आकाश प्रकाश
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्ष 2014 में पहली बार सत्ता में आए तो कई बाजार प्रतिभागी इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि भारत के लिए यह समय 'थैचर काल' जैसा साबित होगा। उन्हें लगा था कि नीतियों के उदारीकरण के जरिये वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा, अर्थव्यवस्था में सरकारी संलिप्तता कम होगी और अधिक टिकाऊ नीतिगत मसौदा आएगा। यह कहा जाना चाहिए कि अधिकतर निवेशकों को निराशा ही हुई है क्योंकि भारत में वृद्धि का पुनर्निर्माण लोगों की सोच से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण रहा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ वर्षों में निराश किया है और अपनी वृद्धि की प्रबलता को हासिल करने में नाकाम रहा है। सरकार भी लोगों की अपेक्षाओं के हिसाब से उतनी कारोबार-समर्थक नहीं रही है। कंपनियों की भागीदारी कभी भी बहुत अधिक नहीं रही है और निजी निवेश एवं लाभप्रदता आज से कम कभी नहीं रही है।
हालांकि पिछले छह महीनों में सरकार के रवैये में आमूलचूल बदलाव देखने को मिला है। इसका सबसे सटीक उदाहरण 2021 में पेश आम बजट है। सरकार ने आर्थिक वृद्धि की प्राथमिकता को अपनी शीर्ष प्राथमिकता के रूप में फिर से स्थापित किया है और निजी क्षेत्र को वृद्धि एजेंडा के केंद्र में रखने की जरूरत स्वीकार की है।
अपनी चर्चा हम बजट से ही शुरू करते हैं। भारी लालच, राजकोषीय जरूरत एवं वैश्विक नजीरें होने के बावजूद सरकार ने करों की दरें नहीं बढ़ाई। संदेश एकदम साफ है: हमारी कर दरें पहले ही काफी ऊंची हैं और हम उन्हीं 2 करोड़ करदाताओं को बार-बार निचोड़कर अधिक पैसे नहीं जुटा सकते हैं। हमें करदाताओं का आधार बढ़ाने की जरूरत है और कर-जीडीपी अनुपात बढ़ाने का इकलौता तरीका वृद्धि ही है। ऐसी स्थिति में असली मंत्र कर दरों को कम करना और उन्हें सरल बनाना ही है। बाजार के नजरिये से यह एक ताजगी भरा बदलाव था क्योंकि वे कर दरों में बढ़ोतरी या फिर एक अधिभार की उम्मीद कर रहे थे। जो सरकार राजकोषीय स्तर पर मुश्किल में होने पर भी वर्षों से लाभांश पर कर वसूलती रही है, पूंजीगत लाभ कर को फिर से लागू किया है और संपन्न लोगों पर कई तरह के अधिभार लगाती रही है, उसके नजरिये में यह एक बदलाव को दर्शाता है। कम कराधान से निवेश को प्रोत्साहन मिलता है और जोखिम लेने एवं उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलता है। अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए इस वक्त हमें ठीक उसी चीज की जरूरत है।
यह एक वैश्विक संदर्भ में पूंजी पर तुलनात्मक प्रतिफल को भी बेहतर करता है। कृषि कानूनों पर जारी तनातनी के बीच सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की योजना यह दर्शाती है कि मोदी सरकार के वरिष्ठ नेता एवं अफसरशाह अब पूरी तरह निजीकरण के पक्ष में खड़े हो चुके हैं। कुछ मु_ी-भर क्षेत्रों को छोड़कर अर्थव्यवस्था के बाकी सभी क्षेत्रों से अलग होने की सरकार की मंशा को देखते हुए सरकार का पूरा रवैया ही लगभग 180 डिग्री घूम चुका है। औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1956 के तहत सार्वजनिक क्षेत्र को हमारे आर्थिक विकास का वाहक माना जाता था। सरकार सैकड़ों उद्यमों के विनिवेश या विलय या बंद करने की प्रतिबद्धता जता रही है। यह रणनीतिक बिक्री को प्राथमिक मार्ग के तौर पर इस्तेमाल करने वाली है। इससे बड़े पैमाने पर संसाधन विमुक्त होंगे और अर्थव्यवस्था में पूंजी की उत्पादकता सुधरेगी। परिसंपत्तियों का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा और निजी क्षेत्र के लिए बड़ी संभावनाएं पैदा होंगी। लेकिन इस अमल में लाना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी और बाजार की आशंका को आसानी से समझा जा सकता है। इसके लिए नेताओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, उन्होंने पहले ही अपना काम कर दिया है। अब इस पर खरा उतरने का दायित्व अफसरशाही का है। राजकोषीय अंकगणित निश्चित रूप से इसकी मांग करता है।
