प्रदीप कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया (क्वाड देश) के शासनाध्यक्षों में शिखर वार्ता इस संगठन के संक्षिप्त इतिहास में अहम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन का उल्लेखनीय अंश यह था, 'क्वाड का हमारा एजेंडा वैश्विक भलाई के लिए है; यह भारत के प्राचीन दर्शन 'वसुधैव कुटुंबकम' का विस्तार है। यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता का अहम स्तंभ है।' विदेश सचिव हर्ष शृंगला ने बात कुछ और आगे बढ़ाई, 'क्वाड देशों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्वतंत्रता और खुलेपन, समृद्धि और सुरक्षा से प्रतिबद्धता को रेखांकित किया।' बची-खुची बात जापान के प्रधानमंत्री योशिहीदे सूगा ने इस ट्वीट से पूरी कर दी, 'यथास्थिति को बदलने के लिए चीन की एकतरफा कोशिशों का मैंने विरोध किया।' कुल मिलाकर वार्ता का अंडर करेंट चीन-विरोधी रहा।
शिखर वार्ता से पहले चीन ने मीठे-मीठे शब्दों में चेतावनी दी थी, 'क्षेत्रीय सहयोग की कोई भी व्यवस्था शांतिपूर्ण विकास की वर्तमान प्रवृत्ति के अनुरूप होनी चाहिए, न कि इसके विपरीत। आशा है कि भागीदार देश क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के अनरूप कदम उठाएंगे।' वार्ता के बाद चीन ने कहा कि भारत ब्रिक्स और एससीओ (शंघाई सहयोग संगठन) के लिए नकारात्मक साबित हो रहा है। चीन ने यह भी कहा, 'हमने फरवरी में कहा था कि भारत में ब्रिक्स सम्मेलन के लिए हम समर्थन करते हैं। ऐसा लगता है कि चीन की सद्भावना को समझने में भारत विफल रहा है। सच यह है कि भारत चीन के सामरिक ब्लैकमेल में लगा है।' बीजिंग से संदेश असंदिग्ध है : आने वाले दिनों में भारत के खिलाफ वह और खुलकर वैमनस्यपूर्ण हरकतें करेगा। क्वाड हो या न हो, चीन हर हाल में भारत-विरोधी रहेगा।
भारत को रूस के रुख की चिंता होनी चाहिए। वार्ता के बाद मास्को से प्रतिक्रिया नहीं आई, पर रूसी विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव के कुछ समय पहले के बयान की अनदेखी नहीं की जा सकती। भारत की कूटनीतिक बाध्यताओं को नजरंदाज करते हुए उन्होंने क्वाड पर कहा था, 'पश्चिमी ताकतें चीन-विरोधी खेल में भारत को घसीट रही हैं। इसके साथ ही पश्चिमी देश भारत के साथ रूस के घनिष्ठ सहकार और विशेष संबंधों पर भी बुरा असर डालने की हरकतें कर रहे हैं। सैनिक और तकनीकी सहयोग के लिए भारत पर अमेरिका के भारी दबाव का यही मकसद है।' उनकी टिप्पणी भारत के लिए अपमानजनक थी। रूसी विदेश मंत्री भूल गए कि भारत-सोवियत मैत्री संधि के सुनहरे दौर में भी दो प्रधानमंत्रियों, चरण सिंह और इंदिरा गांधी ने अफगानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश की हिमायत करने से इन्कार कर दिया था।
