टी. एन. नाइनन
क्या देश का टेक्नोलॉजी स्टार्टअप क्षेत्र परिपक्व हो रहा है? इस प्रश्न को तीन या चार तरह से स्पष्ट किया जा सकता है। मूल्यांकन से शुरुआत करें तो क्या यूनिकॉर्न (ऐसी स्टार्टअप टेक कंपनियां जिनका मूल्यांकन एक अरब डॉलर या अधिक हो) को बाजार पूंजीकरण में सम्मानजनक राशि मिल रही है? वैश्विक यूनिकॉर्न रैंकिंग में भारत की क्या स्थिति है? क्या ये कारोबार किसी वेंचर कैपिटलिस्ट की नजर में चमकने के अलावा वास्तव में बढिय़ा कारोबार कर रहे हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या उनके पास पर्याप्त कर्मचारी और समुचित बिक्री राजस्व है जिसकी बदौलत वे कुछ फर्क ला सकें। आखिर में क्या वे मुनाफा कमा रही हैं? जवाब अलग-अलग होंगे। उदाहरण के लिए जैसा कि इस समाचार पत्र ने लिखा, भारत में अब 37 यूनिकॉर्न हैं। इनमें से 16 सन 2020 में इस सूची में आईं। वैश्विक रैंकिंग में अमेरिका और चीन के बाद यह तीसरा स्थान है। हम ब्रिटेन और जर्मनी से आगे हैं। यह अच्छा प्रदर्शन है लेकिन इस कहानी में एक पेच है: भारतीय उद्यमियों ने ज्यादा यूनिकॉर्न विदेशों में स्थापित कीं। हुरुन की वैश्विक यूनिकॉर्न सूची के मुताबिक इनकी तादाद 40 है। अमेरिका में सर्वाधिक मूल्य वाली शीर्ष छह फर्म टेक्रोलॉजी क्षेत्र की हैं। इस नजरिये से देखें तो देश की 37 स्वदेशी यूनिकॉर्न में से केवल तीन या चार को ही निफ्टी 50 में शामिल होने लायक माना जा सकता है, बशर्ते कि वे सूचीबद्ध होना चाहें। अंतर यह है कि अमेरिकी टेक्रोलॉजी स्टार्टअप ने वैश्विक मंच तैयार किए हैं, उन्नत तकनीक पेश की हैं और वैश्विक उत्पाद निर्मित किए हैं जबकि भारतीय कंपनियों ने वेब आधारित देसी बाजार की ताकत का लाभ लिया है।
इससे यह समझा जा सकता है कि आखिर क्यों देश की 37 यूनिकॉर्न का समेकित मूल्यांकन देश के शेयर बाजार के कुल मूल्यांकन का करीब 5 फीसदी है। यदि कोक, पेप्सी, हुंडई और कॉग्निजेंट जैसे अन्य कारोबारों को शामिल किया जाए जो भारत में सूचीबद्ध नहीं हैं लेकिन बाजार में अच्छी हिस्सेदारी रखते हैं तो इन यूनिकॉर्न का हिस्सा और कम हो जाएगा। सबसे बड़ी यूनिकॉर्न फ्लिपकार्ट का आकार रिलायंस के छठे हिस्से भी कम है। आप इसे दिए गए समय के हिसाब से छोटा या प्रभावी मान सकते हैं लेकिन असल बात यह है कि खेल अभी शुरू हुआ है।
बिक्री राजस्व और कर्मचारियों की बात करें तो बड़ी यूनिकॉर्न गंभीर माने जाने वाले आंकड़ों के आधे के करीब हैं। यह भी महामारी के बाद जबकि उसने कई डिजिटल कारोबारों को ई-कॉमर्स, एडटेक, फिनटेक और अन्य क्षेत्रों में अच्छी हिस्सेदारी हासिल करने में मदद की है। महामारी के पहले भी फ्लिपकार्ट ने सन 2019-20 में 36,400 करोड़ रुपये का राजस्व कमाया था। वह भी एक ऐसे देश में जहां संगठित खुदरा कारोबार अभी बहुत छोटा है। शिक्षा क्षेत्र में बैजूस का राजस्व फ्लिपकार्ट के दसवें हिस्से से भी कम है। मूल्यांकन की भी यही स्थिति है लेकिन अब वह मुनाफा कमा रही है और समय के साथ मार्जिन बेहतर होने की आशा है। अधिकांश यूनिकॉर्न अभी भी पैसा फूंक रही हैं और जीडीपी की दृष्टि से मूल्यह्रास की वजह हैं। परंतु एमेजॉन सन 2016 तक यानी स्थापना के दो दशक बाद तक मुनाफे में नहीं थी। अब उसका मुनाफा बढ़ रहा है। कुछ भारतीय यूनिकॉर्न की स्थिति भी बदल रही है। मूल्यांकन एक ऐसी परिसंपत्ति है जिसका इस्तेमाल कम मूल्यांकन वाले कारोबार के साथ विलय या उसके अधिग्रहण में किया जाता है। सन 2000 में एओएल और टाइम वार्नर का उदाहरण याद कीजिए।
प्रश्न यह है कि पैसे कौन कमा रहा है? बड़े निवेशक विदेशी हैं: जापान का सॉफ्टबैंक, चीन की अलीबाबा और अमेरिका की सिकोया आदि। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में बड़ा वेंचर कैपिटल उद्योग नहीं है जो जोखिम ले सके। मुकेश अंबानी की रिलायंस अपवाद है। देश के स्थापित कारोबारी पारंपरिक कारोबार में उलझे रहे। रतन टाटा ने सेवानिवृत्ति के बाद स्टार्टअप में निवेश शुरू किया। उनके पोर्टफोलियो में पेटीएम और ओला के रूप में दो यूनिकॉर्न हैं जबकि टाटा समूह बिग बास्केट के अधिग्रहण पर निगाहें जमाए है।
ऐसे में अधिकांश कारोबारी संपत्ति निर्माण के खेल में आ रहे इस बदलाव में नुकसान उठाएंगे। रिलायंस और टाटा के अलावा वे बीते दो दशक की अहम घटनाओं: सॉफ्टवेयर और दूरसंचार का लाभ उठाने में भी नाकाम रहे। दूसरी ओर खुदरा निवेशकों को तब अवसर मिल सकता है जब ये यूनिकॉर्न बाजार में सूचीबद्ध होना शुरू होंगी। कुछ कंपनियां इसकी योजना बना रही हैं क्योंकि उन्हें मुनाफा नजर आ रहा है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment