चुनावी खेल और असहाय लोकतंत्र (हिन्दुस्तान)

शशि शेखर 

क्या सिर्फ पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहा है? इस सवाल के जवाब में कोई भी कहेगा कि नहीं, कुल जमा पांच राज्यों में विधानसभा के लिए सिंहासन की लड़ाई जारी है। यही सही है, तो अधिकतर चर्चा बंगाल की क्यों हो रही है? क्या देश की राजनीति में अन्य चार प्रदेश कोई असर नहीं रखते? इन सवालों के जवाब के लिए भी आपको पश्चिम बंगाल की ओर रुख करना होगा। वहां जिस तरह की सियासी जंग चल रही है, उसका यह उदाहरण अकेले ही सच से सामना कराने को पर्याप्त है। पिछले दिनों फटाफट चैनलों पर एक दृश्य बार-बार दिखाया जा रहा था। इसमें नॉर्थ 24 परगना की निवासी 80 बरस से ऊपर की उम्र वाली एक महिला अपना बुरी तरह सूजा हुआ मुंह दिखाकर कहती है, ‘मुझे उन लोगों ने मारा। मैं मना करती रही, पर वे मारते गए। मुझसे सांस नहीं ली जा रही। पूरे शरीर में जोर का दर्द हो रहा है।’ दादी-नानी की उम्र वाली उस महिला का चेहरा, वेदना से कंपकंपाती आवाज और अस्पष्ट शब्द पीड़ा का अनलिखा, पर सहज ही दिल में उतर जाने वाला आख्यान आनन-फानन में रच देते हैं। उसकी यह दशा किसने बनाई?

इस प्रश्न का उत्तर लिए उसका पुत्र गोपाल मजूमदार अगले शॉट में नमूदार होता है। जीर्ण-शीर्ण अधोवस्त्र, बीच से चिरे होंठ से दिख रहे टेढे़-मेढे़ दांत मामले की भयावहता बढ़ाने को पर्याप्त हैं। गोपाल बताता है, ‘वे 10-12 लोग थे। उन्होंने आते ही मुझे मारना शुरू कर दिया। मां शोर-ओ-गुल सुनकर घर से बाहर आई, तो उसे भी पीटना शुरू कर दिया। घर के अन्य लोगों को भी  मारा। वजह? मैं भाजपा का कार्यकर्ता हूं। मारने वाले तृणमूल कांग्रेस के लोग थे।’‘किसी को पहचानते हो’, रिपोर्टर पूछता है। ‘नहीं, अंधेरा था, इसलिए नहीं देख पाया।’ शक और शुब्हे की तमाम गुंजाइशों के बावजूद यह जवाब आग भड़काने के लिए काफी था। भाजपा ने पूरे प्रदेश में पोस्टर टांग दिए। उनसे महिला का सूजा हुआ चेहरा झांक रहा था और मोटे हर्फों में सवाल लिखा था- ‘क्या यह बंगाल की बेटी नहीं है?’ खुद को बंगाल की बेटी बताने वाली ममता बनर्जी ने कुछ दिनों पहले ही कहा था, ‘बंगाल पर बंगाली राज करेंगे, बाहरी नहीं’। उनको यह जोरदार जवाब था।

फटाफट खबरों वाले चैनल गदगद थे। फुटेज बिकाऊ था, ऊपर से गला फाड़कर अपने दलों का दलदल बिखेरने वाले प्रवक्ता शोर मचा रहे थे कि तभी तृणमूल ने दावा किया कि यह सियासी अदावत नहीं, घरेलू हिंसा का मामला है। पुलिस भी इसी पर मोहर लगा रही थी। उनके समर्थन में पीड़िता के अन्य परिजन ‘बाइट’ दे रहे थे, खुद को चश्मदीद बताते हुए। स्वयं को वृद्धा का पोता और पतोहू बताने वाले दंपति इसे घरेलू हिंसा का मामला बता रहे थे। भाजपा प्रवक्ता की नजर में यह सत्तारूढ़ दल के दबाव से उपजा बयान था, तो  हुकूमतनशीं पार्टी के बयानवीर बुजुर्ग महिला और उसके बेटे को बिका हुआ साबित करने पर आमादा थे।

