बड़े बेआबरू होकर... (नवभारत टाइम्स)

​​राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद से ही ट्रंप खुद को अमेरिकी लोकतंत्र के नियमों और संस्थाओं से ऊपर की चीज दर्शाते रहे हैं। पेरिस जलवायु समझौते से वे यह कहते हुए बाहर आ गए कि यह समझौता बराक ओबामा ने किया था, जैसे ओबामा उन्हीं की तरह एक निर्वाचित राष्ट्रपति न होकर धोखे से इस पद पर काबिज हो गए हों।

अमेरिका को फिर से महान बनाने का नारा देकर सत्ता में आए डोनाल्ड ट्रंप एक ही कार्यकाल में दो बार महाभियोग का सामना करने वाले एकमात्र अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में इतिहास में दर्ज हो रहे हैं। बुधवार को अमेरिकी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव 197 के मुकाबले 232 मतों से पारित कर दिया गया। खास बात यह कि ट्रंप की अपनी रिपब्लिकन पार्टी के भी दस सांसदों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया।

इसी 20 जनवरी, यानी अगले बुधवार को ट्रंप का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। लेकिन उससे पहले 19 जनवरी को ही संसद के ऊपरी सदन सीनेट में इस प्रस्ताव पर वोटिंग होनी है। वहां डेमोक्रेटिक पार्टी के बहुमत को देखते हुए प्रस्ताव का पास होना तय माना जा रहा है। पूछा जा सकता है कि सिर्फ एक दिन के लिए महाभियोग चलाने की इस कवायद का भला क्या मतलब है। इस सांकेतिक कार्रवाई से क्या हासिल होने वाला है? असल में ऐसी कार्रवाइयों को कम महत्वपूर्ण मानने का ही नतीजा हमें पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तार-तार करने वाले आल्ट-राइट (अति-दक्षिणपंथ) के उभार के रूप में देखने को मिल रहा है।


राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद से ही ट्रंप खुद को अमेरिकी लोकतंत्र के नियमों और संस्थाओं से ऊपर की चीज दर्शाते रहे हैं। पेरिस जलवायु समझौते से वे यह कहते हुए बाहर आ गए कि यह समझौता बराक ओबामा ने किया था, जैसे ओबामा उन्हीं की तरह एक निर्वाचित राष्ट्रपति न होकर धोखे से इस पद पर काबिज हो गए हों। हाल में राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद तो उन्होंने मतदाताओं के फैसले को मानने से ही इनकार कर दिया। हर उपलब्ध मंच पर उनका दावा खारिज हो गया, फिर भी वे चुनाव में धोखाधड़ी की बात पर अड़े रहे। और फिर जिस दिन चुनाव नतीजों पर संसद की मोहर लगनी थी, उसी दिन ट्रंप समर्थकों ने संसद में घुसकर जो उत्पात मचाया, वह अमेरिकी इतिहास का एक शर्मनाक अध्याय बन गया है।


सबसे अहम सवाल अब यही है कि इस प्रकरण को लेकर अमेरिकी लोकतंत्र कितनी सख्ती बरतता है। दुनिया भर में लिबरल राजनीतिक धाराओं का चलन ऐसी प्रवृत्तियों से निपटने के मामले में ढीलापोली बरतने का ही रहा है। धुर दक्षिणपंथी ताकतों को हराकर सत्ता में आने के बाद झगड़े-टंटे से बचकर राज करना ही उनकी एकमात्र प्राथमिकता हो जाती है। यही वजह है कि हुल्लड़बाज ताकतों द्वारा जनतांत्रिक संविधान के साथ खिलवाड़ की कोशिशें पूरी दुनिया में तेज हुई हैं। अमेरिकी संसद ने महाभियोग का फैसला लेने के क्रम में दलीय सीमाओं से ऊपर उठकर यह संदेश दिया है कि देश का संवैधानिक ढांचा कोई राजनीति करने की चीज नहीं है और अमेरिकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसका मुकाम एक ऐसी लक्ष्मण रेखा का है, जिसे अगर राष्ट्रपति भी पार करता है तो उसे इसका दंड भुगतना होगा।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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