अमेरिका में लोकतंत्र का संकट (प्रभात खबर)

शशांक, पूर्व विदेश सचिव

अमेरिका की राजनीति में पहले से ही विभाजन बढ़ रहा था. अब हालात काफी खराब हो चुके हैं. ऐसा लगता था कि अमेरिका के पॉपुलर वोट का ऐसा रुझान था कि देश में एक समन्वयक व्यवस्था बने, ताकि यह विभाजन कम हो. यही वजह है कि लोकप्रिय समर्थन डेमोक्रेट पार्टी के पक्ष में गया. लेकिन, इसके साथ यह भी देखने में आया कि रिपब्लिकन पार्टी को भी ठीक-ठाक समर्थन मिला.



ऐसा नहीं है कि वे पूरी तरह से हार गये हैं. इससे स्पष्ट हो रहा है कि अमेरिका में विभाजन की यह स्थिति स्थायी बनती जा रही है. हालांकि डेमोक्रेट को यह समर्थन अपेक्षाकृत अधिक रहा. इलेक्टोरल कॉलेज के चुनाव में भी डेमोक्रेट को काफी समर्थन मिला. कई स्विंग स्टेट में लोग मानकर चल रहे थे कि विभाजन की स्थिति अमेरिका के लिए अच्छी बात नहीं है. कुल मिलाकर लोगों के रुझान में परिवर्तन स्पष्ट हो रहा है.



इलेक्टोरल कॉलेज और पॉपुलर वोट की स्थिति इंगित करती है कि मिल-जुलकर समन्वय बनाना है. हाल के वर्षों में नस्लीय तथा सामाजिक विभाजन हुए हैं, उन्हें कम करना है. अब कई सारे मसले सामने आ गये हैं. एक तो जॉर्जिया स्टेट में अभी सीनेट की दो सीटों पर कड़े मुकाबले में डेमोक्रेट जीते हैं.


इस समय सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है. वर्तमान में यह आंकड़ा 50-48 का है. जॉर्जिया की दो सीटों के साथ यह समीकरण 50-50 की स्थिति में आ जायेगा और फिर निर्णायक मत का अधिकार उपराष्ट्रपति के पास होगा, जो सीनेट के अध्यक्ष होते हैं.


जब बराक ओबामा राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे, उसी समय से कई लोगों को ऐसा लगने लगा था कि अमेरिकी समाज में परिवर्तन हो रहा है. ओबामा को कुछ ही दिनों बाद नोबेल पुरस्कार भी मिल गया था. उभरती विभाजन की स्थिति तब अधिक स्पष्ट हुई, जब डोनाल्ड ट्रंप जीत गये. इसमें दो बातें हुईं, एक तो नस्लीय तौर पर विभाजन हुआ, दूसरा वहां बढ़ रही बेरोजगारी को रोकने के लिए डेमोक्रेट की तरफ से जो कोशिशें की गयीं, उसमें वे सफल नहीं हो पाये.


बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बन गयी. ट्रंप ने अभियान की शुरुआत अमेरिका फर्स्ट नीति के साथ की और वे कामयाब भी हुए. तीसरा, उन्होंने कहा कि डेमोक्रेट ने बहुत ज्यादा नौकरियां चीन के हवाले कर दी हैं. इसके बाद अमेरिका और चीन के रिश्ते भी खराब हुए. अमेरिका फर्स्ट की नीति, चीन के साथ सामरिक प्रतिद्वंद्विता और विवाद के उलट डेमोक्रेट ने अंतरराष्ट्रीय नीतियों, ईरान के नाभिकीय कार्यक्रमों को रोकने के लिए समझौता जैसे प्रयासों के साथ एशिया की तरफ एक साझा दृष्टिकोण बनाने की कोशिश की थी.


ट्रंप ने यह दिखाने का प्रयास किया कि डेमोक्रेट के साथ बहुत सारे सोशलिस्ट और लेफ्टिस्ट आ गये हैं. उन्हें किसी तरह मौका नहीं देना है. उनकी कोशिश थी कि ओबामा का हेल्थकेयर सिस्टम किसी तरह लागू न होने पाये. ‘ब्लैक लाइफ मैटर’ आंदोलन चला, जो नस्लीय भेदभाव और व्हाइट अफसरों की एकतरफा कार्रवाई के खिलाफ था.


