नए कृषि कानून वापस लिए जाने को लेकर सरकार और किसान नेताओं के बीच वार्ता एक बार फिर रही नाकाम (दैनिक जागरण)

किसान नेता जिस तरह दिल्ली-एनसीआर की जनता को परेशान करने वाले तौर-तरीकों के प्रति ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं उससे यह नहीं लगता कि अगले दौर की बातचीत से कुछ हासिल होगा। जहां सरकार नरमी दिखा रही है वहीं किसान नेता जिद पर अड़े हुए हैं।


इस पर हैरत नहीं कि केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच की वार्ता एक बार फिर नाकाम रही। इसके आसार तभी उभर आए थे, जब पिछली बार की बातचीत के बाद किसान नेताओं ने ट्रैक्टर रैली की रिहर्सल करने का फैसला किया था। उन्होंने यह तय कर रखा है कि वे गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालेंगे। यह और कुछ नहीं लोगों को तंग करने, अपनी ताकत का बेजा प्रदर्शन करने और उसके जरिये सरकार पर दबाव बनाने की तैयारी है। यह अच्छा है कि किसान नेताओं की तमाम धमकियों के बाद भी सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने की उनकी बेजा मांग न मानने पर अडिग है। उसे आगे भी अडिग रहना चाहिए, क्योंकि किसान नेता खुली हठर्धिमता दिखा रहे हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि उन्हेंं वे राजनीतिक और गैर राजनीतिक तत्व शह दे रहे हैं, जो मोदी सरकार का राजनीतिक रूप से मुकाबला करने में सक्षम नहीं। ऐसे तत्वों के शह-समर्थन के जरिये किसान नेताओं का इरादा सरकार को झुकाने का है, न कि किसानों के हित की रक्षा करना। इसीलिए वे कृषि कानूनों की उन तथाकथित खामियों पर चर्चा करने से बच रहे हैं, जिनकी आड़ लेकर उनकी वापसी की मांग कर रहे हैं।

 

जहां सरकार नरमी दिखा रही है, वहीं किसान नेता जिद पर अड़े हुए हैं। वे एक ही रट लगाए हैं कि कृषि कानून वापस लिए जाएं। वे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे देश भर के किसानों ने उन्हेंं यह तय करने का कानूनी अधिकार दे दिया है कि कौन से कानून बने रहने चाहिए और कौन हटने चाहिए? यह विचित्र व्यवहार तब किया जा रहा है, जब तमाम किसान संगठन कृषि कानूनों का समर्थन कर रहे हैं। दिल्ली में डेरा डाले किसान नेता कृषि कानूनों का समर्थन करने वाले संगठनों को तो फर्जी बताने में लगे हुए हैं, लेकिन खुद यह देखने को तैयार नहीं कि उन्हेंं अधिकांश राज्यों के किसानों का समर्थन हासिल नहीं। ये किसान नेता जबरन नीति-नियंता बनने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह न तो न्यायसंगत है और न ही लोकतंत्र की मर्यादा के अनुकूल। किसी मसले पर दो पक्षों के बीच का गतिरोध तभी टूटता है, जब दोनों पक्ष नरमी दिखाते हैं। किसान नेता नरमी दिखाने से तो इन्कार कर ही रहे हैं, यह भी जता रहे हैं कि वे जो कह रहे, वही सही है और सरकार को उसे चुपचाप मान लेना चाहिए। वे जिस तरह दिल्ली-एनसीआर की जनता को परेशान करने वाले तौर-तरीकों के प्रति ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं, उससे यह नहीं लगता कि अगले दौर की बातचीत से कुछ हासिल होगा।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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