स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों की पहेली का हल जरूरी (बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजय शाह 

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) द्वारा जारी किए गए आंकड़े काफी बहस और चिंता का विषय बने हुए हैं। इन आंकड़ों में आंशिक रूप से 2019-20 से जुड़े परिणाम भी शामिल हैं। मानव विकास के कुछ सूचकांकों पर सुधार हुआ है लेकिन अन्य पर नहीं। क्या हो रहा है इसे समझने के लिए हमें ऐसे ढांचे की मदद लेनी होगी जो निवेश-उत्पादन और नतीजों के आधार पर काम करता हो। सरकार ने निवेश बढ़ाने पर जोर दिया है। अफसरशाही की प्रवृत्ति एक दिशा में सीधा देखने की होती है। इसीलिए निवेश पर जोर बढ़ गया है। हालांकि उत्पादन और निष्कर्ष के मामले में दिक्कतें हैं। व्यापक आर्थिक वृद्धि की समस्या भी है क्योंकि यह मानव विकास संबंधी नतीजे तैयार करने में अहम भूमिका निभाता है।

एनएफएचएस के आंकड़े महत्त्वपूर्ण और उच्च गुणवत्ता वाले हैं। सन 2019-20 के शुरुआती आंकड़े उपलब्ध हैं। सर्वेक्षण में 17 राज्य और पांच केंद्र शासित प्रदेश शामिल हैं। यानी कुल आबादी का 54 फीसदी। स्वास्थ्य के क्षेत्र में देखें तो वर्ष 2015 के बाद सफाई की गति तेज हुई है। यह अच्छी खबर है क्योंकि इससे यह संकेत निकलता है कि सरकार ने शौचालयों को लेकर जो बड़ी मुहिम छेड़ी उसके परिणाम भी सामने आ रहे हैं।


परंतु इसमें चिंताजनक खबरें भी हैं। बीते वर्षों में बच्चों में ठिगनेपन में लगातार कमी आ रही थी लेकिन सन 2015 के बाद ग्रामीण इलाकों में इसमें ठहराव आया और शहरी इलाकों में तो यह रुझान पलट ही गया। इन विरोधाभासी तथ्यों को किस तरह देखा जाए? आखिर बच्चों में ठिगनेपन की एक वजह सफाई में कमी भी है। इसके चलते वे बार-बार बीमार पड़ते हैं और उनकी शारीरिक वृद्धि प्रभावित होती है। जब स्वच्छता में सुधार हुआ तो ठिगनेपन में कमी आनी चाहिए।


सार्वजनिक नीति के अन्य हिस्सों की तरह निवेश, उत्पादन और नतीजों के संदर्भ में सोचना उचित है। शिक्षा के क्षेत्र में यह ढांचा काफी जाना पहचाना है। वहां शिक्षकों की भर्ती और स्कूल की इमारत आदि निवेश की श्रेणी में आते हैं। स्कूल में पढऩे वाले बच्चों को इससे उत्पन्न माना जाता है और वास्तविक नतीजा होता है वह ज्ञान जो बच्चे स्कूल में हासिल करते हैं। सन 2004 के बाद से हमने यह समझा है कि प्रति छात्र सार्वजनिक व्यय में भारी इजाफा होने के बाद भी नतीजों में कुछ खास बदलाव नहीं आया। शिक्षा क्षेत्र की अफसरशाही ने स्कूलों की इमारतों, शिक्षकों और छात्रों की गिनती को ही अपनी जीत मान लिया है। परंतु बुनियादी स्तर पर देखा जाए तो प्राथमिक शिक्षा पर राज्य का व्यय बहुत अच्छे प्रदर्शन का सबब नहीं बना। इन चीजों में भारी निवेश से अच्छे नतीजे हासिल करने में मदद नहीं मिली।


निवेश-उत्पादन और निष्कर्ष का ढांचा कई अन्य क्षेत्रों में उपयोगी है। शौचालय निवेश हैं लेकिन क्या वाकई इन शौचालयों का इस्तेमाल होता है? जिस सीमा तक खुले में शौच में कमी आई है वही इसका हासिल है। इसके निष्कर्ष के रूप में बच्चों को स्वस्थ होना चाहिए था। इसके आकलन के लिए बच्चों में ठिगनेपन की जानकारी उपयोगी हो सकती है।


