संपादकीय: महंगाई का ईंधन (जनसत्ता)

पिछले कुछ सालों से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कुछ दिनों तक भी स्थिरता बनी रह जाती है तो उसे किसी बड़ी राहत की तरह देखा जाने लगता है। लेकिन आम लोगों की जरूरतों के मद्देनजर देखें तो फिलहाल इस राहत में कोई स्थिरता नहीं बन पा रही है। बीते करीब एक महीने तक पेट्रोल और डीजल के दामों में इजाफा नहीं किया गया तो ऐसा लगा कि समूचे देश में महामारी के दौर में बिगड़ी आर्थिक हालत में इससे थोड़ी सुविधा होगी। मगर बुधवार से लगातार दो दिन पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी से एक बार फिर लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों की ओर से दोनों ईंधन के दाम में किए गए गए इजाफे के बाद गुरुवार को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पेट्रोल की कीमत प्रति लीटर चौरासी रुपए पार कर गई। इसी तरह डीजल की कीमत भी प्रति लीटर चौहत्तर रुपए से ज्यादा हो गई। दिल्ली के अलावा मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में कीमत इससे भी ज्यादा हो चुकी है और यह अब तक का सबसे उच्चतम स्तर है।

दरअसल, पेट्रोल और डीजल के दाम में स्थिरता किसी बीते जमाने की बात हो चुकी है। कभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्यों में तेजी तो कभी उत्पाद शुल्क में इजाफे के नाम पर आए दिन इसमें बढ़ोतरी होती रहती है। यह किसी से छिपा नहीं है कि इसका असर केवल वाहनों में खपत के खर्च में इजाफे पर या इस ईंधन से चालित उद्योगों या संयंत्रों पर नहीं पड़ता, बल्कि इसका सीधा प्रभाव समूचे बाजार पर पड़ता है।

डीजल से चलने वाली और खासकर माल ढुलाई वाली गाड़ियों में सामान एक से दूसरी जगह लाने या ले जाने में ज्यादा खर्च होता है तो उसके असर में वस्तुओं की कीमत में बढ़ोतरी होती है। कुछ समय पहले आम उपयोग की वस्तुओं के अलावा खाद्य पदार्थों और खासतौर पर सब्जियों की कीमतों में जिस तरह की तेजी देखी गई, वह अप्रत्याशित थी।

हालत यह रही कि जो आलू गरीब तबकों की थाली का सहारा रहा है, उसकी कीमत भी लोगों की पहुंच से बाहर हो गई थी। हाल में इसमें कुछ राहत देखी जा रही है, लेकिन अब पेट्रोल और डीजल की कीमतों में इजाफे ने अगर फिर रफ्तार पकड़ी तो वह राहत महज तात्कालिक साबित हो सकती है।

पिछले करीब दस महीनों के दौरान शुरुआती कुछ महीने पूर्णबंदी और फिर धीरे-धीरे इसमें ढील मिलने के बावजूद यह सच है कि बाजार अब भी अपनी सामान्य गति नहीं पकड़ सका है। इसकी मुख्य वजह यह है कि इस बीच जितनी बड़ी तादाद में लोगों को रोजी-रोजगार से वंचित होना पड़ा, बड़े पैमाने पर व्यावसायिक गतिविधियां ठप्प पड़ी रहीं, उसमें आबादी के एक बड़े हिस्से की आमदनी या तो खत्म हो गई या फिर उसमें भारी कमी आई।

इसका सीधा असर लोगों की क्रय शक्ति पर पड़ा और बाजार खुलने के बावजूद उनके भीतर खरीदारी को लेकर उदासीनता छाई रही। स्वाभाविक ही अलग-अलग मदों में सरकार की आय में भी कमी आई। अब अगर सरकार को लगता है कि इसकी भरपाई वह आम लोगों पर बोझ डाल कर लेगी तो इसे कितना उचित कहा जाएगा! बीता लगभग पूरा साल ही महामारी और पूर्णबंदी की वजह से कैसा रहा है, यह जगजाहिर है।

लोगों की आर्थिक स्थिति आमतौर पर पहले से काफी कमजोर हुई है और बहुत सारे लोग इससे उबरने की कोशिश में हैं। ऐसी स्थिति में उन पर महंगाई का दोहरा बोझ डाल कर किस समस्या का हल हासिल कर लिया जाएगा!

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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