क्वाड को आगे बढ़ाना भारत की सामरिक आवश्यकता है। यह दंतविहीन होता, तो चीन और उसका सहयोगी रूस इसका खुला विरोध न करते। रूस को अलग-थलग करने की अमेरिका की नीति ने मास्को के सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ा। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस लाचार था। अब रूस बहुत आगे जा चुका है। चीन की महत्वाकांक्षी योजनाओं से वह साइबेरिया क्षेत्र में अपने लिए खतरे जरूर महसूस कर रहा होगा। चीन से लगे रूस के सीमावर्ती इलाके में हान चीनियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ऐसी परिस्थितियां तब पैदा होती रहती हैं, जब राष्ट्र बड़े खतरों का सामना करने के लिए छोटे खतरों पर जान-बूझकर ध्यान नहीं देते। रूस समझदार है, वह अपने हित में भारत के सामने ऐसे हालात पैदा नहीं करेगा। भारत के राष्ट्रीय हितों का तकाजा यह है कि वह क्वाड क्या, हर ऐसे संगठन और कूटनीतिक प्रयासों को सुदृढ़ करे, जिससे चीन पर लगाम लगती हो। निकट भविष्य में बहुत कुछ साबित होने जा रहा है। अफगानिस्तान में शांति के लिए अमेरिका ने जिस वार्ता का प्रस्ताव रखा है, उसमें भारत को निमंत्रित किया गया है।
पर रूस के प्रस्ताव में भारत नहीं है। चीन अफगानिस्तान में घुसपैठ की फिराक में है। यही बात पाकिस्तान पर भी लागू होती है। उसे ‘सामरिक गहराई’ चाहिए, जिससे वह भारत के कारण वंचित हो चुका है। तालिबान की बेदखली के बाद भारत-अफगान सहयोग में गुणात्मक परिवर्तन आया है। अगर अफगानिस्तान में भारत की उपलब्धियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तो उसकी गंभीर प्रतिक्रिया होगी। भारतीय सत्ता के विभिन्न अवयव अपने हितों की रक्षा में लगे हैं, पर रूस का अपना दूरगामी हित यह सुनिश्चित करने में है कि भारत के कूटनीतिक विकल्प सीमित न होने पाएं। क्वाड भारत के हितों को सिर्फ इस हद तक पूरा करता है कि चीन अपने ऊपर अंकुश लगता देख रहा है। चीन बेलगाम होता जाएगा, तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विश्व शांति खतरे में पड़ जाएगी और उसकी चपेट में आने से भारत भी नहीं बच पाएगा। पर भारत के लिए इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है हिंद महासागर। अंडमान द्वीप समूह और वहां स्थापित सामरिक कमान के अलावा भी भारत के हित दांव पर लगे हुए हैं। म्यांमार की समुद्री सीमा से लेकर श्रीलंका, मालदीव और मैडागास्कर तक निगाह रखने की मजबूरी है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से बाद में पूछा गया कि युद्ध के दौरान आपके लिए सबसे चिंताजनक मोड़ कब आया। उनका उत्तर था : जब जापानी नौसेना श्रीलंका के त्रिंकोमाली बंदरगाह की तरफ बढ़ रही थी। आज चीन वहीं जमा हुआ है। मालदीव में चीन और पाकिस्तान समर्थक सरकार बनते ही भारत की मुश्किलें बढ़ जाती हैं।
शीतयुद्ध के दौरान हिंद महासागर के विसैन्यीकरण में भारत अपना हित देखता था। आज हितों की परिभाषा बदल चुकी है। हिंद महासागर का बुरी तरह सैन्यीकरण हो चुका है। हान चीनियों का हिटलराना विस्तारवाद हिंद महासागर में लगातार बढ़ रहा है। हमारे लिए क्वाड-2 का अर्थ यह है कि भारत की पहुंच हिंद महासागर में स्थित अमेरिका के अभेद्य फौजी अड्डे दिएगोगार्शिया तक हो। पश्चिमी सेक्टर, पूर्वी सेक्टर और मध्य सेक्टर में सीमित रहकर चीनी हमलों का कारगर मुकाबला करना दिनोंदिन महंगा होता जाएगा। आक्रामकता की असहनीय कीमत तो चीन को अदा करनी चाहिए। भारतीय कूटनीति का स्वर्ण युग तब शुरू होगा, जब प्रशांत महासागर से लेकर हिंद महासागर तक चीन की नींद उड़ने लगे।
सौजन्य - अमर उजाला।
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