बैंकों के निजीकरण के खिलाफ हड़ताल से केंद्र सरकार दबाव में नहीं आएगी, बैंक कर्मचारियों पर नहीं आएगी आंच (दैनिक जागरण)

यदि एनपीए की समस्या गंभीर नहीं होती तो शायद बैंकों का विलय भी नहीं होता। विलय के बाद भी उनका नियमन और अधिक प्रभावी ढंग से होना चाहिए। इसी क्रम में यह भी सुनिश्चित करना होगा कि निजी क्षेत्र के बैंक सरकारी बैंकों वाली समस्याओं से न घिरने पाएं।


बैंकों के निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मियों की हड़ताल से सरकार दबाव में आ जाएगी और अपने फैसले को टाल देगी, इसके आसार न के बराबर हैं। इसका कारण सरकार को यह समझ आ जाना है कि उसका काम बैंकों का नियमन करना है, न कि उन्हेंं खुद चलाना। जब सरकार यह कह रही है कि बैंकों के निजीकरण के बाद भी कर्मचारियों का ध्यान रखा जाएगा तो फिर उस पर भरोसा किया जाना चाहिए। बैंक कर्मचारियों को उस बदलाव में बाधक नहीं बनना चाहिए, जो आवश्यक हो चुका है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जहां निजी क्षेत्र के बैंक सरकारी क्षेत्रों के बैंकों से आगे निकलते जा रहे हैं, वहीं घाटे की चपेट में आए बैंकों को डूबने से बचाने के लिए उनमें बार-बार सार्वजनिक कोष का धन डालने के बाद भी हालात जस के तस हैं। बैंकों को अपनी कार्यशैली बदलने की सख्त जरूरत है, क्योंकि तकनीक ने बैंकिंग कामकाज को बदलकर रख दिया है। चूंकि इंटरनेट बैंकिंग के साथ डिजिटल भुगतान का सिलसिला तेज होता जा रहा है, इसलिए अब सब कुछ पहले जैसा नहीं चलते रह सकता। इस सिलसिले के बढ़ने से भविष्य में बैंक अपेक्षाकृत कम कर्मचारियों में काम चलाने में सक्षम होंगे। इस सूरत में मौजूदा कर्मचारियों के हितों पर आंच नहीं आने देनी चाहिए, लेकिन यह अपेक्षा उचित नहीं कि सरकार बैंकों के निजीकरण की दिशा में आगे बढ़ने का इरादा त्याग दे।


सरकार जिस तरह बैंकों के निजीकरण की ओर अग्रसर है, उसी तरह वह उनकी संख्या कम करने को लेकर भी संकल्पित है। ऐसा करना भी समय की मांग है। कई बैंकों का विलय किया जा चुका है। माना जा रहा है कि आगे कुछ और बैंकों का विलय हो सकता है, क्योंकि अभी भी सरकारी बैंकों की संख्या अधिक है। इससे उनके नियमन में समस्या आ रही है। इस समस्या का समाधान करने के साथ यह भी देखना होगा कि बैंक कर्ज बांटने का काम सही तरह करें। जरूरी केवल यही नहीं कि पात्र लोग बिना किसी झंझट के कर्ज हासिल करने में समर्थ हों, बल्कि यह भी है कि उसकी समय रहते वसूली भी हो। अतीत में कर्ज देने के नाम पर जो बंदरबाट हुई, उस पर सख्ती से लगाम लगनी चाहिए। ऐसा करके ही बढ़ते एनपीए यानी फंसे हुए कर्जों को नियंत्रित किया जा सकेगा। यदि एनपीए की समस्या गंभीर नहीं होती तो शायद बैंकों का विलय भी नहीं होता। जो भी हो, विलय के बाद भी उनका नियमन और अधिक प्रभावी ढंग से होना चाहिए। इसी क्रम में यह भी सुनिश्चित करना होगा कि निजी क्षेत्र के बैंक सरकारी बैंकों वाली समस्याओं से न घिरने पाएं।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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