मिहिर पंड्या
बीते साल के लम्बे लॉकडाउन की सबसे कठिन स्मृतियों में दर्ज दृश्य वो हैं, जो मार्च के अंतिम हफ्ते और अप्रेल के शुरुआती दिनों में हमने न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया के जरिये हमारे महानगरों की सड़कों पर घटते देखे। हमने देखा कि लाखों लोग परिवार, माल-असबाब सहित सड़कों पर पैदल नंगे पांव ही चले जा रहे हैं। कहां जा रहे हैं, पूछने पर सबका जवाब यही था - 'घर'। हालांकि किसी के लिए वो घर हजार किलोमीटर दूर था, किसी के लिए दो हजार। इन असंभव दूरियों के होते भी वो सड़कों पर पैदल ही निकल पड़े थे। यह सभी हमारे शहरों के बाशिंदे थे। इन्हीं से हमारे शहरों का चक्का घूमता है। माइग्रेशन एक्सपर्ट एवं आइआइएम अहमदाबाद में प्रोफेसर चिन्मय तुंबे की किताब 'इंडिया मूविंग' के अनुसार हिन्दुस्तान में तकरीबन 10 करोड़ आबादी ऐसी है जो काम, नौकरी की तलाश में अस्थायी विस्थापन के तहत कहीं बाहर है। घर से दूर। यही वो लोग थे जो शहर की बहुमत आबादी होते हुए भी हमारी नजरों से ओझल थे, और लॉकडाउन ने उन्हें अचानक हमारी आंखों के सामने खड़ा कर दिया।
प्रतीक वत्स की इसी हफ्ते नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म 'ईब आले ऊ' शहर के इसी अदृश्य हिस्से के बारे में है। इस अजीबोगरीब नाम की फिल्म को देखकर आप चकित होंगे, क्योंकि यह बहुत अलग चलन, अलग स्वाद की फिल्म है। इसका नायक अंजनी दिल्ली में नया आया माइग्रेंट वर्कर है, जिसे राजधानी के सत्ताकेन्द्र लुटियंस दिल्ली में बंदर भगाने की नौकरी मिली है। चौंकिए नहीं, दिल्ली में ऐसी भी नौकरियां होती हैं, जहां इंसान के श्रम की कीमत बंदरों की उछलकूद से भी सस्ती जान पड़ती है। यह फिल्म बोलकर बहुत नहीं बताती, लोकेशन और किरदारों की पहचान में छिपी है इसकी भाषा। यह फिल्म इस विडम्बना को दिखाती है कि कैसे लाल पत्थर के भव्य सत्ताकेन्द्रों के सामने पेट भर खाने और जिंदगी जीने लायक पैसा हासिल करने की जद्दोजहद में इंसान का बंदर में बदल जाना ही उसकी नियति बना दिया गया है। यह फिल्म एक मानवीय दस्तावेज है, पर साथ ही एक चेतावनी भी कि हम यह सब रोकें। यह उन किरदारों की कहानी है जिनके पास विकल्प खत्म होते जा रहे हैं। और जब व्यवस्था इंसान के पास सम्मान से जीने का कोई रास्ता नहीं छोड़ती, वहीं से हिंसा जन्म लेती है।
(लेखक सिनेमा-साहित्य पर लेखन करते हैं और दिल्ली विवि में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
0 comments:
Post a Comment