National Immunization Day: टेक्नोलॉजी के दम पर अब हम डिजाइनर वैक्सीन के युग में (पत्रिका)

रजनीश भंडारी

National Immunization Day: नई तकनीकों के सहारे वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया में और तेजी लाई जा सकती है। निवेश के माध्यम से नई तकनीक अपनाना संभव हो सकेगा। हो सकता है भविष्य में हम किसी भी अनपेक्षित महामारी के लिए केवल 3 से 4 माह में वैक्सीन बना लें। किसी भी वायरस की संरचना में समय-समय पर परिर्वतन होता है। वायरस के दो नए स्ट्रेन यूके और दक्षिण अफ्रीकी स्ट्रेन के लिए वैक्सीन को उनके अनुरूप विकसित करने की जरूरत पड़ सकती है। एमआरएनए तकनीक से बनी वैक्सीन को नए स्ट्रेन के अनुरूप विकसित करना और बनाना आसान होता है।

वैक्सीन के विकास का इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है। सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सीन विकसित करने में विश्व को 26 वर्ष और रोटावायरस के लिए 25 वर्ष लग गए। इसके अलावा पिछले 40 सालों में एड्स से 3.5 करोड़ लोगों की मृत्यु हो चुकी है। वर्ष 1987 से 30 वैक्सीन का मानव पर क्लिनिकल ट्रायल किया जा चुका है, लेकिन एड्स के लिए कोई वैक्सीन अभी तक तीसरे चरण में पास नहीं हुई। विश्व भर में एड्स की वैक्सीन विकसित करने पर सालाना करीब ३५00 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए जाते हैं। मलेरिया से हर साल 40 करोड़ लोग पीडि़त होते हैं, जिनमें से लगभग 20 लाख की मौत हो जाती है। इसकी वैक्सीन बनाने के लिए अनुसंधान पर सालाना करीब 10 करोड़ डॉलर से अधिक खर्च किए जाते हैं, लेकिन अभी तक कोई वैक्सीन बन नहीं पाई। इसी प्रकार कोरोना वायरस सार्स और मर्स के लिए भी कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। फिर ऐसा कैसे संभव हुआ कि कोविड-19 वायरस का पता लगने के मात्र 100 दिन में ही 45 वैक्सीन विकसित होने की प्रक्रिया में आ गईं? ऐसा कैसे संभव हुआ कि मात्र 63 दिन में आरएनए विधि से वैक्सीन (मॉडर्ना) बना कर एक मनुष्य को लगा भी दी गई? कोविड-19 वायरस सामने आने के मात्र 11 माह के भीतर दिसम्बर 2020 में फाइजर और बायोएनटेक की एमआरएनए वैक्सीन को मंजूरी मिल गई। आज 321 कोरोना वैक्सीन कैंडिडेट विकास के विभिन्न चरणों में हैं। इनमें से 42 कैंडिडेट का मनुष्यों पर क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है और 9 वैक्सीन को कोरोना टीकाकरण के लिए अधिकृत कर दिया गया है।

कैसे तैयार होती है वैक्सीन-
पहला चरण-
वायरस डीकोड करने में अब कम समय...
बीते एक दशक में जीनोम अनुक्रमण (संरचना के अध्ययन) में शानदार प्रगति हुई है। उदाहरण के तौर पर मानव जीनोम अनुक्रमण की लागत 2001 में 10 करोड़ अमरीकी डॉलर थी, जो 2020 तक कम हो कर मात्र 500 डॉलर रह गई। आधुनिक तकनीक की उपलब्धता के चलते चीन और फ्रांस एक सप्ताह से भी कम समय में वायरस को डीकोड करने में कामयाब रहे।

दूसरा चरण-
पशुओं पर ट्रायल की प्रक्रिया...
वायरस के उस तत्व की पहचान जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर प्रहार करता है। उस एजेंट यानी एपिटोप्स को अलग करने के बाद परिष्कृत कर पशुओं पर ट्रायल। एक दशक पहले तक इसमें कभी-कभी पांच साल से ज्यादा समय लग जाता था। तकनीकी अविष्कारों और कम्प्यूटरीकृत मॉडल एवं आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआइ) की वजह से अब यह समय कुछ सप्ताह तक सिमट गया है।

तीसरा चरण-
क्लिनिकल ट्रायल के भी तीन चरण...
सभी दवाओं की तरह पशुओं पर प्रायोगिक परीक्षण के बाद वैक्सीन क्लिनिकल ट्रायल के लिए भेजी जाती है। पारम्परिक तरीके में एफडीए (फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) प्रक्रिया के बाद क्लिनिकल ट्रायल सहित इस चरण में 10 साल से अधिक समय लग सकता है, क्योंकि नियामक संस्था में वैक्सीन की मंजूरी के लिए आवेदन से पूर्व क्लिनिकल ट्रायल के कम से कम तीन चरण पास करना जरूरी है।

