टी. एन. नाइनन
बीते एक दशक में बांग्लादेश ने दक्षिण एशिया में बेहतरीन आर्थिक प्रदर्शन करने वाले देश के रूप में अपनी पहचान मजबूत की है। उसकी प्रतिव्यक्ति आय और आर्थिक वृद्धि दर भारत से तेज है, असमानता भारत से कम है और कुछ सामाजिक संकेतकों पर उसका प्रदर्शन हमसे बेहतर है। बतौर आजाद मुल्क उसके पास स्वर्ण जयंती का जश्न मनाने की पर्याप्त वजह है। सन 1971 से अबतक वहां जो बदलाव आया है उसे साफ महसूस किया जा सकता है। आजादी के बाद आरंभिक वर्षों में उसे देश के जीडीपी के सातवें हिस्से के बराबर विदेशी सहायता मिलती थी। अब यह दो फीसदी से भी कम रह गई है। अब वह किसिंजर के शब्दों वाला 'बास्केट केस' (कमजोर आर्थिक स्थिति वाला देश जो अपने कर्ज चुकाने की स्थिति में भी न हो) कतई नहीं रह गया है।
राजकोषीय घाटा, वाणिज्यिक व्यापार संतुलन और रोजगार (खासकर महिलाओं के मामले में) के क्षेत्र में बांग्लादेश भारत से बेहतर स्थिति में है। जीडीपी की तुलना में सार्वजनिक ऋण और निवेश के अनुपातों में भी वह भारत से अच्छी हालत में है। उसके जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी भी भारत से अधिक है। वर्ष 2011 से 2019 के बीच उसका वाणिज्यिक निर्यात 8.6 फीसदी की दर से बढ़ा जबकि भारत का महज 0.9 फीसदी की दर से।
बीते पांच दशक में बांग्लादेश का प्रदर्शन भारत से बेहतर तो रहा ही, उसने पाकिस्तान को भी हर मोर्चे पर बुरी तरह पीछे छोड़ दिया। फिर चाहे मामला जनांकीय (पाकिस्तान की आबादी अब काफी अधिक है) हो, आर्थिक हो, साामजिक संकेतकों का हो या लोकतांत्रिक मूल्यों का, बांग्लादेश हर क्षेत्र में आगे है। उदाहरण के लिए शिशु मृत्यु दर की बात करें तो पाकिस्तान के आंकड़े, बांग्लादेश से दोगुना हैं। सन 1971 में बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के समय आरोप यही था कि पंजाब के दबदबे वाले पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान को एक आंतरिक उपनिवेश बना दिया था, यह बात आगे चलकर प्रमाणित हुई।
अब बांग्लादेश के सामने नई चुनौतियां हैं। उसका दर्जा अल्पविकसित देश से विकासशील देश का हो चुका है और ऐसे में उसे व्यापार और शुल्क के क्षेत्र में मिल रहे लाभ गंवाने पड़ सकते हैं। पहली श्रेणी में उसे कई अमीर देशों के बाजार में शुल्क मुक्त और कोटा मुक्त पहुंच मिलती है। इनमें यूरोपीय संघ महत्त्वपूर्ण है। अब वह बांग्लादेश पर विकासशील देशों वाले मानक लागू करने की प्रक्रिया में है।
यानी बांग्लादेश से यूरोपीय संघ को होने वाले निर्यात पर नए शुल्क तो लगेंगे ही निर्यात में प्राथमिकता दिलाने वाले जनरलाज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंसेज (जीएसपी) में उसकी पहुंच भी सीमित होगी। बांग्लादेश के निर्यात का 60 फीसदी यूरोपीय संघ को जाता है और उसके कुल निर्यात में 80 फीसदी से अधिक कपड़ा और वस्त्र हैं। एक बाजार-एक उत्पाद की इस विशेषज्ञता के अपने जोखिम हैं और वृद्धि बरकरार रखने के लिए उसे यह निर्भरता कम करनी होगी।
मानव विकास सूचकांकों की बात करें तो उसने भारत को कई अहम सूचकांकों में पछाड़ा है लेकिन मामला एकतरफा नहीं है। कुछ क्षेत्रों में अंतर बहुत कम है और दोनों का प्रदर्शन वैश्विक औसत से बेहतर रहा है। भारत विद्यालयीन शिक्षा जैसे क्षेत्रों में थोड़ा बेहतर है जबकि स्वास्थ्य संकेतकों पर बांग्लादेश का प्रदर्शन अच्छा है। हालांकि असमानता के क्षेत्र में भारत की स्थिति खराब है लेकिन समस्त मानव विकास सूचकांक में भारत बेहतर है। परंतु आय संबंधी कारक को हटा दें तो बांग्लादेश बेहतर हो जाएगा। यदि आय वृद्धि के क्षेत्र में बांग्लादेश भारत को पीछे छोड़ता है तो वह समग्र मानव विकास सूचकांक पर भारत से आगे निकल जाएगा।
प्रवासियों का एक विवादित मुद्दा रह जाता है। भारत की दलील है कि बांग्लादेश ने अपने धार्मिक अल्पसंख्यकों (ज्यादातर हिंदुओं) के साथ उचित व्यवहार नहीं किया और वहां गैर मुस्लिमों की आबादी सन 1951 के 23.2 फीसदी से घटकर 2011 में 9.6 फीसदी रह गई। एक आरोप यह भी है कि बांग्लादेश के मुस्लिम भारत आते रहे हैं जिससे पश्चिम बंगाल और असम जैसे सीमावर्ती राज्यों की आबादी में मुस्लिमों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है। पश्चिम बंगाल में 27 फीसदी और असम में करीब 38 फीसदी मुसलमान हैं।
परंतु दोनों आंकड़ों में विरोधाभास है। यदि हिंदुओं के बाहर जाने के कारण बांग्लादेश की आबादी में उनकी हिस्सेदारी कम हुई है तो ऐसा नहीं हो सकता कि मुस्लिमों के भारत में आने से सीमा के इस पार आबादी का धार्मिक मिश्रण इस प्रकार बदले। खासतौर पर इसलिए कि पश्चिम बंगाल और असम में आबादी की वृद्धि राष्ट्रीय औसत से कम रही है। सीमा के दोनों ओर जनांकीय मिश्रण में बदलाव से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन इसे बेहतर या अधिक संपूर्णता से स्पष्ट करना जरूरी है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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