कहा जा सकता है कि शौचालय से बच्चों के ठिगनेपन तक कड़ी सही ढंग से जुड़ती नहीं है। अब जरूरत ऐसे शोध की है कि आखिर क्या हुआ? इसके बाद ही नीतिगत सुधार की गुंजाइश है। एनएफएचएस के पूरे आंकड़े सामने आने के बाद शोधकर्ता शौचालयों, बाल मृत्यु और ठिगनेपन के अंतर्संबंधों का बेहतर आकलन कर सकेंगे।


राजनीतिक नेताओं की बात करें तो वे हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि आखिर भारतीय राज्य के संगठनात्मक ढांचे में पैसे से किस हद तक वांछित नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। संगठनात्मक ढांचे में व्यापक बदलाव के लिए उच्च बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होगी और यह धीमी गति से ही होगा। इस बात को लेकर काफी रुझान रहता है कि खराब ढंग से काम कर रहे ढांचे को यथास्थिति छोड़ दिया जाए और एक के बाद दूसरे लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में प्रयास किया जाए। इस दौरान गहरी समस्याओं को हल नहीं किया जाता। इसकी अपनी सीमाएं हैं। जब किसी संगठन से कहा जाता है कि उसका आकलन कुछ लक्ष्यों के आधार पर किया जाएगा तो कर्मचारियों में एकरैखीय ढंग से सोचने की आदत विकसित हो जाती है और वे सीमित नजरिये के साथ लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ते हैं। जब किसी बड़े सरकारी संस्थान के कर्मचारियों पर यह दबाव बनाया जाता है कि वे अधिक से अधिक शौचालय बनाएं तो ऐसा करते हुए शायद वे समग्र परिदृश्य पर ध्यान न दें और संकीर्ण सोच से काम लें। असल काम शौचालय बनाना नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि उनका समुचित इस्तेमाल हो सके। समय-समय पर आने वाली चुनौतियों मसलन कुंभ आदि के लिए भी मिशन के तौर पर काम करना उचित है लेकिन यह गहन सुधार का विकल्प नहीं है।


मसला यह है कि कैसे शीर्ष से आने वाली ऊर्जा की मदद से एक कमजोर संस्थान को अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रेरित किया जाए। कई बार यह काम अल्पावधि के लिए किया जाता है लेकिन इसमें स्थायित्व नहीं होता। इसके अलावा हमें मानव विकास के निष्कर्षों के सबसे अहम निर्धारक: उच्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि पर भी ध्यान देना चाहिए। जब जीडीपी वृद्धि मजबूत रहती है तो आय में वृद्धि के कारण परिवार खाना खरीदने, शिक्षा, सफाई और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान दे सकेंगे। सन 1991 से 2011 के बीच की तेज वृद्धि के दौरान गरीबी और मानव विकास में काफी प्रगति हुई। ऐसा इसलिए हुआ कि आम परिवारों की क्रय शक्ति बढ़ी और वे भोजन, स्वच्छता, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अधिक व्यय कर सके।


सन 2011 के बाद आर्थिक क्षेत्र की कठिनाइयों ने मानव विकास संबंधी नतीजों को भी प्रभावित किया। सामान्य से कम वजन और बच्चों में ठिगनेपन की समस्या का सबंध अपर्याप्त जीडीपी वृद्धि से भी है। बाल पोषण आदि में निवेश की सरकारी योजनाएं बेहतर हैं लेकिन उनसे धीमी वृद्धि की समस्या नहीं हल हो सकती।


सन 2020 में जीडीपी में आने वाली गिरावट अनेक परिवारों की क्रय शक्ति को प्रभावित करेगी। इसका असर अहम स्वास्थ्य संकेतकों मसलन शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर, तमाम तरह की मौतों और बच्चों में ठिगनेपन आदि पर भी पड़ेगा। गरीबों को पोषण और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में राज्य के सीमित संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन बुनियादी समस्या से दूर नहीं भागा जा सकता। देश में निजी निवेश में कमी आई है जबकि सतत जीडीपी वृद्धि के लिए यह आवश्यक है।

(लेखक स्वतंत्र अध्येता हैं)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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