ममता बनर्जी की राह कठिन करती प. बंगाल की बदलती राजनीति (बिजनेस स्टैंडर्ड)

कनिका दत्ता 

पश्चिम बंगाल के इन अहम विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी के नंदीग्राम से चुनाव लडऩे के निर्णय में कुछ विडंबना भी है। 10 वर्ष पहले दक्षिण बंगाल का यह निर्वाचन क्षेत्र, जहां सिंगूर में टाटा नैनो की परियोजना स्थापित की जानी थी, उस चुनाव अभियान का केंद्र था जिसने पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के 34 वर्ष के शासन का अंत किया।

उस समय नंदीग्राम में रसायन निर्यात केंद्र बनाने को लेकर बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण करने की वाम मोर्चे की योजना को लेकर विवाद छिड़ गया था। उस परियोजना के लिए हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ता जिनमें अधिकांश बुजुर्ग और गैरउपजाऊ जमीन से मामूली आजीविका कमाते थे। योजना का विरोध हुआ और मामला नियंत्रण से बाहर हो गया। पुलिस की गोलीबारी में 200 लोग मारे गए। यहां से ममता की विरोध की राजनीति की शुरुआत हुई।


अब उनके सामने पुराने साथी शुभेंदु अधिकारी हैं। इस बार मामला अहम की लड़ाई का है और दुख की बात है कि इसमें सांप्रदायिक स्वर मिले हुए हैं। नंदीग्राम की एक तिहाई आबादी मुस्लिम है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राज्य की चुनावी राजनीति में प्रवेश करने तक यह बात बहुत मायने नहीं रखती थी।


ममता की 2011 की जीत भी विडंबना में घिरी थी क्योंकि उन्होंने वह चुनाव जमीन पर जनता के अधिकार को लेकर ही लड़ा था जबकि यह वह मुद्दा था जिसने वाम मोर्चे को छह कार्यकाल तक सत्ता में बनाए रखा। परंतु सत्ता के अहम ने उन्हें परास्त कर दिया। ममता को महज दो कार्यकाल के बाद वैसी ही समस्या का सामना करना पड़ रहा है।


पश्चिम बंगाल सन 1960 के दशक की तरह हिंसा की चपेट में आ रहा है और उनके वफादार जुड़वा फूलों (तृृणमूल कांग्रेस का चुनाव चिह्न) को छोड़कर कमल का दामन थाम रहे हैं, ऐसे में अगर वह अपनी पूर्ववर्ती सरकार के पतन पर गौर करें तो बेहतर होगा। आखिर सफल भूमि पुनर्वितरण कार्यक्रम की सफलता के बल पर लंबे समय तक बंगाल की राजनीति पर मजबूत पकड़ बनाए रखने वाले वाम मोर्चे को एक ऐसी राजनेता के सामने हार का सामना क्यों करना पड़ा जिसके पास एक अधूरा और भड़काने वाला एजेंडा था? इसका जवाब सन 1994 की औद्योगिक विकास नीति में निहित है जिसके माध्यम से विदेशी निवेश का इस्तकबाल किया गया था और निजी क्षेत्र की अहम भूमिका को रेखांकित किया गया। नरसिंह राव सरकार के आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत करने के तीन वर्ष बाद वाम मोर्चे ने पूंजीवादी रुख स्वीकार कर लिया। जबकि वाम दलों ने राव सरकार की जबरदस्त आलोचना की थी।


सोवियत आर्थिक मॉडल की विफलता ने यह बदलाव आसान किया होगा लेकिन वाम मोर्चे के नेता जिन्हें ग्रामीण क्षेत्र और कारखानों के श्रमिकों से ताकत मिलती थी, वे बात समझ नहीं पाए। एक शुरुआती विफलता इसका प्रमाण है-ग्रेट ईस्टर्न होटल को एक्कॉर पैसिफिक को बेचने की कोशिश रद्द करनी पड़ी। उस समय सरकार ने कहा कि श्रम संगठन निजीकरण के लिए सहमत नहीं हुए।


