ढाई बिलांद की रस्सी...और रोडुमल बंजारा ने ऐसे तोड़ दिया दम (अमर उजाला)

अश्वनी शर्मा  

बीते सप्ताह रोडुमल बंजारा ने दम तोड़ दिया। वह खेतड़ी, राजस्थान में सड़क किनारे तम्बू डालकर रहता था। पिछले कुछ समय से बीमार था। कोई सहारा न था। न  बुढ़ापा पेंशन, न बीपीएल राशन कार्ड। कितने दफा जिला कलेक्टर से लेकर जयपुर में सामाजिक न्याय विभाग के कमिश्नर दफ्तर के चक्कर लगाए, आखिरकार भूख, गरीबी और लाचारी ने सांसें छीन ली। रोडुमल बंजारा, एक अदना-सा इंसान भले ही था, किंतु उसके पारखी हाथों ने न जाने कितने जोहड़, तालाब, टांके, गांव के रास्ते, नालियां ओर मकानों की नींव डाली थी। वह उन चंद बचे-खुचे बंजारों में था, जिसको जल संरचनाओं की समझ थी। रोडुमल से मेरा परिचय लॉकडाउन खुलने के बाद हुआ था। मैं फील्ड वर्क के लिए खेतड़ी के नजदीक गांवों- ढाणियों में घूम रहा था। वहां एक गांव में सड़क व उसके दोनों तरफ नालियों का निर्माण किया गया था। लेकिन उनका लेवल सही नहीं हुआ था। जगह-जगह पानी रुक गया था। जूनियर इंजीनियर से लेकर सारे विशेषज्ञ नाप-जोख में लगे थे। गांव के किसी व्यक्ति ने सलाह दी कि नजदीकी गांव में रोडुमल बंजारा का टोला है। जानकर आदमी है, उसे ले आओ। ना नुकर के बाद रोडुमल को लाया गया। 

रोडुमल बंजारा- उम्र करीब 75/80 वर्ष। मरियल-सी देह, पोपला मुंह, मोटी-मोटी आंखें, नाटा कद, कान में झालर-मुरकी, सर पर बड़ा रंगीन साफा, दो लांग की धोती बांधे। छोटी-छोटी डग भरता हुआ पहले पूरे रास्ते और नाली का मुआयना करके आया। मुआयने के बाद रोडुमल ने ढाई बिलांद (करीब अढ़ाई फीट) की रस्सी मंगवाई। उसने कहीं नाली से मिट्टी को निकलवाया, तो कहीं पर मिट्टी को डलवाया। करीब सुबह 10.30 बजे काम शुरू किया और शाम में पांच बजे उसने अपना काम कर दिया। उसने कहा कि नाली के छोर से पानी छोड़िए। ये तो कमाल हो गया पानी सरपट दौड़ता हुआ जोहड़ में पहुंच गया। अचंभे के मारे लोगों की आंखें फटी जा रही थी। गांव का सरपंच और इंजीनियर वगैरह मिलकर योजना बना रहे थे कि उसे गांव की चौपाल में सम्मानित करेंगे, कोई कह रहा था कि शाल ओढ़ाकर सम्मानित करेंगे। रोडुमल दूर बैठा बीड़ी पी रहा था। उसके माथे पर अजीब-सी मुस्कान थी। उसने नजदीक के घर से एक कट्टे में करीब 20 किलो अनाज लिया, सर पर रखा और वहां से निकल गया।


बंजारे का नाम सुनते ही हमारे जेहन में ऐसे लोगों की छवि उभरती है, जो गधों और ऊंटों पर अरबी कपड़े, मुल्तानी मिट्टी और नमक लादे फेरी लगा रहे हैं। बंजारे महज ये समान ही नहीं लाते थे, बल्कि उसके साथ वहां के विचार और परंपरा भी साथ लाते थे। इस तरह दो संस्कृति को जोड़ने के साथ आर्थिक तंत्र को मजबूती देने का काम किया करते। एक समय बंजारों की पूरी खेप/कारवां चला करता था, जिसमें ऊंट, गधे ओर बैल होते। साथ में बंजारे का पूरा टांडा (कुटुंब) रहता। ये पूरा कारवां जैसमलमेर, मुल्तान, सिंध से होता हुआ अरब देशों तक जाया करता था। चूंकि इनकी खेप में हजारों की संख्या में पशु रहते। इतनी बड़ी संख्या में मवेशियों ओर इंसानों के लिए पानी की व्यवस्था कैसे हो, इसके लिए जल संरचना निर्मित की गई। इनके द्वारा बनाई गई ये संरचनाएं तो कला की उत्कृष्टता के अनूठे नमूने हैं। हम एक घर का पानी ठीक से नहीं निकाल पाते और ये लोग तो पूरे गांव का पानी एक जगह एकत्रित करने के लिए संरचना बनाते, घर की नींव डालने से लेकर कुएं खोदने, बावड़ी निर्माण जैसे बारीक काम बहुत ही सूझ-बूझ के साथ संपन्न किया। जितना आसान आज रेगिस्तान में रहना लगता है, क्या यह इनके बिना मुमकिन हो पाता?


इन्हें किसी राज्य में ओबीसी, तो किसी में एससी और एसटी का दर्जा प्राप्त है। बंजारों के पास असीम संभावनाएं हैं। पर हम उनको पहचान देना तो दूर रहा, उनको समाप्त करने में लगे हुए हैं। इन समुदायों का ज्ञान किताबों में नहीं है, बल्कि इनके जीवन से जुड़ा है। केवल रोडुमल ही नहीं गया, बल्कि हमारे सदियों का ज्ञान, हमेशा के लिए उसके साथ चला गया।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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