सोमशेखर सुंदरेशन
बैंकों द्वारा जारी किए जाने वाले पर्पेचुअल अथवा बेमियादी बॉन्ड से जुड़ी नीतियों में बदलाव को लेकर चल रही सार्वजनिक बहस, नीतिगत चयन और उनके क्रियान्वयन से जुड़े कई मुद्दों को रेखांकित करती है।
इस विषय पर काफी कुछ लिखा जा चुका है इसलिए इसे संक्षेप में देखते हुए आगे बढऩा उपयोगी होगा। बेमियादी बॉन्ड ऐसे बॉन्ड होते हैं जिनके पुनर्भुगतान की कोई तिथि नहीं होती। वे बेमियादी डेट हैं और शेयरों के समान है। बॉडी कॉर्पोरेट (विधिक अधिकारों और जवाबदेही वाली कंपनियों) की तरह बैंक भी कृत्रिम विधिक व्यक्ति होते हैं जिनका जीवन और उत्तराधिकार बेमियादी होते हैं। ऐसे बॉन्ड का कभी तय तारीख पर पुनर्भुगतान नहीं करना होता। बॉन्ड जारी करने वाले के पास पुनर्भुगतान के अधिकार के इस्तेमाल का विकल्प रहता है। हो सकता है कि इस विकल्प का कभी इस्तेमाल न किया जाए। ऐसे में इन बॉन्ड का मूल्यांकन करना आसान नहीं होता। खासतौर पर तब जब म्युचुअल फंड के जरिये आम बचत भी इनमें लगी हो। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने इन बॉन्ड को जारी करने की तिथि से 100 वर्ष की अवधि में पुनर्भुगतान करने की बात निर्धारित की है। ऐसा करके ही वसूली के निर्धारित किसी डेट का वर्तमान मूल्यांकन भविष्य की किसी तिथि को ध्यान में रखकर किया जा सकता है।
हम यहां यह चर्चा नहीं करेंगे कि बेमियादी बॉन्ड के मूल्यांकन कैसे करें। प्रतिफल का आकलन करने और मूल्यांकन का निर्धारण करने के लिए सेबी ने जो बाहरी सीमा तय करने का इरादा जताया है वह सही है। 100 वर्ष पश्चात भुगतान लायक होने वाले डेट का मूल्यांकन निष्पक्ष तरीके से किया जा सकता है। पुनर्भुगतान की तय तारीख के बिना डेट मूल्यांकन को बाजार की कल्पना पर छोड़ देगा। इनके मूल्यांकन में उतार-चढ़ाव म्युचुअल फंड में निवेश करने वाले आम लोगों को गहरे तक प्रभावित कर सकता है क्योंकि वे ऐसे बॉन्ड में निवेश करते हैं।
बहरहाल बदलाव का प्रबंधन करते हुए यह याद रखना जरूरी है कि दवा कभी बीमारी से अधिक दर्द देने वाली नहीं होनी चाहिए। यदि समाज ने किसी दवा को खारिज कर दिया है तो वह मरीज को और अधिक दर्द पहुंचाएगी, भले ही वह कितनी भी अहम क्यों न हो। बॉन्ड पर 100 वर्ष की अवधि का अधिरोपण होने पर बॉन्ड का मूल्यांकन भी रातोरात बदल जाता है। बाजार अब तक बॉन्ड का जो मूल्यांकन कर रहा था और भविष्य में उसे जो मूल्यांकन करना होगा, दोनों का अंतर काफी मुश्किल खड़ी करने वाला होगा।
कहा जा रहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक बेहद नाराज है। हर समाचार पत्र ने यह खबर प्रमुखता से छापी कि भारत सरकार इस बदलाव को वापस लेना चाहती है। वित्तीय क्षेत्र के नियामकों के बीच सौहार्द बनाने के लिए वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद (एफएसडीसी) का गठन किया गया था। इसके पीछे विचार था यह सुनिश्चित करना कि दोबारा किसी वित्त मंत्री को यह घोषणा नहीं करनी पड़े कि दो नियामक आपसी मतभेद को समुचित न्यायालय में जाकर निपटा सकते हैं। ऐसे गंभीर बदलाव के प्रबंधन के कई तरीके अपनाए जा सकते थे।
