दस मार्च को हुए हादसे में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी के चोटिल होने की घटना को पार्टी ने राजनीतिक हमला बताया था। अब पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट के आधार पर चुनाव आयोग ने हमले के आरोपों को खारिज किया है। तृणमूल कांग्रेस की तरफ से घटना का राजनीतिक लाभ उठाने की पुरजोर कोशिशें जारी हैं। इस घटना ने जहां भाजपा को अपनी चुनावी रणनीति बदलने के लिये बाध्य किया है, वहीं टीएमसी को आक्रामक होने का मौका दे दिया है। पार्टी ने कुछ समय पहले चुनाव आयोग द्वारा डीजीपी का तबादला करने को हादसा होने की वजह तक बता दिया। आरोप लगाये कि आयोग केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहा है। चुनाव आयोग ने इसे संवैधानिक संस्था की छवि खराब करने की कोशिश बताते हुए निंदा की है। बहरहाल, नंदीग्राम की घटना हमला हो या हादसा, इस घटना के जरिये ममता बनर्जी ने अपनी जुझारू छवि को पुख्ता करने की कोशिश जरूर की है। वैसी ही छवि, जिसके बूते वे कम्युनिस्ट सरकार से जूझीं, कांग्रेस से निकलकर नई पार्टी बनायी और 34 साल से सत्ता पर काबिज कम्युनिस्ट सरकार को उखाड़कर दस साल पश्चिम बंगाल पर राज किया। नब्बे के दशक में सीपीएम के युवा नेता के द्वारा लाठी से हमला करने के बाद वह जैसे सिर पर पट्टी बांधकर सड़कों पर उतरी थीं, उस छवि ने उन्हें घर-घर लोकप्रिय बना दिया था। ऐसे ही कई आंदोलनों व विपक्षी दलों के कथित हमलों के बाद वह अपनी जुझारू छवि बनाने में कामयाब रही थी। इसी तरह सिंगुर में अधिग्रहण विरोधी आंदोलन और नंदीग्राम के संघर्ष में वह दमखम के साथ जूझती नजर आईं। बुधवार की चोट के बाद उन्होंने इस कवायद को दोहराने की कोशिश की, जिसने पश्चिम बंगाल की राजनीति की दिशा-दशा को किसी सीमा तक प्रभावित भी किया। घटना के बाद भाजपा दुविधा में नजर आई और उसके नेता तृणमूल कांग्रेस पर आक्रामक हमलों से बचते नजर आये।
निस्संदेह, भाजपा ने सुनियोजित तरीके से पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिदृश्य बदलने के लिये आक्रामक रणनीति का सहारा लिया। इस घटनाक्रम ने भाजपा को रणनीति में बदलाव के लिये बाध्य किया। यह चुनौती तृणमूल कांग्रेस से निकलकर भाजपा में शामिल व नंदीग्राम से ममता के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले शुभेंदु अधिकारी की भी है। यद्यपि राज्य भाजपा के नेता इसे ममता की नौटंकी करार दे रहे हैं लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए तल्खी से बच रहे हैं। संभव है कि हमले के प्रकरण में ज्यादा टीका-टिप्पणी करने से इसलिये बचा जा रहा हो ताकि टीएमसी को सहानुभूित के चलते लाभ न मिल जाये। भाजपा की रणनीति में बदलाव को इस तरह भी देखा जा सकता है कि उसने बाबुल सुप्रियो, लाकेट चटर्जी समेत अपने चार सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये उतारा है। वहीं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं कि जिस नंदीग्राम आंदोलन के जरिये ममता सत्ता में आई थी, वहां जमीन खिसकते देख भावनात्मक दोहन के लिये यह दांव चला गया है। ममता के घोर विरोधी माने जाने वाले कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने भी इस घटनाक्रम को पाखंड बताया है। बहरहाल, घटना के बाद जिस तरह टीएमसी कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन, राजमार्गों व रेलवे ट्रेक पर आंदोलन किया, उससे लगता है कि पार्टी मुद्दे को भुनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेगी। निस्संदेह इस घटनाक्रम ने चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव होने के बावजूद पश्चिम बंगाल को राष्ट्रीय विमर्श में ला दिया। बहरहाल, यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही है कि पश्चिम बंगाल में दो कार्यकालों का हिसाब दिये जाने के मौके पर तृणमूल कांग्रेस भावनात्मक मुद्दों को आगे करके चुनाव लड़ रही है। राज्य के वास्तविक मुद्दे हाशिये पर चले गये हैं। विडंबना ही है कि जब मतदाताओं के पास सरकारों का हिसाब-किताब मांगने का वक्त होता है तब नेता अपनी चतुराई से आभासी मुद्दों के बूते उन्हें जमीनी हकीकत से दूर ले जाने में कामयाब हो जाते हैं जो हमारी व्यवस्था की विफलता ही कही जायेगी।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
0 comments:
Post a Comment