टी. एन. नाइनन
यह बात पसंद आए या नहीं लेकिन भारतीय बैंकिंग जगत भी दूरसंचार और विमानन क्षेत्र की राह पर जाता दिख रहा है। अधिकांश कारोबार और मुनाफा निजी बैंकों के हिस्से होगा और ज्यादातर सरकारी बैंक अव्यावहारिक स्थिति में होंगे। तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें संभाला नहीं जा सकेगा। निजी बैंकों का शुद्ध ब्याज मार्जिन 3.4 है जबकि सरकारी बैंकों का महज 2.4, उनकी लागत कम है (निजी बैंकों का वेतन बिल आय का 8.7 फीसदी है जबकि सरकारी बैंकों का 13.8 फीसदी) और यही कारण है कि वे मुनाफा कमा रहे हैं जबकि बीते पांच वर्ष में सरकारी बैंकों को घाटा हुआ है। महामारी के कारण किए गए ऋण स्थगन और अन्य कदम समाप्त होने के बाद घाटा बढ़ेगा। सरकारी बैंक अपने लागत और राजस्व ढांचे में बदलाव नहीं कर सकते। निजी बैंकों के सापेक्ष वृद्धि के रुझान को बदलने के लिए जरूरी पूंजी भी उन्हें नहीं मिल सकती। यह तय है कि निजी बैंकों का कारोबार सरकारी बैंकों से अधिक रहेगा और अधिकांश क्षेत्रों में उनका दबदबा होगा। सबसे बेहतर जमा भी उनके पास रहेगी और ऋण चाहने वाले ग्राहक भी।
सरकारी बैंकों की खस्ता हालत का एक अर्थ यह भी है कि बैंकिंग क्षेत्र अब अर्थव्यवस्था की उस तरह मदद नहीं करता जैसा उसे करना चाहिए। जीडीपी की तुलना में ऋण बीते कुछ वर्ष में 60 फीसदी से घटकर 50 फीसदी के करीब रह गया है। यदि निजी बैंकों ने बेहतर पूंजी पर्याप्तता और कम प्रोविजनिंग के साथ बेहतरी नहीं दिखाई होती तो हालत शायद अधिक खराब होती। बैंकिंग परिसंपत्तियों में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी केवल 60 फीसदी रह गई है जबकि पांच साल पहले यह 72 फीसदी थी।
सरकार ने हालात बदलने के लिए कई प्रयास किए: बैंकों का पुनर्पूंजीकरण करते हुए करदाताओं का पैसा उनमें डाला गया, बेहतरीन सीईओ चुनने के लिए बैंक्स बोर्ड ब्यूरो का गठन किया गया, कमजोर बैंकों का मजबूत बैंकों में विलय किया गया, अंकेक्षण को पारदर्शी बनाने के लिए नए खुलासा मानक तय किए गए, नई ऋणशोधन प्रक्रिया लाई गई, महामारी के दौरान नियामकीय सहिष्णुता बरती गई। इनमें से कुछ कदमों से मदद मिली लेकिन इतनी नहीं कि निजी बैंकों को हिस्सेदारी बढ़ाने से रोका जा सके।
सार्वजनिक से निजी की ओर इस बदलाव के पीछे का तर्क उस समय विफल हो जाता है जब सरकार पर ऐसे नए उपाय अपनाने का दबाव बनता है जो अब तक नहीं अपनाए गए। मिसाल के तौर पर 'बैड बैंक' का विचार जो सरकारी बैंकों का फंसा हुआ कर्ज संभालेगा। ऐसी परिसंपत्तियों के स्थानांतरण में उनके वाजिब मूल्य का 80 फीसदी तक कम करना होगा। ऐसे में यदि अंकेक्षण में घपला नहीं किया गया तो राशि को बट्टे खाते डालने की घटनाएं और घाटा बढ़ेगा।
दूसरा हल है बैंक निवेश कंपनी की स्थापना जो सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी रखेगी। इस तरह सरकार को सरकारी बैंकों के स्वामित्व से अलग किया जाएगा। ऐसे ढांचे बमुश्किल काम करते हैं। यह सोचना मुश्किल है कि बैंक निवेश कंपनी अनुशासन और प्रदर्शन मानक सही कर पाएगी या फिर वह बेहतरीन निजी बैंकों जैसा आक्रामक वाणिज्यिक रुझान और भुगतान ढांचा तैयार कर पाएगी। याद रहे फिनटेक कंपनियों की चुनौती भी सामने है जो बैंकों का कारोबार हड़पने को तैयार हैं।
इकलौता व्यावहारिक हल है (या था) निजीकरण। चूंकि बड़े कारोबारी घरानों को बैंकों का मालिकाना रखने से मना कर दिया गया है इसलिए संकटग्रस्त सरकारी बैंकों का काम मौजूदा निजी बैंक और बड़ी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां ही संभाल सकती हैं। इन्हें भी बैंक बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। परंतु ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि लोगों के मन में यह आशंका हमेशा होगी कि सरकारी बैंकों का कम मूल्यांकन किया गया। लगभग सभी सरकारी बैंक अपना कम मूल्यांकन दर्शा रहे हैं। दो या तीन चरण की नीलामी प्रक्रिया से बात बन सकती है। इसके बावजूद संभव है कि कुछ सरकारी बैंकों को कोई खरीदार न मिले। उनकी बात करें तो निजीकरण के लिए पहले ही देर हो चुकी है। उनकी बैलेंस शीट कम करनी होगी। इस प्रकार शायद हमें एक स्वस्थ बैंकिंग क्षेत्र मिल सके जो अर्थव्यवस्था की मदद कर सके। उस स्थिति में दो या तीन बड़े बेहतर संचालित सरकारी बैंकों के अलावा अधिकांश निजी बैंक हो सकते हैं। इस नतीजे को स्वीकार किया जा सकता है या फिर दिखावे का सिलसिला जारी रहने दिया जा सकता है।
(स्पष्टीकरण: कोटक परिवार के नियंत्रण वाली कंपनियों की बिज़नेस स्टैंडर्ड में महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी है।)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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