कृष्ण प्रताप सिंह
शुक्र है कि लम्बे गतिरोध के बाद गत बुधवार को किसानों और केन्द्र सरकार के बीच शुरू हुई वार्ता फिर से गतिरोध की शिकार नहीं हुई और किसी भी पक्ष ने उसके नतीजों को लेकर असंतोष नहीं जताया। सरकार की मानें तो पांच घंटे से ज्यादा चली इस वार्ता में उसने इलेक्ट्रीसिटी अमेंडमेंट बिल और पराली जलाने पर भारी जुर्माने के कानून को लेकर किसानों के असंतोष का शमन कर उनके साथ सहमति बनाने का आधा रास्ता तय कर लिया है। इसके विपरीत कई किसान नेताओं का कहना है कि अभी तो विवाद के हाथी की पूंछ भर बाहर निकली है और उसके भीमकाय शरीर का निकलना बाकी है।
दूसरी ओर स्वतंत्र प्रेक्षक कह रहे हैं कि सरकार जिसे पचास प्रतिशत सहमति बता रही है, उसकी असली परीक्षा आगामी चार जनवरी को ही होगी, जब दोनों पक्ष किसानों के लिए परेशानकुन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने व न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने के मुद्दों पर बात करेंगे। अभी सरकार न ताे न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाने को राजी दिखाई दे रही है, न उक्त कृषि कानूनों को वापस लेने को ही, जबकि किसानों का कहना है कि वे उन्हें वापस लेने के तरीकों पर ही बात करेंगे और महज कुछ संशोधनों के सरकार के प्रस्ताव को मानकर अपना आन्दोलन खत्म नहीं करेंगे। साफ है कि अभी दोनों पक्षों को लम्बा रास्ता तय करना है।
लेकिन इस सिलसिले में कम से कम इतनी अच्छी बात तो हुई ही है कि सरकार ने थोड़ा लचीला रुख प्रदर्शित किया है, जिससे दोनों पक्षों के बीच विभिन्न कारणों से जमी आ रही अविश्वास की बर्फ थोड़ी पिघली है। वार्ता के इससे पहले के दौर में खिन्न किसानों ने सरकार का भोजन स्वीकार करने से साफ-साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इस बार उन्होंने न सिर्फ अपने भोजन में सरकारी वार्ताकारों को शामिल किया, बल्कि खुद भी सरकार की चाय पी। इतना ही नहीं, अपना प्रस्तावित ट्रैक्टर मार्च भी वार्ता के अगले दौर तक के लिए स्थगित कर दिया है। लेकिन अभी बात ‘वेल बिगिन इज हॉफ डन’ की स्थिति में है और उम्मीद बनी हुई है कि जो बात अभी ‘न पूरी तरह बनी और न बिगड़ी’ की हालत में है, चार जनवरी को पूरी तरह बन जायेगी।
प्रसंगवश, बुधवार की वार्ता के लिए किसानों ने अपना एजेंडा पहले ही तय कर दिया था ताकि सरकार के लिए बहुत इधर-उधर करके उसे निरर्थक करने की गुंजाइश बचे ही नहीं। उनके एजेंडे के अनुसार सरकार पर्यावरण सम्बन्धी कानून औऱ बिजली बिल को लेकर उनकी बात मानने को पूरी तरह तैयार हो गई है, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर अपना रुख थोड़ा नरम किया है। अब सारा पेच इसी पर फंसा है कि सरकार विवादित कृषि कानूनों को वापस नहीं लेना चाहती। हां, उसका यह प्रस्ताव अपनी जगह है कि किसानों की इस सम्बन्धी मांग पर विचार के लिए एक समिति बना दी जाये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी ऐसी एक समिति बनाने की बात कही गई थी और सरकार को सुझाया गया था कि उस समिति की सिफारिशों के आने तक इन कानूनों पर अमल रोक दे। लेकिन सरकार ने ऐसा करना गवारा नहीं किया। ऐसे में चार जनवरी की वार्ता का नतीजा स्वाभाविक ही इसी पर निर्भर करेगा कि किसानों के साथ सौहार्द का जो वातावरण बना है, उसे पूर्ण विश्वास तक पहुंचाने के लिए सरकार अपना अड़ियल रवैया छोड़ने तैयार होगी या नहीं?
नहीं तैयार होगी तो यही माना जायेगा कि वह वार्ता नहीं कर रही, समय बिताने और आन्दोलित किसानों को थकाने व उनका हौसला तोड़ने की चालाकी बरत रही है। ऐसा करके वह यही सिद्ध करेगी कि उनका दिन-रात राजधानी की सड़कों पर बैठे रहना विरोधी दलों की राजनीति से प्रेरित या कि उनका शगल है।
उसके पास मौका है कि वह आगे उनकी क्षमता को नजरअंदाज करने की गलती न दोहराये और समझे कि उनकी मांगों को मानकर वह न उनसे छोटी हो जायेगी, न उनके सामने झुकी हुई दिखेगी और न प्रधानमंत्री का इकबाल कम होगा, जिसका उनके कई ‘शुभचिन्तक’ अंदेशा जता रहे हैं। इसके उलट किसानों की मांगें मानने का अर्थ होगा कि सरकार ने देश के अन्नदाताओं का सम्मान करते हुए वह गलती सुधार ली, जो उनसे पूछे बिना उनकी तथाकथित बेहतरी के नाम पर तीन कानून बनाकर की थी।
मध्य प्रदेश में एक कॉरपोरेट कंपनी ने 22 किसानों के साथ दो करोड़ का करार कर उन्हें जो चेक दिया, वह बाउंस हो गया। ऐसे में केन्द्र सरकार से पूछा ही जाना चाहिए कि क्या वह इसकी गारंटी दे सकती है कि इन कानूनों के रहते किसानों से ऐसी ठगी आगे नहीं होगी? अगर नहीं तो वह किसानों से उनका रहा-सहा सुरक्षा चक्र भी क्यों छीन रही है? बेहतर होगा कि चार जनवरी की वार्ता में वह मेज के उस तरफ आकर निर्णय ले, जहां से किसानों की मुश्किलें, एतराज और नजरिया उसे साफ समझ आए।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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