इस भावना के तहत ही उसने यह महत्वपूर्ण पहल की है, हालांकि किसानों का रुख इस मामले में अभी बहुत पॉजिटिव नहीं लगता। किसान संगठनों ने कहा है कि वे न तो इस समिति के सामने अपना पक्ष रखेंगे, न ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया में शामिल होंगे।
दिल्ली बॉर्डर पर किसानों के धरने के 48वें दिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक बड़ी पहल से गतिरोध टूटने की कुछ उम्मीद जगाई है। इस बीच किसानों के प्रतिनिधि मंडल से सरकार की आठ दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन इससे कोई नतीजा नहीं निकला है। किसान इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं जबकि सरकार का कहना है कि वह इन कानूनों में संशोधन पर विचार जरूर कर सकती है, लेकिन ये कानून वापस नहीं लिए जा सकते। दोनों पक्षों के इस अड़ियल रुख के चलते बातचीत महज रस्म अदायगी का रूप लेती जा रही थी।
ऐसे में भारत के मुख्य न्यायाधीश की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने थोड़ा और समय देने का सरकारी अनुरोध खारिज करते हुए तीनों कृषि कानूनों के अमल पर अगले आदेश तक के लिए रोक लगा दी। साथ ही अदालत ने चार विशेषज्ञों की एक समिति भी गठित की है जो सभी पक्षों से बातचीत कर अदालत को विवाद निपटारे के लिए सुझाव देगी। समिति की रिपोर्ट की रोशनी में ही अदालत अपना आगे का रुख तय करेगी। एक बात तय है कि किसानों की ओर से इन तीनों कानूनों की संवैधानिक वैधता पर कोई सवाल नहीं उठाया गया है, न ही इनके तकनीकी पहलुओं को लेकर कोई आपत्ति जताई गई है। ऐसे में स्वाभाविक यही था कि सरकार आंदोलनकारी किसानों की चिंता को संबोधित करते हुए उन्हें संतुष्ट करने का कोई रास्ता निकालती।
मगर सरकार के रुख को देखते हुए ऐसा लगने लगा था कि उसकी दिलचस्पी हल निकालने से ज्यादा आंदोलनकारी किसानों को अलग-थलग करने, उनके आंदोलन को कोई विवादित मोड़ देने या उसे सहनशीलता की आखिरी सीमा तक खींचते चले जाने में है। जन असंतोष के सभी रूपों को लेकर यह उसका आजमाया हुआ तरीका रहा है और इसमें उसे सफलता भी मिलती आई है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से अलग रवैया अपनाकर स्पष्ट शब्दों में कहा कि एक लोकतांत्रिक देश में महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों समेत एक बड़ी आबादी को कड़ाके की ठंड में यूं सड़क पर नहीं छोड़ा जा सकता।
इस भावना के तहत ही उसने यह महत्वपूर्ण पहल की है, हालांकि किसानों का रुख इस मामले में अभी बहुत पॉजिटिव नहीं लगता। किसान संगठनों ने कहा है कि वे न तो इस समिति के सामने अपना पक्ष रखेंगे, न ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया में शामिल होंगे। जाहिर है, उनके इस रुख में अड़ियलपने का तत्व मौजूद है और इससे सहमति नहीं जताई जा सकती। अदालत ने उनसे अपना संघर्ष समाप्त करने को नहीं कहा है। कृषि कानूनों पर अमल रोकने का आदेश देकर अदालत ने जो सौहार्द का माहौल बनाया है, उसका फायदा उठाते हुए किसान अगर समिति के सामने पूरी मजबूती से अपना पक्ष रखें तो अदालत भी भविष्य को लेकर उनकी आशंकाओं से परिचित हो सकेगी और सरकार से बातचीत में आगे के लिए उनका पक्ष और मजबूत होगा।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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