विनिर्माण : फिसड्डी से अगुआ बनने का सफर (बिजनेस स्टैंडर्ड)

नितिन देसाई 

भारतीय अर्थव्यवस्था सघन निगरानी कक्ष (आईसीयू) से बाहर निकलती दिख रही है और अगले साल यह रिकवरी के दौर में भी प्रवेश कर जाएगी। लेकिन कोविड संकट के नुकसान से कुछ तनाव एवं थकान बनी रहेगी। रिकवरी से आगे आर्थिक कायाकल्प की तरफ देखें तो इसके लिए भारत के कॉर्पोरेट जगत एवं छोटे उद्यमों का भरोसा एवं गतिशीलता बहाल करना अहम है। इस संदर्भ में सबसे अहम क्षेत्र विनिर्माण है जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर हासिल करने में महत्त्वपूर्ण होगा। इस लेख में उदारीकरण के बाद के दौर में विनिर्माण वृद्धि के प्रदर्शन से सबक लेने पर गौर किया जाएगा।

इस समझ की बुनियाद अर्थव्यवस्था के 27 क्षेत्रों में मूल्य-वद्र्धित, सकल आउटपुट, पूंजी भंडार, रोजगार और मध्यवर्ती इनपुट के तौर पर कच्चे माल, ऊर्जा एवं सेवाओं के इस्तेमाल संबंधी सुसंगत आंकड़ों से बनती है। क्लेम्स के पास 1980-81 से लेकर 2017-18 की अवधि के आंकड़े उपलब्ध हैं।

कोविड महामारी से पहले के दशक को तुलना के लिए एक बेंचमार्क मानें और 1990-93 के असामान्य समय को गणना से बाहर रख दें तो 1993-94 से लेकर 2017-18 की अवधि के 25 वर्ष भी चार खंडों में बंट जाते हैं। भुगतान संकट से उबरने के बाद 1993-94 से लेकर 1996-97 तक का रिकवरी काल, 1997-98 से लेकर 2003-04 तक का सुस्ती का समय, 2004-05 से लेकर 2010-11 तक का तीव्र आर्थिक वृद्धि का काल और 2011-12 से लेकर 2017-18 तक का समय सुस्ती से भरपूर रहा। वर्ष 2018-19 और 2019-20 के बारे में विनिर्माण वृद्धि, निवेश, रोजगार एवं निर्यात पर उपलब्ध सीमित आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक सुस्ती का दौर कायम रहा है।

इन आंकड़ों से निकलने वाले महत्त्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं...


संकट के बाद की रिकवरी और 2004 से शुरू हुई आर्थिक तेजी के दौर में सापेक्षिक रूप से निर्यात वृद्धि की ऊंची दरें और मूल्य-वद्र्धन के लिए औसत से अधिक निवेश नजर आता है।

सुस्ती के दौर में धीमी निर्यात वृद्धि विनिर्माण में वैश्विक कारोबार में आई सुस्ती के अनुरूप कम होना लाजिमी है।

उदारीकरण के बाद के दौर में विनिर्माण रोजगार में वृद्धि उदारीकरण-पूर्व के दशक से नीचे रही है और वर्ष 2011-12 से शुरू हुए सुस्ती के मौजूदा दौर में औसत से काफी कम हो गया है।

उदारीकरण के पहले कुल घटक उत्पादकता वृद्धि खराब थी लेकिन 2004-05 से शुरू हुए बूम के बाद से स्थिति सुधरी है और उसके बाद की सुस्ती में भी यह सिलसिला कायम है।

मौजूदा सुस्ती निवेश अनुपात, निर्यात वृद्धि एवं रोजगार वृद्धि में तीव्र गिरावट को दर्शाती है। बाहर की तरफ झुकाव पर शुल्क संरक्षण देने की बढ़ती प्रवृत्ति हावी होती नजर आई है। साफ है कि सरकार के महत्त्वाकांक्षी मेक इन इंडिया अभियान से कोई फायदा नहीं हुआ है।

उदारीकरण के बाद के 25 में से 12 वर्षों में  शुद्ध मूल्य-वद्र्धित वृद्धि दर उदारीकरण-पूर्व के औसत से अधिक रही है। इन 12 में से आठ वर्षों में केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली जबकि तीन वर्षों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली और एक साल संयुक्त मोर्चा की सरकार रही। इस पहलू की व्याख्या मैं हरेक पाठक के अपने राजनीतिक झुकावों पर छोड़ता हूं।

विनिर्माण में निवेश अनुपात को मांग से प्रेरित वृद्धि के निहितार्थ के तौर पर देखा जाता है। निजी उपभोग एवं निवेश मांग को वृद्धि के उत्पाद माना जाता है। मांग को प्रभावित करने वाले एवं वृद्धि से सीधे तौर पर न जुड़े दो प्रमुख स्वायत्त घटक निर्यात एवं सार्वजनिक खरीद (मसलन निर्माण एवं रक्षा क्षेत्र) हैं। विनिर्माण में निर्यात वृद्धि होने से आर्थिक वृद्धि की बहाली हो सकती है जो निवेश प्रचुरता बढ़ाकर गुणक प्रभाव पैदा कर सकती है। इस संबंध का बेहतरीन ढंग से लाभ कैसे उठाया जा सकता है?