चौथा चरण-
बड़े पैमाने पर निर्माण एवं वितरण

भारत: क्यों बढ़ रहे हैं मामले
एक अध्ययन के अनुसार न्यूनतम तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी हुई तो मामलों में 0.86 की सकल कमी पाई गई। भारत में तापमान बढऩे के साथ कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं। इस विरोधाभासी परिस्थिति का कारण है-यूरोप और अमरीका में लोग सर्दियों में बंद जगहों में रहते हैं, जहां सेंट्रल हीटिंग चालू रहती है और कोरोना वायरस बंद स्थानों में तेजी से फैलता है, जबकि गर्मियों में वे खिड़कियां खोल देते हैं और लोग घरों से बाहर ज्यादा समय बिताते हैं। भारत में गर्मी में लोग एसी चलाकर बंद घरों और दफ्तरों में रहते हैं। इसलिए जब तापमान बढ़ रहा है तो कोरोना मामले भी बढ़ रहे हैं।

विकसित की जा रही ३ तरह की वैक्सीन-
इतिहास साक्षी है कि पहले चरण के क्लिनिकल ट्रायल में करीब 90त्न वैक्सीन अंतिम चरण तक पहुंच ही नहीं पाती और 25% वैक्सीन तीसरे चरण में विफल साबित होती है। वैक्सीन निर्माता कंपनी एक वैक्सीन कैंडिडेट पर 10 हजार करोड़ रुपए से अधिक का निवेश करती है। जहां तक दवाओं का सवाल है, एक दवा को बाजार तक लाने की औसत लागत 20 हजार करोड़ रुपए होती है। इसमें पहले चरण के बाद सफलता दर मात्र 10% है। आम तौर पर नियामकीय मंजूरी मिलने में एक से दो साल का समय लगता है।

हर चरण के बाद नियामक को जानकारी देना जरूरी है। महामारी के चलते नियामकों ने कुछ मामलों में पहले व दूसरे चरण के ट्रायल को संयुक्त करने की अनिुमति दे दी। कोरोना की असाधारण समस्याओं के संदर्भ में कुछ नियामक (जैसे कि यूके) 'रोलिंग रिव्यू' मंजूरी पद्धति अपना रहे हैं। इसके तहत जैसे-जैसे डेटा सामने आता है उनका अध्ययन और परीक्षण साथ-साथ चलता रहता है, बजाय सारा डेटा एक साथ जुटा एक साथ समीक्षा करने के।

अनुकूल हो ट्रायल पद्धति -
क्लिनिकल ट्रायल के लिए तकनीक विकसित करने और प्रोटोकॉल तय करने की जरूरत है। क्लिनिकल ट्रायल की मौजूदा परिपाटी 1946 से ज्यों की त्यों है, जब यूके में स्ट्रेप्टोमाइसिन का ट्रायल किया गया था। हमें 'अनुकूल ट्रायलÓ पद्धति अपनानी चाहिए, ताकि परिणामों के अनुसार ट्रायल का रुख तय हो सके। ऐसे क्लिनिकल ट्रायल की परिकल्पना करनी होगी, जिसमें नई कम्प्यूटरीकृत तकनीक का समावेश किया जा सके। हम इस समस्या से कैसे निजात पा सकते हैं कि 95% असरदार वैक्सीन मात्र 42 दिन में तैयार हो जाए, लेकिन मंजूरी में ही दस माह और लग जाएं, जबकि इस दौरान लाखों जानें जा सकती हैं?

एमआरएनए तकनीक से जल्दी बनती है वैक्सीन-
फाइजर और मॉडर्ना ने वैक्सीन बनाने के लिए एमआरएनए तकनीक का इस्तेमाल किया है, जिससे वैक्सीन शीघ्र विकसित होती है। इस नई तकनीक से वैक्सीन बनाने के लिए परम्परागत प्रोटीन या कमजोर रोगाणु की जरूरत नहीं पड़ती। जेनेटिक एमआरएनए को प्रयोगशाला में बनाना आसान होता है और प्रोटीन के बजाय एमआरएनए वैक्सीन बनाने में कई माह के समय की बचत होती है।

