असम में कोई चेहरा न होते हुए भी कांग्रेस मुकाबले में बरकरार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

आदिति फडणीस  

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की मानें तो पार्टी ने शायद पश्चिम बंगाल के लिए अपनी उम्मीदें छोड़ दी हैं लेकिन असम के विधानसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन को लेकर उसकी अपेक्षाएं काफी ऊंची हैं।


लगता है कि कांग्रेस के सामने चेहरे की कमी है। असम में पार्टी के सबसे बड़े नेता तरुण गोगोई का पिछले साल निधन हो गया था और उनके पुत्र गौरव गोगोई खुद को लोकसभा में ही अधिक सहज पाते हैं। हाल ही में उन्हें लोकसभा में कांग्रेस का उप नेता बनाया गया है और वह विधानसभा का चुनाव लडऩे के तनिक भी इच्छुक नहीं हैं। महिला कांग्रेस की प्रमुख सुष्मिता देव असम के कछार इलाके में गिने जाने वाले सिल्चर से सांसद हैं लेकिन उनके बंगाली मूल का होने से पार्टी को लगता है कि उन्हें विधानसभा चुनाव में अपने चेहरे के तौर पर पेश करना सही रणनीति नहीं होगी। मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर किसी विश्वसनीय स्थानीय नेता के उभरकर सामने नहीं आने से कांग्रेस ने यही तय किया है कि इस अहम मसले पर फैसला बाद में किया जाएगा।


कांग्रेस के महासचिव एवं असम के प्रभारी जितेंद्र सिंह कहते हैं, 'हम यह चुनाव मिलजुलकर लड़ेंगे। हर कोई भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हराने के इकलौते मकसद से काम करेगा। अगर किसी का निजी हित नहीं जुड़ा है तो वह खुलकर काम कर सकता है। चुनाव नतीजे सामने आने के बाद कोई भी पार्टी कार्यकर्ता राज्य का मुख्यमंत्री बन सकता है।' असम में कांग्रेस की चुनावी तैयारी को धार देने के लिए महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को भी अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई है।


वर्ष 2020 में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा था, खासकर बोडो समुदाय के दबदबे वाले इलाकों में उसे मुंह की खानी पड़ी थी। बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) असम की राजनीति में एक अहम समूह है जिसने स्थानीय चुनावों में 17 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि सत्तारूढ़ भाजपा के खाते में केवल एक सीट आई थी। कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया था लेकिन हाल ही में बीपीएफ ने भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया है। दोनों पक्षों के बीच चली जोर-आजमाइश के बाद सीटों की भागीदारी को लेकर दोनों दलों में आखिरकार सहमति बन गई है। इससे कांग्रेस की अगुआई वाले महागठबंधन की जीत की संभावना बढ़ गई है। बोडो समुदाय पूर्वोत्तर भारत में सबसे बड़ा मैदानी जनजातीय समूह है और एक पृथक होमलैंड के लिए चलाए गए आंदोलन की जड़ें 1967 तक जाती हैं जब मैदानी जनजातीय परिषद ने असम से अलग हटकर उदयाचल नाम के केंद्र्रशासित क्षेत्र के गठन की मांग रखी थी। यह मांग तब रखी गई जब बोडो समुदाय को यह अहसास होने लगा कि ब्रिटिश काल में अधिसूचित जनजातीय क्षेत्रों को धनी प्रवासी मुस्लिम भूस्वामी अपने कब्जे में लेते जा रहे हैं। ऐसा होने से समाज में खाई गहरी होती गई जिससे भाजपा बोडो समुदाय के लिए स्वाभाविक सहयोगी के तौर पर सामने आई। बोडो समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले बीपीएफ में भी विभाजन हो गया है और इसका एक धड़ा अब भी भाजपा के साथ खड़ा है। लेकिन अधिक असरदार धड़े ने इस बार कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है।


इस महागठबंधन में बदरुद्दीन अजमल की अगुआई वाला ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) भी शामिल हुआ है। यह कांग्रेस के साथ फ्रंट की पहली सियासी भागीदारी है। असम की 126 विधानसभा सीटों में से 40 पर मुस्लिम मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या है। लगातार तीन बार असम के मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई की लंबे समय तक यही राय रही कि अजमल की पार्टी के साथ किसी भी तरह का नाता रखने से कांग्रेस को अपने जमीनी आधार में ही कटौती का खतरा पैदा हो जाएगा। लेकिन वह भी अपने अंतिम वर्षों में एआईयूडीएफ की सियासी अहमियत को नई नजर से देखने लगे थे। पिछले हफ्ते गुवाहाटी स्थित कांग्रेस दफ्तर पर पार्टी के ही कुछ नाराज कार्यकर्ताओं ने जब तोडफ़ोड़ करने की कोशिश की। ये कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि पार्टी ने कुछ सीटें अपने गठबंधन साझेदार के लिए छोड़ दी थीं। लेकिन कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता इस घटना को अधिक अहमियत न देते हुए कहते हैं, 'यह वजूद से जुड़ा फैसला था। हम अगर मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में आपस में ही लड़ते तो मुस्लिम मतों का विभाजन होता और भाजपा उम्मीदवार आसानी से जीत जाते। ऐसे में एक विकल्प यह था कि फ्रंट के साथ एक करार कर लिया जाए।'


इसके अलावा कांग्रेस इस चुनाव में वामदलों और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की भी सहयोगी बनी हुई है। बिहार से ताल्लुक रखने वाले प्रवासी कामगारों की बढिय़ा मौजूदगी से राजद को कुछ सीटों पर बढ़त मिल सकती है।


असम में कांग्रेस का भविष्य इस पर टिका है कि यह गठबंधन कितनी सफाई से काम कर पाता है। इसके संकेत तो अच्छे नहीं दिख रहे हैं। ऐसी खबरें हैं कि सुष्मिता देव गठबंधन दलों को सीटें बांटने के तरीके पर अपना असंतोष खुलकर जाहिर करने के साथ पार्टी छोडऩे तक की धमकी दे चुकी हैं। हालांकि पार्टी आलाकमान ने इन खबरों को खारिज कर दिया है लेकिन चुनाव प्रबंधक अंतिम समय में किसी तरह के गड़बड़झाले को रोकने की कोशिश में लगे हुए हैं। दरअसल कांग्रेस को अपने पुराने 'जनरल' की कमी खल रही है। एक पार्टी नेता ने खुलकर कहा, 'हमें अपने जनरल की कमी महसूस हो रही है।'


भले ही कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सियासी अपील और भाजपा के संसाधनों एवं प्रतिभाओं को मात दे पाने में खुद को असमर्थ पा रही है लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम और असमिया पहचान को आसन्न खतरे जैसे मुद्दों पर वह टिकी हुई है। राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनपीआर) की वजह से खतरा होने की आशंका भी असम की राजनीति में कांग्रेस को एक ताकत बनाए हुए है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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