तंग नजर (जनसत्ता)

आमतौर पर स्त्रियों के पहनावे को लेकर पुरुषों की ओर से ऐसी प्रतिक्रियाएं सामने आती रही हैं, जिनसे लगता है कि हमारे समाज में व्यक्तिगत चुनाव को लेकर लोग आसानी से सहज नहीं हो पाते। हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले से खबर आई कि वहां की एक पंचायत ने लड़कियों के जींस पैंट पहनने पर पाबंदी और इसे नहीं मानने पर जुर्माना लगाने की घोषणा कर दी।

एक प्रगतिशील समाज में यह उम्मीद की जाती है कि लोग स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के मूल्यों को स्वीकार करें और उसे बढ़ावा दें। यह सांस्कृतिक विकास-यात्रा का हिस्सा होता है, जिसमें समाज का नेतृत्व करने वाले लोगों की भूमिका बेहद अहम होती है। मगर अफसोस की बात यह है कि कई बार खुद जनता की नुमाइंदगी करने वाले लोग ही ऐसे तंगनजरी के वाहक बन जाते हैं। कुछ दिन पहले उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने महिलाओं के आधुनिक शैली के जींस पैंट पहनने पर जिस तरह की अवांछित टिप्पणी की, वह न केवल उनके पद और मर्यादा के प्रतिकूल है, बल्कि किसी की व्यक्तिगत पसंद के अधिकार के खिलाफ भी है।

संभव है कि एक व्यक्ति अपनी विचार-प्रक्रिया के दायरे में किसी खास जीवनशैली और तयशुदा वेशभूषा को परंपरा और संस्कार का पर्याय मानता हो। लेकिन एक लोकतांत्रिक समाज का तकाजा यह है कि दूसरों की पसंद, सुविधा और चुनाव का भी सम्मान किया जाए। विविधता के प्रति सहज रह कर ही व्यक्ति लोकतांत्रिक, आधुनिक और प्रगतिशील हो सकता है।

यों भी किसी परिधान से विवेक, सोच-समझ, संवेदनशीलता आदि तय नहीं होते। जिस पहनावे को हम पारंपरिक और संस्कृति का उच्चतम मानक मान रहे होते हैं, उसे पहनने वाला व्यक्ति अपने व्यवहार में सामंती और पिछड़े मूल्यों का वाहक हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि मानवीय संवेदनाओं से लैस और बराबरी पर आधारित प्रगतिशील विचारों की जमीन मजबूत हो। कोई भी वस्त्र इसमें बाधक नहीं बनता।

आधुनिकता सोच, विवेक और व्यवहार में संवेदनशीलता पर निर्भर करती है, न कि पहनावे पर। समाज में प्रचलित परंपराओं में संकीर्णता पर आधारित चलन और बराबरी को बाधित करने वाली सोच को दूर करने की जिम्मेदारी नेताओं पर होती है। लेकिन जब खुद वे ही ऐसी संकीर्णताओं को बढ़ावा देने लगे तो सवाल उठाना लाजिमी है।

यों भी एक प्रगतिशील समाज समय के साथ चलता है, उसमें हो रहे बदलावों को अपनी जीवन-स्थितियों के अनुकूल पाता है तो उसे स्वीकार करता है और ऐसी स्थितियां बनाता है, जिसमें अलग-अलग लोग अपने चयन के प्रति सजग रहें तो दूसरों की पसंद को लेकर सहज भी रहें। लेकिन अपने सोचने-समझने के तौर-तरीके और सीमाओं की वजह से अन्य की पसंद को खारिज करना या फिर उसकी वजह से उसे कमतर बताना संकीर्णता का परिचायक है। आमतौर पर परंपरागत मानस में जीने वाले हमारे समाज में आधुनिक दौर के मुताबिक हो रहे बदलावों को लेकर लोग सहज नहीं रहते हैं और कई बार उसका विरोध भी करते हैं।

खासतौर पर स्त्रियों की जीवनशैली और पहनावे में कुछ नया देख कर बहुत सारे पुरुषों के भीतर नकारात्मक भाव आते हैं और इसके लिए वे स्त्रियों को परंपरा का पाठ भी पढ़ाने लगते हैं। जबकि वक्त के साथ चलने वाले पुरुषों के प्रति लोगों का नजरिया सामान्य और स्वीकार-भाव में रहता है। जाहिर है, ऐसा परंपरागत तौर पर चली आ रही पितृसत्तात्मक मानसिकता और उसमें स्त्रियों के प्रति संकीर्ण दृष्टि और कुंठाओं की वजह से होता है। जबकि होना यह चाहिए कि बदलती दुनिया में जरूरत के मुताबिक हर उस नए चलन के प्रति सहज रहा जाए, जो व्यक्ति और समाज को मानवीय और संवेदनशील बनाने में मददगार हो।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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