एमआरएनए वैक्सीन बनाने के लिए केवल कोरोना वायरस की जेनेटिक संरचना की आवश्यकता होती है। प्रयोगशाला में कोई जीवित वायरस बनाने या विकसित करने की जरूरत नहीं होती। यह तकनीक ठीक वैसी ही है जैसे कि हर बार एक नया हार्डवेयर खोजने की बजाय सॉफ्टवेयर को ही अपग्रेड किया जाए। इसके बहुत से लाभ हैं, जैसे एक ही वैक्सीन में वायरस के विविध रूपों के लिए एक से अधिक एमआरएनए का इस्तेमाल किया जा सकता है।

ऑक्सफोर्ड वैक्सीन में मारक अथवा प्रयोगशाला में बने 'वायरस वाहक' का प्रयोग किया जाता है, जिसे एपिटोप में इंजेक्ट किया जाता है, जो रोग प्रतिरोधक तंत्र पर प्रहार करता है। इस प्रकार आज का दौर डिजाइनर और संपादित की जा सकने वाली वैक्सीन का है। कम्प्यूटरीकृत, पशु और मानव मॉडल आधारित ड्रग कैंडिडेट की जंाच में शानदार प्रगति देखी गई है। नई दवाओं और वैक्सीन की वर्चुअल स्क्रीनिंग और नए डिजाइन में कृत्रिम स्नायु तंत्र और सुपरवाइज्ड लर्निंग के तरीके गेमचेंजर साबित हो सकते हैं।

नई तकनीक से और जल्दी बन सकेगी वैक्सीन-
नई तकनीकों के सहारे वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया में और तेजी लाई जा सकती है। निवेश के माध्यम से नई तकनीक अपनाना संभव हो सकेगा। हो सकता है भविष्य में हम किसी भी अनपेक्षित महामारी के लिए केवल 3 से 4 माह में वैक्सीन बना लें। हालांकि हो सकता है विश्व की फार्मा कंपनियां विकासशील देशों के महामारी जनित रोग टीबी, मलेरिया, एड्स आदि के प्रति शायद अब भी रुचि न लें। इसलिए तकनीकी आधुनिकीकरण के बावजूद इन बीमारियों से लोग जान गंवाते रहेंगे। किसी भी वायरस की संरचना में समय-समय पर परिर्वतन होता है। वायरस के दो नए स्ट्रेन यूके और दक्षिण अफ्रीकी स्ट्रेन के लिए वैक्सीन को उनके अनुरूप विकसित करने की जरूरत पड़ सकती है। एमआरएनए तकनीक से बनी वैक्सीन को नए स्ट्रेन के अनुरूप विकसित करना और बनाना आसान होता है।

सफल टीकाकरण के लिए जाना जाता है भारत-
भारत जैसे विकासशील देश में बड़ी जनसंख्या के टीकाकरण कार्यक्रम को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। भारत पहले से ही विश्व में सर्वाधिक वैक्सीन बनाता या उनकी आपूर्ति करता रहा है। साथ ही महिलाओं और शिशुओं के लिए विश्व का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चला चुका है। भारत का सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (यूआइपी) प्रतिवर्ष 2.7 करोड़ नवजात शिशुओं और 2.9 करोड़ गर्भवती महिलाओं के लिए बनाया गया है। इसके तहत प्रतिवर्ष वैक्सीन के 40 करोड़ डोज का उपयोग हो रहा है। यूआइपी के लिए 27 हजार कोल्ड-चेन पॉइंट हैं। इनमें से 95% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्थित हैं। हालांकि कुछ सवाल शेष हैं। एक बड़ा सवाल यह कि वायरस के प्रति रोग प्रतिरोधकता कितने समय तक रह सकेगी? अगर जीवन भर वैक्सीन का असर रहे तो यह सर्वोत्तम होगा।

सर्दी-जुकाम के कारण कोरोना वायरस के खिलाफ वैैक्सीन आम तौर पर एक-दो साल तक असरदार रहती है। इसलिए संभव है कि लोगों को कोविड-19 वैक्सीन की मौसमी खुराक लेनी पड़े। दूसरा सवाल कोरोना वायरस के विभिन्न स्ट्रेन पर वैक्सीन के असरकारी होने को लेकर है। सभी वायरस एक निश्चित अवधि के बाद रूपांतरित होते हैं। विविध तकनीकों में त्वरित प्रगति भविष्य में दवा और वैक्सीन के तेजी से विकास की राह प्रशस्त करेगी। वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया कोशिकीय कल्चर और फर्मेंटेशन के दौर से आगे बढ़ कर कम्प्यूटरीकृत मॉडल, डेटा एनालिटिक्स और एआइ के इस्तेमाल तक का सफर तय कर चुकी है।

(लेखक विश्व की सबसे बड़ी वर्टिगो क्लिनिक चेन 'न्यूरोइक्विलिब्रियम' के संस्थापक हैं)

सौजन्य - पत्रिका।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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