ज्योति बसु जैसे प्रतिष्ठित नेता जिनके बुर्जुआ, पश्चिमी उदारवादी दृष्टिकोण के पीछे जन आधारित राजनीति की सराहना की चालाकी छिपी थी, वह भी यह नहीं समझ पाए कि इस वैचारिक बदलाव को लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं को समझाना होगा। उन्होंने ऐसी कोई योजना भी नहीं बनाई जिसके जरिये स्थानीय राजनीति को नए आर्थिक बदलाव के अनुसार ढाला जाए। बसु और सोमनाथ चटर्जी जैसे उनके साथी विदेशी निवेश जुटाने की नीति बनाते रहे और ऐसे समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर करते रहे जिनसे कुछ खास हासिल नहीं हुआ। नई सदी में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री बने। कवि और नाटककर रह चुके इस पूर्व वामपंथी दिग्गज ने नई आर्थिक नीति अपनाई। सुनने को मिला कि जेएसडब्ल्यू, टाटा, इन्फोसिस, विप्रो सभी वहां निवेश करने के लिए कतारबद्ध हैं। टाटा की नैनो परियोजना के लिए सिंगूर में जमीन अधिग्रहण शुरू हुआ। शुरू में समस्या नहीं हुई क्योंकि अधिकांश भूस्वामी अनुपस्थित थे और कोलकाता से इस जगह की नजदीकी ने दूसरों के लिए रोजगार के अवसर बना रखे थे। ममता के नेतृत्व में जमीन गंवाने वाले कुछ लोग विरोध कर रहे थे लेकिन उनकी अनदेखी की जा सकती थी। परंतु नंदीग्राम ने उन्हें राजनीतिक कद प्रदान किया। यहां विस्थापन का अर्थ था भारी अभाव। पहली बार स्थानीय कार्यकर्ताओं ने पाया कि दूर बैठे एक मुख्यमंत्री ने उनके हाथ बांध रखे हैं और उसने शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों पर पुलिस की ज्यादती को मंजूरी दी। अहंकारी सत्ता के समक्ष सामान्य आदमी के उठ खड़े होने का माहौल बन गया। इस मामले में तो सत्ता एक विदेशी कंपनी यानी इंडोनेशिया के सलीम समूह के साथ थी। यह ममता के लिए मुफीद रहा। वाम दलों के अनेक कार्यकर्ताओं और स्थानीय गुंडों ने तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता ले ली।


इस तरह देखें तो ममता की लोकप्रियता एक नकारात्मक उपलब्धि से उपजी जिसमें उन्होंने टाटा की परियोजना को राज्य से बाहर कराया, 400 एकड़ अनुपजाऊ जमीन किसानों को लौटा दी गई और एक निर्यात हब को रद्द किया गया। मलीन हो चुके कोलकाता की सफाई की उनकी योजना ने भद्रलोक को अहसास कराया कि परिवर्तन आ चुका था। परंतु इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती थी बहुत कम उद्योगपति परियोजनाओं के हामी थे। अधिकांश भारतीय नेताओं की तरह ममता भी स्वभाव से अधिनायकवादी रहीं और किसी ने उनसे यह नहीं कहा कि उनका जनाधार वही है जो उनके पूर्ववर्ती शासकों का था। भाजपा अपने बहुसंख्यकवाद और आकांक्षी विकास के वादे के साथ प्रदेश में तेजी से अपनी छाप छोड़ रही है।


नंदीग्राम में मुख्यमंत्री की लोकप्रियता का मुकाबला अधिकारी परिवार की ताकत से होगा जिसकी पश्चिमी मिदनापुर के दूरदराज इलाकों में जबरदस्त लोकप्रियता है। अधिकारी परिवार ममता की पार्टी को क्षेत्र में एक से अधिक सीटों पर दिक्कत में डाल सकता है। संभव है ममता बाजी मार लें लेकिन राजनीति भी 2011 के बाद काफी आगे निकल चुकी है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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