सबसे पहले एक महत्त्वपूर्ण विधान या इस प्रकृति का नीतिगत बदलाव लाने के पहले मशविरा होना चाहिए था। यह एक मान्य अवधारणा है जिसका पालन किया जाता है। नियामक इस बात के लिए अपनी सराहना करते हैं कि वे विधान बनाने के पहले मशविरा करते हैं लेकिन यह ऐसा नियम नहीं है जिसे टाला न जा सकता हो। ऐसे बड़े प्रस्तावित बदलाव को लेकर पूर्व मशविरा करने से इस समस्या को सामाजिक तौर पर चिह्नित करने में मदद मिलती और बिना अस्थिरता के स्वीकार्य हल भी सामने आते। चोरी चुपके किए जाने वाले सुधार इस बात को रेखांकित करते हैं कि व्यवस्था में स्वयं सुधार का भरोसा नहीं है।
दूसरा, भारत सरकार के पास यह सांविधिक अधिकार है कि वह हर आर्थिक विधान के मामले में नीतिगत मसलों पर नियामकों को निर्देश दे सके। ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति की मौजूदगी ने यह सुनिश्चित किया कि इसका कभी इस्तेमाल नहीं करना पड़ा। इसकी उपलब्धता मात्र यह सुनिश्चित करती है कि कोई ऐसा नीतिगत बदलाव चर्चा के लिए पेश न किया जाए जो सरकार को पसंद नहीं हो। यह काफी हद तक वीटो अधिकार की तरह है। वीटो अधिकार का इस्तेमाल भले ही कभी न हुआ हो लेकिन यह अधिकार रखने वालों के साथ अग्रिम चर्चा की आशा रखी ही जाती है। ऐसे में यह चकित करने वाली बात है कि इस तरह के मुद्दे पर गतिरोध उत्पन्न हो गया है। जाहिर है बदलाव करने के पहले की गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकेगी।
तीसरा, एक बेमियादी बॉन्ड की मियाद तय करने जैसे नाटकीय बदलाव को पेश करते समय 'ग्रैंडफादरिंग' और 'ट्रांजिशन' के प्रावधानों के मिश्रण का इस्तेमाल करना चाहिए था। ग्रैंडफादरिंग प्रावधान का अर्थ होगा एक दोहरी व्यवस्था जहां 100 वर्ष की अवधि केवल उन्हीं बॉन्ड पर लागू होगी जो बदलाव के बाद जारी होंगे। ट्रांजिशनल यानी परिवर्ती प्रावधान मौजूदा बॉन्ड को भी यह सुविधा देगा कि वे (मान लेते हैं 18 महीने से 60 महीने की अवधि) 100 वर्ष अवधि वाले नए मानक के तहत मूल्यांकन को अपनाएं। यह सब तभी होगा, बशर्ते कि पूर्व में जारी बेमियादी बॉन्ड का खतरा इतना अधिक न हो कि ग्रैंडफादरिंग और ट्रांजिशन प्रावधान बदलाव को निरर्थक कर दें।
आम धारणा के विपरीत आर्थिक नीति काफी हद तक वैचारिकी और सिद्धांतों पर आधारित होते हैं, बजाय कि घोषित अनुभवजन्य वजह के। नियामकीय लड़ाइयों में अक्सर यह होता है कि एक कोने में बैठा जाए और सामने वाले पक्ष को जगह देने या उसे वैधता प्रदान करने को नकारा जाए। इस रुख के साथ टिकाऊ बदलाव दुष्प्राप्य रह सकता है। एक फतवा जारी करके किया गया बदलाव केवल तभी तक जारी रह सकता है जबतक कोई दूसरा विरोधाभासी फतवा न जारी हो जाए।
(लेखक स्वतंत्र अधिवक्ता हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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