बिहार विधानसभा में मंगलवार को जो हुआ, उससे साफ है कि देश में बहुत संघर्षों से हासिल किए गए लोकतंत्र की फिक्र हमारी सरकारों और नुमाइंदों को नहीं है। जो सदन किसी मुद्दे पर बहस और तर्क के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जगह के रूप में निर्धारित है, वहां असहमति और विरोध के दमन का खुला प्रदर्शन देखा गया। सबसे अफसोसनाक यह हुआ कि सदन के भीतर अफरा-तफरी पर काबू पाने के लिए भारी तादाद में पुलिस बल को बुलाया गया।
राज्य के इतिहास में शायद ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया था। एक जरूरी मुद्दे पर विरोध जताने को लेकर विपक्षी दलों के विधायकों से बुरी तरह मार-पीट गई, उन्हें घसीट कर बाहर फेंका गया। यहां तक कि महिला सदस्यों तक से जैसा बर्ताव किया गया, वह गरिमा और मर्यादा के विरुद्ध था। संभव है एक रिवायत की तरह सरकार अपने स्पष्टीकरण में हालात से इस तरह निपटने को सही बता ले, लेकिन सवाल है कि एक लोकतांत्रिक पद्धति के तहत चलने वाली व्यवस्था में सदन के भीतर विधायकों या सदस्यों के खिलाफ ऐसे बर्ताव के जरिए देश के लोकतंत्र के सामने कैसी चुनौती रखी गई है!
गौरतलब है कि राज्य की जदयू-भाजपा की सरकार की ओर से विधानसभा में एक नया विधेयक पेश करके हंगामे के बीच पारित भी करा लिया गया, जिसमें सशस्त्र पुलिस को कुछ विशेष शक्तियां दी गई हैं। माना जा रहा है कि अगर यह कानून अमल में आया तो राज्य में सशस्त्र पुलिस बल को बिना वारंट के किसी के घर की तलाशी लेने और महज शक के आधार पर किसी को गिरफ्तार कर जेल में डालने का अधिकार मिल जाएगा। यही नहीं, सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि अदालतें ऐसे मामलों में दखल तभी देंगी जब पुलिस उनसे ऐसा करने को कहेगी। राज्य में विपक्षी दलों के विरोध के मुख्य आधार यही हैं।
सरकार का कहना है कि यह विधेयक सिर्फ सशस्त्र पुलिस को आधुनिक करने के लिए लाया गया है, ताकि वह भविष्य की चुनौतियों का ज्यादा कुशलता से सामना कर सके। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर राज्य में अपराध पर काबू पाने और सुशासन लाने का दावा करते हैं। अगर उनका दावा सही है तो आखिर राज्य की पुलिस ने किन शक्तियों के तहत ऐसा संभव बनाया? अगर नए कानून में दर्ज मनमानी के अधिकार मिलने के बाद नागरिक स्वतंत्रता और संवैधानिक हकों पर चोट पहुंचती है तो ऐसे में आम लोगों के पास क्या चारा बचेगा?
जाहिर है, इस समूचे प्रकरण में राज्य सरकार और पुलिस का रवैया बेहद निराशाजनक है। अव्वल तो नए पुलिस कानून पर उसकी सफाई विपक्षी दलों और विश्लेषकों को सहमत नहीं कर सकी, दूसरे कि किसी भी मुद्दे को निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले उस पर सभी दलों, खास कर विपक्ष के साथ बहस और विचार की प्रक्रिया से गुजरना ही सदन और सत्तापक्ष के लोकतांत्रिक होने का सबूत हो सकता है। अगर विपक्ष की ओर से कोई असहज स्थिति पैदा हुई तो सदन को कुछ समय के लिए स्थगित करके अलग-अलग पार्टियों से संवाद किया जा सकता था। लेकिन सदन के भीतर पुलिस बल की मौजूदगी से क्या साबित किया गया?
क्या यह विधायिका और लोकतंत्र की गरिमा के अनुकूल था या इससे विधानसभा की प्रतिष्ठा को चोट नहीं पहुंची? इससे पहले पटना में रोजगार और दूसरे मुद्दों पर विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शन पर भी पुलिस ने जैसा कहर ढाया, वह अप्रत्याशित था। सवाल है कि सरकार और पुलिस का ऐसा रवैया अगर इसी शक्ल में आगे बढ़ा तो आम नागरिकों के लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों के लिए कितनी जगह बचेगी और इसके बाद देश किस दिशा में जाएगा!
सौजन्य - जनसत्ता।
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