हैं।
वर्ष 1965-66 में 3.5 फीसदी का संकुचन कई कारकों के सम्मिश्रण का नतीजा था। भारत को अगस्त-सितंबर 1964 में पाकिस्तान के साथ जंग लडऩी पड़ी थी। इस दौरान भारत को मिलने वाली विदेशी मदद भी रुक गई थी। मॉनसूनी बारिश ठीक से न होने से कृषि उत्पादन में बड़ी गिरावट आई थी और थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर 7.6 फीसदी थी। ऐसी पृष्ठभूमि में 1966-67 का बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री सचिंद्र चौधरी ने उत्पाद शुल्क में मामूली बढ़ोतरी, व्यक्तिगत आयकरदाताओं को छूट सीमा बढ़ाकर राहत देने और अपने पूर्ववर्ती द्वारा लगाए गए विवादास्पद व्यय कर खत्म करने की घोषणा की थी। लेकिन उनका बड़ा कदम सभी गैर-कॉर्पोरेट आयकरदाताओं पर 10 फीसदी की दर से विशेष अधिभार लगाने और कंपनियों पर आयकर 10 फीसदी अंक बढ़ाने का था। लेकिन वित्त मंत्री के तौर पर चौधरी के सबसे बड़ा कदम का जिक्र बजट में नहीं हुआ था। उन्होंने आम बजट पेश करने के तीन महीने बाद ही 6 जून, 1966 को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत में 57 फीसदी अवमूल्यन कर दिया था।
वर्ष 1972-73 में हुआ भारतीय अर्थव्यवस्था का दूसरा संकुचन महज 0.3 फीसदी का था। फिर से भारत ने दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के साथ करीब एक पखवाड़े तक जंग लड़ी थी और उसके पहले पूर्वी सीमा पर लाखों शरणार्थी घुस आए थे। इन घटनाओं ने अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया था। इसके अलावा 1972 में एक बार फिर मॉनसून नाकाम रहा था जिससे देश के कई इलाके अकाल की चपेट में आ गए और थोकमूल्य आधारित मुद्रास्फीति 1972-73 में 10 फीसदी से भी पार चली गई।
ऐसी स्थिति में वित्त मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने 1973-74 के बजट में क्या कदम उठाए? आश्चर्यजनक तौर पर उन्होंने कुछ खास नहीं किया। प्रत्यक्ष करों के मामले में उन्होंने कुछ कोशिशें की थी। व्यक्तिगत आयकर की गणना में गैर-कृषि आय के साथ कृषि आय को भी शामिल करने संबंधी के एन राज समिति की सलाह मानना इनमें सबसे अहम था। उन्होंने लग्जरी उत्पादों पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने के साथ ही कई आयातित वस्तुओं पर सीमा शुल्क में भारी वृद्धि कर दी।
संकुचन का तीसरा मौका वर्ष 1979-80 में आया था जब अर्थव्यवस्था 5.2 फीसदी संकुचित हुई थी। वह कई धड़ों में बंटी जनता पार्टी के शासन का आखिरी साल था। कम बारिश होने से पड़े सूखे के बीच कृषि उत्पादन भी गिरा था। ढांचागत गतिरोध अधिक गंभीर रूप ले चुके थे। जनवरी 1980 में संपन्न चुनाव के बाद इंदिरा गांधी की अगुआई में फिर से कांग्रेस सरकार बनी थी जिसका पहला बजट जून 1980 में वित्त मंत्री आर वेंकटरमण ने पेश किया था।
वेंकटरमण ने वर्ष 1980-81 के अपने बजट में छूट सीमा बढ़ाकर और अधिभार को आधा कर व्यक्तिगत आयकरदाताओं को राहत दी। उन्होंने कंपनियों के लिए निवेश को बढ़ावा देने के लिए मूल्यह्रास मानकों एवं कर अवकाश योजना में फेरबदल किए। अप्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर बजट में अधिक उत्पादों को विशेष उत्पाद शुल्क के दायरे में लाया गया, स्वदेशी उत्पादों को संरक्षण देने के लिए कई तरह के उत्पादों पर सीमा शुल्क बढ़ाए गए और निर्धारित सीमा से अधिक यात्री सामान पर शुल्क में भारी बढ़ोतरी की गई।
इन तीनों बजट एवं उनकी पृष्ठभूमि की त्वरित समीक्षा करने पर कुछ बातें पता चलती हैं। पहली, तीनों मौकों पर कृषि उत्पादन में तीव्र गिरावट देखी गई थी। उन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था के काफी हद तक कृषि पर निर्भर रहने से ऐसी हालत को समझा जा सकता है। इसके उलट वर्ष 2020-21 में कृषि उपज में रिकॉर्ड वृद्धि के बावजूद संकुचन देखा जा रहा है।
दूसरी, तीन में से दो मौकों पर भारत को पाकिस्तान के साथ जंग लडऩी पड़ी थी। तीसरे मौके पर राजनीतिक स्थिरता थी। तीसरी बात, तीनों में से किसी भी वित्त मंत्री ने संकुचन की प्रतिकूलता को बेअसर करने के लिए कोई बड़ा या अहम राजकोषीय प्रस्ताव नहीं रखा था। इकलौता अहम कदम 1966 में अवमूल्यन को लेकर उठाया गया था लेकिन यह बजट का हिस्सा नहीं था। भले ही वित्त मंत्री अवमूल्यन पर निर्णय को अंतिम रूप देने में व्यस्त थे लेकिन इसकी घोषणा बजट के तीन महीने बाद ही की गई थी। और चौथी बात, तीनों वित्त मंत्रियों ने प्रत्यक्ष करों के मामले में राहत देने के साथ सीमा शुल्क बढ़ाया।
अतीत में संकुचन के हालात में पेश इन बजट से हमें आगामी बजट में निर्मला सीतारमण की तरफ से क्या प्रस्ताव रखे जाने की उम्मीद बंधती है? वर्ष 2020-21 का आर्थिक संकुचन बुनियादी तौर पर कोविड पर रोकथाम के लिए लगाए गए लॉकडाउन का नतीजा है। इस तरह पिछले तीनों मौकों से इस संकुचन की तुलना नहीं की जा सकती है।
फिर भी ऊपर वर्णित बजट को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुछ आयकर राहत देने के अलावा वित्त मंत्रियों ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बड़े एवं साहसिक कदम उठाने की जरूरत पर ध्यान नहीं दिया था। अगर सीतारमण वाकई में 1 फरवरी को अपने वादे के मुताबिक 'पहले कभी नहीं देखा गया' बजट पेश करती हैं तो वह संकुचन के बाद पेश बजट के मामले में एक नया मानदंड ही स्थापित कर देंगी। या फिर वह सचिंद्र चौधरी की तरह बजट के बाद कुछ बड़ा फैसला करने की राह पर भी चल सकती हैं।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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