प्रसेनजित दत्ता
अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि बहुत से टीके उपलब्ध होने के बावजूद दुनिया को कुछ और समय कोरोनावायरस के साथ जीना पड़ेगा। इस वायरस के उत्परिवर्तनों के लिए और अधिक तथा बेहतर टीकों की जरूरत होगी। पिछले साल थोड़े समय ऐसा लगा था कि मानो विभिन्न कंपनियों और देशों ने मिलकर महामारी का समाधान ढूंढने के लिए अपने निजी हितों को अलग रख दिया था। वायरस का इलाज ढूंढने के लिए बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों, शोध प्रयोगशालाओं, जैव तकनीक स्टार्टअप और सरकारों के बीच अभूतपूर्व सहयोग था। लेकिन वर्ष 2020 के आखिर तक टीका राष्ट्रवाद, टीका राजनीति और मुनाफाखोरी खुलकर बाहर आ गई।
विकसित देशों ने टीकों की खुराकों का अपनी जरूरत से काफी अधिक मात्रा में भंडारण किया। उत्पादन सुविधाओं वाले पश्चिमी देशों ने अपने सहयोगियों को ही मदद देने से इनकार कर दिया। टीका बनाने वाली कंपनियां पेटेंट अधिकार भी देने को तैयार नहीं हैं। भारत भी इस माहौल में सीना ताने खड़ा है। भारत विश्व में टीकों का सबसे बड़ा उत्पादक है। उसके अंतरराष्ट्रीय टीका विनिर्माताओं के साथ करार हैं और कई घरेलू कंपनियां भी स्वदेशी टीके विकसित करने पर काम कर रही हैं। ऐसे में भारत के लिए समस्या टीकों की कमी नहीं बल्कि टीकाकरण अभियान की है। भारत ने न केवल पड़ोसियों बल्कि अन्य देशों को भी मुफ्त टीके मुहैया कराकर नैतिक नेतृत्व अख्तियार किया है। यह बड़ी दवा कंपनियों को भी जनहित में अपने कोविड टीकों के पेटेंट देने के लिए समझा रहा है।
यह भारतीय दवा उद्योग के लिए मूल टीका विकास की मूल्य शृंखला को बढ़ाने का उचित मौका होना चाहिए था। हालांकि भारत मात्रा के हिसाब से दुनिया के दो-तिहाई टीकों का उत्पादन करता है, लेकिन मूल्य के लिहाज से उसकी हिस्सेदारी महज 5-6 फीसदी है। भारत ने अब तक एमएमआर, पोलियो, हेपेटाइटिस बी, इन्फ्लूएंजा, डिफ्थिरिया जैसे टीकों के उत्पादन और विकास पर ध्यान दिया है, जो सस्ते हैं और उनमें कम मार्जिन है। यह वह जगह है, जो विश्व की बड़ी दवा कंपनियों ने खाली की है।
हालांकि कोविड भारत के टीका विनिर्माताओं को वैश्विक बाजार में ऊंचाई पर पहुंचा सकता था। लेकिन भारत की दवा नियामकीय प्रणाली में कमजोरी और दवा नियामक की बाधाएं एवं सवालिया फैसलों ने इसे नाकाम कर दिया और वैश्विक बाजारों में देश की प्रतिष्ठा बिगाड़ी।
केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) और उसका मालिक भारतीय औषधि महानियंत्रक (डीसीजीआई) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत आते हैं। यह खाद्य एवं दवा प्रशासन (एफडीए) की तर्ज पर बना है और कागजों में डब्ल्यूएचओ, यूएसएफडीए और यूरोपीय संघ समेत सभी वैश्विक मानकों का अनुपालन करता है। हालांकि हाल में सुधारों और सरकार के अतिरिक्त संसाधन मुहैया कराए जाने के बावजूद अब भी सीडीएससीओ और डीजीसीआई अपर्याप्त संसाधनों, गुणवत्ता पर जोर न देने, परिशुद्ध आंकड़ों के अभाव और नियमों को लागू करने की क्षमता में कमी से जूझ रहा है।
भारतीय नियामक पहले भी विवादों में रहा है, जिनमें अतार्किक फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन को मंजूरी, रिकॉर्ड ठीक से न रखना और अन्य देशों में मंजूरी से पहले ही दवाओं के उपयोग को मंजूरी देना शामिल हैं। लेकिन इसकी कोविड की दवाओं एवं टीकों को मंजूरी देने की प्रक्रिया है, जिसकी व्यापक आलोचना हुई है।