वह आंदोलन हिंसा की तरफ बढ़ता चला गया. अभी जरूरी है कि नया प्रशासन आने के बाद कानून-व्यवस्था की स्थिति बदले. वे तय करेंगे कि अमेरिकी व्यवस्था को किस तरह आगे लेकर जायेंगे. कानून-व्यवस्था की मशीनरी की कार्यप्रणाली पर ध्यान देना होगा. लेकिन कई मसलों में जहां डेमोक्रेटिक कैबिनेट नियुक्तियां हैं, उनको सीनेट की मंजूरी की जरूरत होगी.


रिपब्लिकन पार्टी के भीतर भी वर्तमान नेतृत्व चाहेगा कि जब भी कोई चुनाव हों, उसमें वर्तमान नेतृत्व को ही लीडरशिप की भूमिका मिलनी चाहिए.


सत्ता संभालने के बाद बाइडेन जिन बातों को आवश्यक समझते हैं, उसके मद्देनजर वे जरूर कुछ अहम फैसले लेंगे. लेकिन जिन नीतियों के लिए उन्हें कांग्रेस (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव व सीनेट) की मंजूरी की आवश्यकता होगी, उन्हें वहां दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. उनके लिए रिपब्लिकन की तरफ से समर्थन लेना भी आसान नहीं होगा. जमीनी स्तर पर भी जिस तरह से हिंसा हो रही है और टकराव बढ़ रहा है, उससे भी जो रिपब्लिकन पार्टी के लोग समर्थन में आगे बढ़ना चाहेंगे, उनके लिए मुश्किलें होंगी.


उन्हें पार्टी के भीतर चुनौती मिल सकती है. ऐसे में स्पष्ट है कि डेमोक्रेट पार्टी के लिए नीतिगत बदलाव करना बहुत आसान तो नहीं होगा. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें सत्ता संभालने के बाद घरेलू चिंताओं को प्राथमिकता के आधार पर हल करना होगा. वे उसकी वजह से आये हैं और वह जरूरी भी है. अंतरराष्ट्रीय नीतियों में परिवर्तन अभी आसान नहीं है, क्योंकि हर अंतरराष्ट्रीय नीति के कुछ लाभ और कुछ नुकसान होते हैं. उसमें बदलाव के लिए घरेलू समर्थन मिलना भी इतना आसान नहीं होगा.


ऐसा प्रतीत हो रहा है कि रिपब्लिकन की तरफ से जो हिंसक घटनाएं हो रही हैं और प्रदर्शन आदि हो रहे हैं, वे अभी कुछ दिन और चल सकते हैं. यह ट्रंप प्रशासन की जिम्मेदारी है कि किसी भी तरह की हिंसक वारदात को होने से रोके. देखना होगा कि उनके पास कितनी इच्छाशक्ति है. उनके ही अपने कई ऐसे लोग हैं, जो चाहते हैं कि ऐसी घटनाएं हों क्योंकि कई रिपब्लिकन सीनेटर या स्टेट गवर्नर ऐसे हैं, जो ट्रंप की नीतियों को जारी रखना चाहते हैं.


अभी हालात को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका के अपने कुछ कानूनी प्रावधान जरूर होंगे. लेकिन ट्रंप खुद को कानून के दायरे में नहीं लाना चाहेंगे. इस स्थिति को वे कैसे नियंत्रित करेंगे, यह देखना महत्वपूर्ण होगा. एक जमाने में निक्सन ने इस्तीफा देकर उपराष्ट्रपति के हाथ में सत्ता दे दी थी. फोर्ड ने सबसे पहले निक्सन को कार्यवाही और महाभियोग से सुरक्षित कर दिया था.


अगले दस दिनों में ट्रंप भी कुछ ऐसा कर सकते हैं. लेकिन इसमें यह भी देखनेवाली बात होगी कि क्या उपराष्ट्रपति पेंस उनकी बात मान लेंगे? मौजूदा हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि अमेरिकी की राजनीति में अभी अनिश्चितता की स्थिति है और इससे जुड़े कई तरह के सवाल भी हैं.


इसे बेहतरी की ओर ले जाना अमेरिकी व्यवस्था तंत्र के ऊपर निर्भर करता है. अब तक यह माना जाता रहा है कि भारत का लोकतंत्र सबसे बड़ा है और अमेरिका का लोकतंत्र सबसे समृद्ध है. अब लगता है कि उसमें बहुत दोष आ चुके हैं. अब उसे किस तरह दूर किया जायेगा और आगे का रास्ता कैसे निकाला जायेगा, वह देखना होगा.


(ये लेखक के निजी विचार हैं)

सौजन्य - प्रभात खबर।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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