देवांशु दत्ता
मैंने चेचक, हैजा, पोलियो, टाइफॉयड, पीत ज्वर, रुबेला और क्षयरोग के सारे टीके लगवाए हुए हैं। चेचक के टीके का निशान नजर आ जाता था। ऐसे ही 'टीएबीसी' टीका भी था जो हैजा और टाइफॉयड से सुरक्षा देता था।
टीएबीसी टीका लगवाने का अनुभव बेहद पीड़ादायक होता था। जिस बांह में वह टीका लगा था, ऐसा लगता था मानो उसमें दो दिनों तक नाखून गड़ाए हुए हों। दोनों टीके स्कूलों में मुफ्त लगाए जाते थे। वह टीका लगभग जबरदस्ती लगाए जाते थे, कम-से-कम हमें तो यही लगता था। नगर निकाय स्कूलों में अपने दस्ते भेजता था, बच्चों के मां-बाप एक सहमति पत्र पर दस्तखत कर देते थे और फिर हमें कतार में खड़े होकर अपनी 'सजा' का इंतजार करना पड़ता था।
इस कवायद ने असर भी दिखाया। आज 40 साल से अधिक उम्र वाले तमाम भारतीयों की बांह पर चेचक के टीके का एक निशान जरूर दिखता है। उनसे पहले वाली पीढ़ी में कई ऐसे लोग थे जिनके चेहरे पर चेचक के दाग होते थे। लेकिन 40 साल से कम उम्र वाले भारतीयों के चेहरे से वह दाग नदारद हो चुका है। दरअसल 1980 का साल आने तक भारत से चेचक उन्मूलन किया जा चुका था। पोलियो भी एक बीमारी के तौर पर अपना वजूद गंवाने के कगार पर है। टीएबीसी टीका अब अनिवार्य नहीं है लेकिन अभी यह उपलब्ध है। अगर आप कुछ खास इलाकों में जाना चाहते हैं तो यह टीका लगवाना समझदारी है।
इन टीकों की आपूर्ति सरकार मुफ्त करती थी। इस नीतिगत निर्णय के पीछे की सोच आज के दौर में भी मौजूं है। आपकी विचारधारा जो भी हो, इस पर अधिक सोचने की जरूरत नहीं है। महामारी वाली बीमारियों से भारी आर्थिक नुकसान होते हैं। टीकों के जरिये सामुदायिक प्रतिरोधकता विकसित होने की सकारात्मक बाह्यताएं स्वास्थ्य मंत्रालय का कोटा पूरा करने की जरूरतों से इतर भी हैं। इसकी वजह यह है कि मुफ्त टीका मुहैया कराने की लागत बेलगाम महामारी से निपटने पर आने वाली लागत से काफी कम है।
बीमार लोग काम नहीं कर सकते हैं, वे तो संसाधनों पर आश्रित होते हैं, दूसरों को संक्रमित करते हैं और लॉकडाउन लगाकर संक्रमण पर काबू पाने की कोशिश होने पर बड़े गतिरोध खड़े होते हैं। अगर श्रमशक्ति में भागीदार लोगों की मौत होती है तो भावी उत्पादकता भी चली जाती है। वर्ष 2020-21 में 2.1 करोड़ से अधिक वेतनभोगी कामगारों की नौकरियां चली गईं।
महामारी रोग विशेषज्ञ किसी संक्रमित व्यक्ति से अधिकतम लोगों को होने वाले संक्रमण की गणना के लिए 'आरओ अनुपात' का इस्तेमाल करते हैं। अगर आरओ 1 है तो इसका मतलब है कि एक संक्रमित व्यक्ति किसी एक शख्स को ही संक्रमित कर सकता है। वहीं आरओ अनुपात 1 से अधिक होना एक महामारी के संकेत देता है।