हालांकि डीजीसीआई दवाओं को सीडीएससीओ की विषय विशेषज्ञ समिति (एसईसी) की सिफारिशों के आधार पर मंजूरी देता है। लेकिन जिन आंकड़ों पर ये सिफारिशें और मंजूरियां आधारित होती हैं, वे आम तौर पर रहस्यमयी होते हैं। इसने वर्ष 2020 के मध्य में सोराइसिस के इलाज में काम आने वाली बायोकॉन की दवा आइटोलीजुमाब और ग्लेनमार्क द्वारा बेची जाने वाली दवा फैविपिराविर के आपात इस्तेमाल को मंजूरी दी थी। इसकी डॉक्टरों और अन्य लोगों ने कड़ी आलोचना की थी। उनका कहना था कि अपर्याप्त और बड़े पैमाने पर अध्ययनों के बिना यह मंजूरी दी गई है।
हालांकि सबसे बड़ा विवाद टीकों की मंजूरी का मामला रहा है। आलोचकों ने कोविशील्ड के लिए सीरम इंस्टीट््यूट ऑफ इंडिया द्वारा किए गए ब्रिजिंग स्टडी के नमूने के छोटे आकार को लेकर सवाल उठाए हैं। कोविशील्ड ऑक्सफर्ड/एस्ट्राजेनेका के टीके पर आधारित है। बड़ा विवाद भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को लेकर हुआ है, जिसे तीसरे चरण के परीक्षण पूरे होने से पहले से ही मंजूरी दे दी गई। कोवैक्सीन के तीसरे चरण के परीक्षणों के आंकड़े मार्च के मध्य में आने के आसार हैं। इसके अलावा डीसीजीआई ने किसी भी टीके के प्रतिकूल प्रभावों की सभी शिकायतों को खारिज करने में जल्दबाजी दिखाई है।
विशेषज्ञों का कहना है कि हालांकि दुनिया भर में ज्यादातर नियामकों ने टीकों के आपात इस्तेमाल को मंजूरी देने में कुछ छोटे रास्ते अपनाए हैं, लेकिन किसी ने भी इतने कम आंकड़ों के आधार पर मंजूरी नहीं दी या चिकित्सकीय परीक्षणों और टीकाकरण अभियान के दौरान प्रतिकूल प्रभावों की इतनी कम निगरानी नहीं की।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने सीडीएससीओ के लिए अतिरिक्त धनराशि को मंजूरी दी है ताकि देश भर (केंद्र एवं राज्यों समेत) में दवा नियमन प्रणाली को मजबूत किया जा सक। कई कानून पारित या संशोधित किए गए हैं ताकि देश में नियामकीय ढांचे का स्तर सुधारा जा सके और सीडीएससीओ को ज्यादा अधिकार दिए जा सकें।
इसके बावजूद नियामक द्वारा पिछले दो साल में लिए गए फैसले दर्शाते हैं कि मंजूरियों के लिए आने वाली कंपनियों से ज्यादा व्यापक आंकड़े मांगने और बेहतर डिजाइन वाले व्यापक चिकित्सकीय परीक्षणों और दुनिया में कहीं अन्य जगह पर विकसित दवाओं के भारतीय आबादी पर ब्रिजिंग स्टडी को लागू करने के मामले में यह अपने वैश्विक समकक्षों से काफी पीछे है।
जब भारतीय टीका विनिर्माता विदेश में बेचते हैं तो उन्हें एफडीए या अन्य नियामकों की कड़ी मंजूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसकी कोई वजह नजर नहीं आती है कि विदेशी कंपनियों को भारत में मंजूरी के लिए कुछ भी कम जमा कराने की मंजूरी क्यों दी जानी चाहिए। नियामक और सरकार दोनों को यह बात समझनी चाहिए। भारतीय दवा उद्योग में वैश्विक टीका मूल्य शृंखला में ऊपर आने की संभावनाएं हैं। लेकिन सतही आंकड़ों के आधार पर घरेलू मंजूरियां दिए जाने जैसे विवादों से इसे मदद नहीं मिलेगी।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेसवल्र्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार प्रोजैकव्यू के संपादक हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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