कभी-कभी यह दलील दी जाती है कि भारत को निर्यात एवं वृद्धि बढ़ाने के लिए एक आक्रामक विनिमय दर रणनीति अपनाने की जरूरत है। वर्ष 1993-94 से लेकर 2017-18 के दौरान नॉमिनल रुपया-डॉलर विनिमय दर दोगुनी हो गई लेकिन थोक-मूल्य सूचकांक तिगुने से भी ऊपर चढ़ गया। साझेदार देशों में मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो निर्यात-भारित वास्तविक विनिमय दर 24 फीसदी बढ़ गई जिससे कीमत के लिहाज से निर्यात कम प्रतिस्पद्र्धी हो गया। इन 25 वर्षों में  वास्तविक विनिमय दर में बढ़त की प्रवृत्ति देखी गई है। इसके बावजूद तेजी के काल में विनिर्माण निर्यात में वृद्धि उदारीकरण-पूर्व के बेंचमार्क से काफी ऊपर रही।

असली अर्थव्यवस्था खासकर निर्यात क्षेत्रों की जरूरतों को रेखांकित करने के लिए विनिमय दर में बदलाव को प्रभावित करने में विदेशी पूंजी आवक की बढ़ती अहमियत से समस्या हो सकती है। इन 25 वर्षों में से 20 साल  विदेशी पूंजी आवक चालू खाता घाटे से अधिक रही है। इसके अलावा निर्यात पर असर के सीमित साक्ष्य के संदर्भ में निर्यात प्रोत्साहन के लिए विनिमय दर का क्रमिक प्रबंधन कर पाना मुश्किल है। वर्ष 1991-92 और 1992-93 के संकटपूर्ण दौर में हुए अवमूल्यन से निर्यात को बढ़ावा मिला था लेकिन यह काम लगातार नहीं किया जा सकता है और उसके प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियां भी होती हैं।

विनिर्माताओं का निर्यात काफी हद तक उत्पाद विशिष्टता एवं गुणवत्ता की प्रतिस्पद्र्धात्मकता पर निर्भर करता है, बशर्ते कीमतें वैश्विक औसत के आसपास एक स्वीकार्य दायरे में हों। इसके अलावा विनिर्माण निर्यात सिर्फ आज की प्रतिस्पद्र्धा पर निर्भर नहीं हो सकता है। उन्हें कीमत एवं उत्पाद विशिष्टता के संदर्भ में प्रतिस्पद्र्धियों द्वारा तय मानकों से तालमेल बिठाने के लिए तकनीकी गतिशीलता की भी जरूरत है। हमें न सिर्फ नए क्षेत्रों बल्कि दवा, हीरा कटाई एवं सॉफ्टवेयर सेवा निर्यात जैसे तुलनात्मक बढ़त वाले क्षेत्रों में भी इसकी जरूरत है। तकनीकी गतिशीलता के बगैर आज की बढ़त बहुत जल्द गायब हो जाएगी।

निर्यात अभिमुखीकरण का एक अहम आयाम उत्पादों के निर्यात से आगे इन निर्यात उत्पादों के विनिर्मित इनपुट के उत्पादन में वृद्धि में बैकवर्ड इंटीग्रेशन की तरफ बढऩे से जुड़ा है। इस रणनीति को निर्यात-केंद्रित बैकवर्ड इंटीग्रेशन का नाम दिया जा सकता है जिसे पूर्वी एशिया के तमाम देशों ने अपनाया है।

हमारे कॉर्पोरेट क्षेत्र ने लागत में कटौती करने वाले नवाचारों एवं रिवर्स इंजीनियरिंग में कुछ क्षमता तैयार की है लेकिन वैश्विक बाजार में बढ़ती हिस्सेदारी लेने के लिए भारतीय उद्योग को नए उत्पादों, प्रक्रियाओं एवं कारोबारी मॉडल के साथ सामने आना चाहिए ताकि अपने नवाचारी प्रतिस्पद्र्धियों से तालमेल बिठाया जा सके। इसके लिए बाजार की मांगों से संचालित कॉर्पोरेट शोध केंद्रों में अधिक निवेश करना होगा।

यह दलील दी जा सकती है कि कंपनियों की दीर्घावधि प्रतिबद्धताओं के लिए जरूरी तकनीकी गतिशीलता तब तक मुमकिन नहीं है जब तक नीतिगत मसौदा मुक्त बाजार ताकतों पर निर्भर हो। विनिर्माण में वैश्विक बाजार के बड़े खिलाड़ी बने चीन, जापान एवं कोरिया संभावित विजेताओं की पहचान कर उन्हें समर्थन देने की नीति पर चलते हैं। इस तरह हम मुश्किल में हैं क्योंकि भारत में कारोबार को राजनीतिक प्रश्रय प्रदर्शन की संभावना पर नहीं बल्कि किसी नेता या दल को पैसे से मदद करने की मंशा एवं मीडिया समर्थन पर निर्भर करता है। भारत में सियासी विवेकाधिकार से बचना और कुछ फर्मों के बजाय सबको निर्यात एवं निर्यात-संबद्ध बैकवर्ड इंटीग्रेशन के लिए प्रोत्साहन देना बेहतर हो सकता है। बाजार में अपनी क्षमता साबित कर सकने वाले स्टार्टअप के लिए यह खास तौर पर स्वागत-योग्य होगा। दुर्भाग्य से हाल में घोषित उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजना ऐसा कुछ नहीं करती है।

सारांशत: उच्च वृद्धि को बढ़ाने के लिए हमें अपने विनिर्माण क्षेत्र में सभी स्तरों पर निर्यात-उन्मुख बैकवर्ड इंटीग्रेशन और तकनीकी सक्षमता का प्रोत्साहन देने वाली नीतियों की जरूरत है। यह बात छोटी से लेकर बड़ी इकाई एवं स्थापित कंपनियों से लेकर स्टार्टअप तक के लिए सही है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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