बेनतीजा वार्ता (जनसत्ता)

नए कृषि कानूनों को वापस लेने मांग को लेकर किसानों के धरने को चालीस दिन हो चुके हैं। चालीस से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है। सरकार के हठधर्मी रवैये से नाराज होकर कुछ किसानों ने तो खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम तक उठा लिया।

इन घटनाओं से साफ है कि अगर सरकार ने जल्द ही कोई उचित समाधान नहीं निकाला तो आने वाले दिनों में हालात और बिगड़ेंगे। किसान संगठन अपने इस रुख पर कायम हैं कि जब तक सरकार कृषि कानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आंदोलन खत्म नहीं होगा। सरकार भी साफ कर चुकी है कि कृषि कानूनों की वापसी नहीं होगी।

जाहिर है, जब दोनों पक्षों ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है और कोई भी झुकने को तैयार नहीं है तो गतिरोध खत्म होने की बजाय और बढ़ेगा ही। यह गतिरोध एक ऐसे संकट को जन्म दे रहा है जो किसी भी रूप में भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता।

छठे दौर की बातचीत के बाद सरकार ने दावा किया था कि किसानों की दो मांगें मान ली गई हैं और बाकी पर भी जल्द ही सहमति हो जाएगी। पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी शक्ल देने और कृषि कानूनों को वापस लेने के जिन असल मुद्दोें पर किसान आंदोलित हैं, उनके समाधान की दिशा में कोई ठोस पहल होती नहीं दिख रही।

सरकार बार-बार किसानों को यह भरोसा देने में लगी है कि एमएसपी किसी भी सूरत में खत्म नहीं किया जाएगा और इसके लिए वह लिखित रूप में भी देने को भी तैयार है। टकराव का यही बड़ा बिंदु है। अगर सरकार एमएसपी खत्म नहीं कर रही तो इसे कानूनी शक्ल देने में क्या मुश्किल है, यह समझ से परे है।

इसी से किसानों के मन में यह आशंका घर कर गई है कि आखिर ऐसी कौन-सी कानूनी बाधा या मजबूरी है कि सरकार एमएसपी बनाए रखने के बारे लिख कर देने को तो तैयार है, पर उसे कानूनी रूप देने को तैयार नहीं है। ऐसे में यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह एमएसपी की पेचीदगी को लेकर किसानों के समक्ष अपनी मजबूरी रखे और उन्हें संतुष्ट करे।

देशभर से आएलाखों किसानों ने जिस तैयारी के साथ दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाला हुआ है, उससे तो लगता नहीं है कि किसान खाली हाथ लौटेंगे। पिछले दो दिन की बारिश में किसानों के तंबुओं में पानी तक भर गया, खाने-पीने के सामान से लेकर बिस्तर तक भीग गए।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कड़ाके की ठंड से किसानों की मुश्किलें तो बढ़ रही हैं, लेकिन साथ ही जोश और जज्बा भी जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे भी आंदोलनकारियों के हौसले बुलंद हैं। किसान अपनी अगली रणनीति का भी एलान कर चुके हैं और दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्चर मार्च निकालने की तैयारी में हैं। ऐसा लग रहा है कि सरकार भी यह मान रही है कि किसान एक न एक दिन थक हार कर लौटने लगेंगे।

किसानों की मांगों पर विचार के लिए सरकार अब समिति बनाने की बात कर रही है। जबकि इस तरह के प्रयास आंदोलन से पहले भी हो सकते थे। आंदोलनकारियों का डटे रहना इस बात का सबूत है कि नए कृषि कानूनों में कुछ तो ऐसा है जो किसानों को अपने हितों के खिलाफ लग रहा है और जिसे सरकार छिपा रही है। ऐसे में आठ जनवरी की वार्ता में कोई रास्ता निकलेगा, इसकी उम्मीद कम ही है।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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