आरक्षण का हुआ राजनीतिकरण, असमानता कायम रखने में बना सहायक (अमर उजाला)

सत्यनारायण सिंह  

सर्वोच्च अदालत ने महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण से संबंधित एक याचिका की सुनवाई के दौरान सभी राज्यों को नोटिस भेजकर सरकारी नौकरियों में आरक्षण की पचास फीसदी सीमा के संबंध में उनका दृष्टिकोण जानना चाहा है। शीर्ष अदालत यह देखना चाहती है कि क्या आरक्षण की सीमा पर पुनर्विचार किया जा सकता है। भारत में अदालतें विधि की सांविधानिकता का निर्णय कर सकती हैं। स्वतंत्रता के पश्चात संविधान सभा में ऐतिहासिक उद्देश्य प्रस्ताव 13 दिसंबर, 1946 पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पेश किया था, उसके अनुसार संघीय राज्य व्यवस्था की कल्पना के साथ प्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना, जिसमें राष्ट्रीय एकता, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, परिस्थिति, अवसर कानून के समक्ष समानता, विचारधारा, अभिव्यक्ति, विश्वास व आस्था की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई। अल्पसंख्यकों, पिछड़े जनजातीय क्षेत्रों और दलित तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षा उपाय रखे गए।



संविधान के अनुच्छेद 14 में भारतीय नागरिकों के लिए लोकतांत्रिक अधिकार एवं कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है। समता के सिद्धांत की व्याख्या अनुच्छेद 15-16 व 29 में की गई है। समतावादी समाज की स्थापना हेतु परंपरागत असमानता पर आधारित व्यवस्था के परिवर्तन, छुआछूत की समाप्ति पर बल दिया गया है। महसूस किया गया कि असमान व्यक्तियों व वर्गों में समानता कायम नहीं हो सकती। इसके लिए 'कम्पनसेटरी डिस्क्रीमिनेशन' (हित-कर भेदभाव) की नीति स्वीकार की गई। समय-समय पर आरक्षण से संबंधित याचिकाओं पर सर्वोच्च अदालत ने विचार भी किया है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, टी. देवदाशन बनाम भारत सरकार, बालाजी बनाम मैसूर राज्य, एस. सी. चंद्र बनाम मैसूर राज्य, गोरखनाथ बनाम पंजाब सरकार, पेरियाकरूपन बनाम तमिलनाडू, जयश्री प्रसाद बनाम जम्मू-कश्मीर, अ. भा. शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत सरकार, इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार, आदि महत्वपूर्ण मामलों में देश के प्रसिद्ध न्यायविदों ने पिछड़े नागरिकों को प्राथमिकता देने के लिए सामाजिक-आर्थिक अलगाव से कई शताब्दियों से वंचित वर्गों को विशेष अवसर, विशेष छूट, सामाजिक पिछड़ापन और शैक्षिक पिछड़ापन के मानदंड इत्यादि पर स्पष्ट राय दी है। 



मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय की वृहत पीठ ने इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में महत्वपूर्ण सिद्धांत तय करते हुए स्पष्ट किया था कि संविधान निर्माताओं की मंशा के अनुरूप सामान्यता आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। सरकारें संविधान निर्माताओं की मंशा के विरूद्ध आरक्षण देती रही हैं। अवैध कानून बनाती रही हैं। सरकारों ने उच्चतम न्यायालय के आदेशों की अवहेलना की है। राजनीतिक दबाव बनाकर आरक्षण की सीमा बढ़ाने और आरक्षण के मूल सिद्धांत के विरूद्ध आर्थिक आधार (आय, संपत्ति) के आधार पर आरक्षण देने की कोशिशें जारी हैं।


अदालत को संविधान निर्माताओं की मंशा को ध्यान में रखकर आरक्षण पर गौर करना चाहिए। आज साधन साध्य हो गया है। आरक्षण का राजनीतिकरण हो गया है, जिससे आरक्षण असमानता कायम रखने में सहायक बन चुका है। आज भी तीनों आरक्षित वर्गों की सूची में आधी जातियां पिछड़ी हैं, उन्हें 70 वर्ष में एक प्रतिशत भी लाभ नहीं मिला। क्रीमीलेयर की सीमा इतनी बढ़ाई जा रही है, कि 'हितकर भेदभाव का यंत्र' भेदभाव, गरीबी, बेकारी भुखमरी, बेरोजगारी और कुपोषण बनाए रखने में ही सार्थक सिद्ध हो रहा है। इससे राजनीतिक आधार पर असमानता गहरी हो सकती है। असंतोष दूर करने के लिए आरक्षण के सवाल के जवाब जल्द तलाशने की जरूरत है। यह विडंबना ही है कि आरक्षण असमानता कायम रखने में सहायक बन चुका है।


( - लेखक राजस्थान के पूर्व आरएएस हैं।)

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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