औद्योगिक नीति में एक बदलाव भी है। हमने हमेशा ही बड़े पैमाने पर जाने को हतोत्साहित किया है। पहली बार हम अपनी कंपनियों में से वैश्विक स्तर के संगठन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजनाएं अच्छी तरह तैयार नजर आती हैं (खासकर मोबाइल फोन विनिर्माण में) और इनसे कुछ खास क्षेत्रों में भारत प्रतिस्पद्र्धा करने लायक वैश्विक क्षमता विकसित कर पाएगा। श्रम कानूनों में किए गए बदलाव और नए विनिर्मित उत्पादों पर कॉर्पोरेट कर की दर को घटाकर 15 फीसदी कर देने से भारत को वैश्विक विनिर्माण में एक हिस्सा हासिल करने का एक मौका मिलेगा। यह भी मुमकिन है कि राज्यों के स्तर पर समस्याएं बनी रहने से ऐसा न हो पाए लेकिन यह भारत को एक विनिर्माण केंद्र बनाने का दशकों में मिला सबसे अच्छा मौका है। इसके लिए जरूरी परिवेश- चाहे वह भू-राजनीति हो या फिर आपूर्ति शृंखला में लचीलेपन की जरूरत और विकल्पों की तलाश हो, हालात बेहद अनुकूल हैं।
दीर्घावधि विदेशी पूंजी के बारे में नजरिया भी समान रूप से मददगार है। तमाम पेंशन फंड एवं सॉवरिन संपत्ति फंड भारत सरकार के कदमों को काफी प्रशंसा से देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि सरकार उनकी चिंताओं को बखूबी दूर कर रही है और उनकी बात को गौर से सुन रही है। ढांचागत क्षेत्र में जहां तक हो सके, उतना अधिक दीर्घावधि विदेशी पूंजी आकर्षित करने का सरकार का स्पष्ट एजेंडा है। वही संस्थान रवैये में आए बदलाव पर भी टिप्पणी करते हैं। उनका कहना है कि अब सरकार का दंभी रवैया अलविदा कह चुका है और उसकी जगह भागीदारी वाली मनोदशा ने ले ली है।
प्रधानमंत्री मोदी ने आर्थिक हिस्सेदारी बढ़ाने की जरूरत और आर्थिक गतिविधियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर बल देते हुए संसद में जो भाषण दिया, वह ताजगी से भरपूर था और दर्शाता है कि सरकार ने कारोबारी जगत का सहयोगी दिखने को लेकर अपना संकोच पूरी तरह त्याग दिया है। यह एक बेहद जरूरी बदलाव है और निजी पूंजी को आकर्षित करने का एक बड़ा संकेत है। कॉर्पोरेट इंडिया की जरूरी साफ-सफाई एवं पुनर्गठन की प्रक्रिया पूरी होने के करीब आ रही है। अधिकांश कमजोर फर्में एवं उनके बहीखाते अब अप्रासंगिक हो चुके हैं।
कई साल में पहली बार मैं यह देख रहा हूं कि देश के बड़े कारोबारी घराने नई क्षमताओं के सृजन की बात कर रहे हैं। आज उनकी सोच छह महीने पहले की भी तुलना में काफी अलग हो चुकी है। हाल के नतीजे दिखाते भी हैं कि लाभपरकता में सुधार आने लगा है।
भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है जिन्होंने कोविड-19 महामारी एवं वैश्विक मंदी की चिंताओं के बीच असली संरचनात्मक सुधार लागू किए हैं। कृषि कानून, श्रम कानून, निजीकरण, पीएलआई योजनाएं, बढ़ी उधारी को राज्य-स्तरीय सुधारों से जोडऩे जैसे कदम बेहद अहम रहे हैं।
आने वाले एक-डेढ़ साल में भारतीय स्टार्टअप जगत की यूनिकॉर्न कही जाने वाली 20-25 बड़ी फर्में बाजार में सूचीबद्ध होने की कोशिश करेंगी। यह नए बाध्यकारी कारोबारी मॉडल, वेंचर पूंजी की ताकत और देश में उद्यमशीलता की विविधता को दर्शाएगा। ये सारे कदम मायने रखते हैं क्योंकि इससे भारत को महामारी के बाद लगातार आर्थिक प्रगति के पथ पर तेजी से बढऩे की ताकत मिलेगी। इन कदमों के साथ ही सोच में आए बदलाव से भी पूंजी की उत्पादकता में सुधार आएगा। बेहतर नतीजे देने वाली तीव्र वृद्धि से पीई निवेश कई गुना बढ़ जाएगा।
वैश्विक स्तर पर प्रवाह, जोखिम उठाने की प्रवृत्ति में बदलाव और घबराहट एवं प्रचुरता के बीच कंपन की वजह से आए अपरिहार्य सुधारों पर गौर करना लाजिमी है। इस तरह के बदलाव में भारत को भी जगह दी जानी चाहिए। हमारे पास आने वाले वर्षों में बाजार, कंपनियों की आय और अर्थव्यवस्था की असली खुराक है। सतत वृद्धि से वंचित रहने वाली दुनिया में इससे दूरी बरतने के अनुपातहीन इनाम ही मिलेंगे।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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