राजेंद्र बोड़ा (वरिष्ठ पत्रकार)
कुछ ऐतिहासिक घटनाएं ऐसी होती हैं जिनका बार-बार स्मरण करना उस राष्ट्र के लिए आवश्यक होता है जो अपने पुरातन वैभव और आत्मविश्वास को फिर से पाने का प्रयत्न कर रहा होता है। भारत जैसे बेशुमार विभिन्नताओं वाले देश में एकता के सूत्र में बांधे रखने के लिए भी ऐसे स्मरण जरूरी होते हैं। ऐसा ही एक स्मरण है महात्मा गांधी के 'दांडी मार्च' का। गांधी के नेतृत्व में यह वह मार्च था जिसने यह साबित कर दिया कि भारत के लोग जब करवट लेते हैं तो उससे ब्रितानवी साम्राज्यवाद भी हिल उठता है। गांधी के इस मार्च ने देश के स्वाधीनता संग्राम में आत्मविश्वास की एक नई ऊर्जा फूंकी। हथियारों के बल पर होने वाली क्रांतियों के विपरीत गांधी ने सत्य और अहिंसा के बल पर एक ऐसी क्रांति कर दिखाई जिसका यश आज भी दुनिया भर में गाया जाता है।
भारत सरकार अगले वर्ष स्वतन्त्रता के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आजादी का 'अमृत महोत्सव' आयोजित कर रही है। वर्ष 2022 के स्वतन्त्रता दिवस से 75 सप्ताह पहले इन कार्यक्रमों का आरंभ 12 मार्च 2021 से हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में साबरमती आश्रम से इन आयोजनों का शुभारंभ करेंगे जो 5 अप्रेल तक चलेंगे। दांडी यात्रा महात्मा गांधी का एक अनोखा प्रयोग थी। उन्होंने 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से दांडी मार्च शुरू किया और 25 दिन बाद 241 मील की दूरी तय कर 5 अप्रेल को वे दांडी पहुंचे। अगले दिन यानी 6 मार्च 1930 को उन्होंने नमक बनाकर ब्रितानवी कानून तोड़ कर ब्रितानवी साम्राज्यवादी सत्ता को सीधी चुनौती दी।
अंग्रेजी शासन ने जीवन के लिए जरूरी चीज नमक के उत्पादन और उसकी बिक्री पर भारी कर लगा दिया था। इसके विरोध में गांधी ने यह अहिंसक आंदोलन छेड़ा। एक तरह से यह भारत के नागरिकों की ब्रितानवी हुकूमत के खिलाफ एक हुंकार थी। गांधी के साथ उस मार्च में शामिल सत्याग्रहियों ने अंग्रेजों की पुलिस की लाठियां खाईं मगर हार नहीं मानी। वास्तव में यह आंदोलन पूरे एक साल तक चला और 1931 को गांधी-इरविन के बीच हुए समझौते से खत्म हुआ। इसी से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई। इस आंदोलन ने पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक जनसंघर्ष को जन्म दिया। आशा की जानी
चाहिए कि ये सब आयोजन 'दांडी मार्च' की स्मृति को जगा कर महात्मा गांधी की वह राह फिर दिखाएंगे जिस पर चल कर दुनिया की तमाम अच्छाइयों का अपनाया जा सकता है और समाज में असमानता और ऊंच-नीच के भेद को मिटाया जा सकता है। यह आज भी उतना ही जरूरी है जितना पिछली सदी के पूर्वार्ध में था। महात्मा गांधी लोगों के दिलों को जोडऩा चाहते थे जिसके लिए वे जिये और मरे। दांडी कूच के समय हिंदू-मुस्लिम विभेद की दीवारें खड़ी होने लगी थीं। दांडी यात्रा उस दौर में हिंदू-मुस्लिम एकता की भी प्रतीक है। दांडी तट पर इस एकता की मिसाल 'सैफी विला' अब राष्ट्रीय धरोहर है। गांधी नमक कानून तोडऩे के लिए इसी घर से रवाना हुए थे।
दांडी मार्च का प्रतीकात्मक आयोजन पहली बार नहीं हो रहा है। पहले भी राजनेता और सामान्य जन गांधी के प्रति अपनी निष्ठा जताते हुए ऐसी यात्राएं करते रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा गांधी के दांडी मार्च की स्मृति को जगाना बताता है कि सत्य और अहिंसा के पुजारी की हर वर्ग के लिए प्रासंगिकता बनी हुई है। सीख लेने की बात यह है कि गांधी जो प्रयोग लोगों से चाहते थे उसे पहले खुद करके देखते थे। शायद हमारे राजनेता इस प्रतीकात्मक दांडी मार्च से यह सीख लेंगे। गांधी के इस मार्च के कारण ही दांडी भारत के आधुनिक इतिहास का सबसे चर्चित गांव बना हुआ है। हालांकि दांडी अब बदल गया है, लेकिन पिछले नौ दशकों में दुनिया में उसकी एक ऐसी पहचान बनी है जो कभी धूमिल नहीं होती।
पहले एक कच्ची सड़क नवसारी को वहां से करीब बारह किलोमीटर दूर दांडी से जोड़ती थी। अब वह राष्ट्रीय राजमार्ग 228 है, संभवत: भारत का सबसे छोटा राजमार्ग। दांडी से थोड़ा पहले कराड़ी गांव है जहां फूस और पत्तों की बनी एक बेहद साधारण झोपड़ी है, जहां गांधी नमक कानून तोडऩे के बाद और अपनी गिरफ्तारी तक रहे। वह झोपड़ी अब भी वहां है, बस पत्ते हर साल बदल दिए जाते हैं। यहीं से आधी रात को गांधी की गिरफ्तारी हुई थी। फ्रंटियर मेल को दो स्टेशनों के बीच रोककर उन्हें उस पर चढ़ा दिया गया था ताकि उनकी गिरफ्तारी की खबर लोगों तक पहुंचने से पहले उनको गुजरात से बाहर लिवा ले जाया जाए। दांडी यात्रा के समय गांधी ने 11 नदियां पार की थीं। वे नदियां भी अब अतीत का हिस्सा बन गई हैं क्योंकि अतिक्रमण करने वालों का प्रकृति से कोई नाता नहीं होता। दांडी मार्च की स्मृति यदि हमें प्रकृति से खिलवाड़ न करने की सीख भी दे तो हम आने वाली पीढ़ी को एक अच्छा भविष्य भी दे सकेंगे।
सौजन्य - पत्रिका।
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