सरकार निजी निवेश में इजाफा करने के लिए आगामी बजट में जो कदम उठाने जा रही है उनमें से एक है नए विकास वित्त संस्थानों (डेवलपमेंट फाइनैंस इंस्टीट्यूशंस यानी डीएफआई) का गठन। ऐसा दीर्घावधि में पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा है। भारत में ऐसे डीएफआई का गठन कोई नई बात नहीं है, हालांकि आजादी के बाद के दशकों में गठित अधिकांश बड़े संस्थान सन 1990 के दशक में नियमित बैंकों में बदल गए। सरकार दोबारा फाइनैंसिंग के उस मॉडल की ओर लौटना क्यों चाहती है जिसे देश एक बार पीछे छोड़ चुका है? इसके बचाव में कई वजह दी जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर ऐसा इसलिए किया जा सकता है क्योंकि देश में एक गहन और नकदीकृत कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार के विकास की आशा पूरी नहीं हुई। भारी सरकारी उधारी समेत कई कारणों ने यह सुनिश्चित किया कि देश में कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार विकसित नहीं हो सका। एक दूसरी वजह यह है कि सन 2008 के संकट से पहले के समय के वाणिज्यिक बैंक बुनियादी ढांचा जैसे क्षेत्रों में होने वाली दीर्घकालिक फंडिंग में परिपक्वता में उत्पन्न विसंगति से निपटने में बेहतर सक्षम थे। वर्तमान में देश में गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और सरकार राजस्व की कमी से जूझ रही है। ऐसे में बुनियादी ढांचा विकास को पर्याप्त वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए दीर्घकालिक पूंजी के अन्य विकल्पों की तलाश समझी जा सकती है।
फिर भी यह निश्चित नहीं है कि नए डीएफआई अपने काम में सफल साबित होंगे या नहीं। सरकारी नियंत्रण वाले बैंकों के साथ जो बुनियादी समस्या है वह सरकारी नियंत्रण वाली डीएफआई पर भी लागू होगी। उनमें राजनीतिक हस्तक्षेप होगा। ज्यादा बुरे हालात हुए तो चुनिंदा नेताओं के पक्ष में सांठगांठ और पक्षपात देखने को मिलेगा। यदि ऐसा नहीं भी हो तो भी सरकारी डीएफआई अनिवार्य तौर पर ऐसे संस्थान बन जाएंगे जिनका इस्तेमाल केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में तथा अपने लक्ष्य हासिल करने में करेगी। सरकारी नियंत्रण वाले बैंकों को कई नीतिगत शासकीय प्राथमिकताओं और निर्देशों का पालन करना होता है। इसी प्रकार सरकारी नियंत्रण वाले डीएफआई में भी छेड़छाड़ की गुंजाइश रहेगी। राजनेता और अफसरशाह उनकी जोखिम लेने की क्षमता को भी प्रभावित करेंगे। उनसे कहा जा सकता है कि वे चुनिंदा क्षेत्रों पर ध्यान दें या किन्हीं विशिष्ट समस्याओं को हल करें। उदाहरण के लिए कोयला संचालित बिजली संयंत्रों वाली सरकार को जब नए नियमों के कारण उन्हें बंद करना पड़े तो वह डीएफआई पर दबाव बना सकती है कि उस क्षेत्र में परियोजना को वित्तीय सहायता मुहैया कराए। सरकार पहले ही कई अहम क्षेत्रों को चिह्नित कर चुकी है और डीएफआई पर दबाव बनाया जा सकता है कि वे इन्हें प्राथमिकता दें।
डीएफआई को तात्कालिक विकल्प के रूप में भी आजमाया जा सकता है जबकि देश में दीर्घावधि के निवेश के जोखिम को कम करने के लिए कुछ अहम काम करने जरूरी हैं। कहा जा रहा है कि इन्हें इक्विटी फाइनैंसिंग पर ध्यान देना चाहिए। ऐसी बातें चिंताजनक रूप से भ्रामक हैं। डीएफआई की दिशा को लेकर अत्यधिक सावधानी बरती जानी चाहिए। क्षेत्र विशेष से संंबंधित ऐसे संस्थान अधिक प्रभावी हो सकते हैं जिनमें सरकार की अल्पांश हिस्सेदारी और कोई नियंत्रण नहीं है लेकिन उसकी हिस्सेदारी अन्य निवेशकों को जोखिम से राहत देने का काम करती है। ऐसी पहल कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार पर गहरे दीर्घकालिक प्रभावों के साथ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए सरकारी प्रतिभूतियों पर बैंकों की निर्भरता कम की जानी चाहिए और दीर्घावधि की फाइनैंसिंग के लिए नीतिगत और विधिक निश्चितता बेहतर होनी चाहिए। इस प्रक्रिया में मनमाने न्यायिक कदमों से संरक्षण भी शामिल है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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