रही बात पुलिस की, तो उसे भाजपा पहले से ही सूबाई सरकार का एजेंट साबित कर चुकी है। इसके उलट तृणमूल सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग को केंद्र का पालतू तोता बताती है। याद करें, कोलकाता के पूर्व पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के मामले में कैसी लज्जाजनक रस्साकशी हुई थी! ऐसे ही, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा के काफिले और वाहन पर हुए हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तीन आईपीएस अफसरों को पश्चिम बंगाल काडर से वापस बुला लिया था। अपने आप में यह अनूठा और बेहद कड़ा फैसला था, पर सिलसिला यहीं नहीं थमा। पिछले दिनों ममता बनर्जी की बहू को ईडी के समन और फिर पूछताछ ने कड़वाहटों के सिलसिले को नए आयाम दे दिए। बंगभूमि का दुर्भाग्य है कि यहां आए दिन नए विवादों की आग जलाई जाती है। अगले कथानक के रचे जाने तक राजनीतिक दल इन फुंके हुए अलावों पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने की कोशिश करते हैं। हम इस आघातकारी सिलसिले का कारण जानते हैं। भाजपा किसी भी कीमत पर इस प्रदेश को अपनी झोली में डाल लेना चाहती है और ममता बनर्जी सुई की नोक भी न देने की तर्ज पर जी-जान लड़ाए हुई हैं। इस खेल में कोई कम नहीं है, इसलिए हर बार एक नया प्रहसन रचा जाता है, खबरें गढ़ी जाती हैं। ऐसा लगता है, जैसे हजारों साल बाद हस्तिनापुर इतिहास की गहराइयों से बाहर निकल आया है। शोर है, चर्चा है, पर तथ्य और तर्क कहीं बिला गए हैं।

हम भारतीय हमेशा से तमाशापसंद थे, पर लोकतंत्र का ऐसा तमाशा बनेगा, यह अकल्पनीय था। बंगाल इसीलिए सुर्खियों में है और अन्य सूबे नेपथ्य में कहीं कुलबुलाते नजर आते हैं। हालांकि, वे कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। असम में भी तो वे सारी समस्याएं मौजूद हैं, जिनसे बंगाल बजबजा रहा है, पर वहां ऐसा हंगामा बरपा नहीं है। असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के महत्व पर चर्चा करना शुरू कर दूं, तो यह जगह नाकाफी साबित हो जाएगी। यह तकलीफदेह है कि अन्य चुनावी सूबों से भी गंभीर मुद्दे नदारद हैं। नेता या तो अतिरंजित आरोप लगा रहे हैं या ऐसे कौतुक रच रहे हैं, जिनसे उनके करतब वायरल हो जाएं। तमिलनाडु में दंड लगाते राहुल गांधी और असम में स्थानीय महिलाओं के साथ थिरकती प्रियंका की तस्वीरों के साथ शीर्ष भाजपा नेताओं की किसानों या दलितों के यहां भोजन की तस्वीरों ने सुर्खियां बटोरीं। क्या इससे किसानों की दशा सुधर जाएगी, दलित मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएंगे, महिलाओं के हालात बदल जाएंगे और कुपोषण के मारे इस देश के अधिकांश लोग दंड-बैठक लगाने लायक हो जाएंगे? ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जो चुनाव-दर-चुनाव उत्तर हासिल करने के लिए छटपटाते रहते हैं। इन सवालों में ही चुनावों के कौतुक बन जाने की दर्दनाक दास्तान छिपी हुई है। समय आ गया है, जब संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र खुद को पारदर्शी बनाने की पहल करे। राजनीतिक दलों पर कानून लागू हो कि वे जो वायदे करते हैं, उनके क्रियान्वयन पर छमाही या सालाना श्वेत-पत्र जारी करें। इसके उल्लंघन या गलतबयानी पर दंडात्मक कार्रवाई के प्रावधान किए जाएं। पर क्या ऐसा हो सकेगा? बंगाल लौटते हैं। यहां तृणमूल ने नारा दिया है- ‘खेला हौबे’यानी खेल होगा। भाजपा भी बिना देर किए इसे ले उड़ी। अब कांग्रेस और वाम के कार्यकर्ता भी इसे दोहरा रहे हैं। जिस तरह से मतदाता को भरमाने की प्रवृत्ति पांव पसार रही है, उससे आशंका उपजनी स्वाभाविक है कि कहीं हमारे लोकतंत्र के साथ तो खेल नहीं होने जा रहा?

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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