मार्गदर्शक नियम (1- 1/आरओ) संभावित संक्रमण के स्तर को दर्शाता है जो कि जरूरी सामुदायिक प्रतिरोधकता भी है। अगर कोविड-19 का आरओ 2 होता तो यह किसी हस्तक्षेप के अभाव में 50 फीसदी आबादी को संक्रमित कर चुकी होती। अगर आप 50 फीसदी से अधिक आबादी को टीका लगा देते हैं तो सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर ली जाती है। वहीं अगर महामारी का आरओ 3 है तो वह अधिक संक्रामक बीमारी होगी और फिर सामूहिक प्रतिरोधकता हासिल करने के लिए 67 फीसदी जनसंख्या का टीकाकरण करना पड़ेगा। हमें नहीं मालूम कि कोविड-19 का आरओ अनुपात क्या है? भारत में 1.1 करोड़ अधिक लोग इस वायरस से संक्रमित पाए गए हैं जबकि 1.58 लाख लोगों की मौत हो चुकी है। वहीं सीरो सर्वेक्षण कहीं अधिक संक्रमण का अंदेशा देता है। दिसंबर 2020- जनवरी 2021 के दौरान हुए तीसरे सीरो सर्वेक्षण में पाया गया था कि 21 फीसदी वयस्कों एवं 17 साल से कम उम्र के 25 फीसदी लोगों में ऐंटीबॉडी मौजूद हैं। इससे पता चलता है कि तमाम लोग कोरोनावायरस से इस तरह संक्रमित हुए कि उसके लक्षण भी नहीं पता चल पाए या फिर मध्यम स्तर के संक्रमण का परीक्षण भी नहीं हुआ।
संभव है कि 60 करोड़ से 80 करोड़ भारतीयों को कोविड-19 टीका लगवाना पड़े। सटीक आंकड़ा चाहे जो हो, लेकिन मुफ्त में टीका मुहैया कराने की नीतिगत दलील में काफी दम है। यह सरकार की कोई सदाशयता नहीं होगी, यह एक सूझबूझ वाली नीति है। अधिकांश देशों ने किसी हंगामे के बगैर अपने नागरिकों को ये टीके मुफ्त में ही उपलब्ध करवाए हैं। यूरोपीय संघ के सभी देश, अमेरिका, चीन एवं ब्राजील में नागरिकों को मुफ्त टीका ही लगाया जा रहा है।
भारत में दोहरी मूल्य व्यवस्था है। नेताओं ने जनता का माई-बाप बनते हुए खूब प्रचार किया है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त टीका लगाया जा रहा है जबकि निजी अस्पतालों में इसके लिए 250 रुपये देना होगा। यह अलग बात है कि कई जगहों पर सरकारी प्रतिष्ठानों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति खराब है जिससे मजबूर होकर लोगों को निजी अस्पतालों का रुख करना पड़ता है। मेरी आवासीय कॉलोनी के सुरक्षागॉर्ड को पैसे देकर टीका लगवाना पड़ा है। इसी तरह ढाबों में काम करने वाले वेटरों को भी पैसे देने पड़े हैं। यह कोई दूरंदेशी वाली नीति नहीं है। कोविड टीका सबके लिए मुफ्त उपलब्ध कराया जाना चाहिए। कोविड महामारी से जंग के लिए बनाए गए पीएम केयर्स फंड में बड़ी रकम जमा हुई है। टीकाकरण का काम इस श्रेणी में आता है।
टीका लगाने के लिए आधार कार्ड या मतदाता पहचान पत्र की मांग करना बेवकूफी है। अगर सड़क पर जीवन बिताने वाले किसी शख्स के पास कोई भी सरकारी कागज नहीं है तो भी उसे टीका लगाना जाना चाहिए। यह कोई गैस सिलिंडर नहीं है। मुफ्त होने से कोई टीके को कई बार नहीं लगवाएगा। पैसे न चुका पाने और किसी कारणवश अस्पताल न जा पाने वाले सारे लोग असुरक्षित हैं और उन्हें जोखिम बना रहेगा। ऐसे असुरक्षित लोगों की अधिक संख्या होने पर पूरे देश के लिए आर्थिक बहाली के अवसर बाधित होंगे।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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