यहां गौर करने की बात यह है कि भौतिक सुविधाओं तक पहुंच एक ठोस हकीकत है जिसे देखा, समझा और नापा जा सकता है। उन सुविधाओं की बदौलत किसको कितनी खुशी मिलती है या नहीं मिलती, यह व्यक्ति की अपनी बनावट और मन:स्थिति पर निर्भर करता है। इसे कैसे नापा जाए और सरकारें इसे नीति निर्धारण का आधार बनाएं तो उन नीतियों की सफलता-असफलता का आकलन कैसे हो?
पंजाब यूनिवर्सिटी की ओर से देश के 34 शहरों में कराए गए एक सर्वे की रिपोर्ट में लुधियाना, अहमदाबाद और चंडीगढ़ को भारत के सबसे खुश शहरों का तमगा हासिल हुआ है। लोगों की खुशी का स्तर नापने के लिए इस अध्ययन में पांच प्रमुख कारक रखे गए थे- कामकाज, रिश्ते, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, लोकोपकार और धर्म-अध्यात्म। दुनिया के स्तर पर भी हैपिनेस इंडेक्स जारी किए जाने की खबरें हर साल आती रहती हैं। इन सूचनाओं से हमें अलग-जगहों पर लोगों की मनोदशा को लेकर कुछ जानकारी मिलती है, लेकिन ज्यादा बड़ी बात यह है कि इनसे धन के अलावा खुशहाली के कुछ दूसरे कारक भी नीति निर्माताओं के अजेंडे पर आते हैं। दुनिया में विकास के जो पैमाने स्थापित हैं और जिन पर खुद को कामयाब दिखाने के लिए जीडीपी के आंकड़े लगातार बढ़ाने की कोशिश प्राय: सभी सरकारें करती हैं, उनकी आम लोगों के जीवन को खुशहाल बनाने में कितनी भूमिका है, कुछ तार्किक बातचीत इस बारे में भी होती चलती है।
दुनिया में भूटान वह अकेला देश है जहां सरकार बाकायदा जीएनएच (ग्रॉस नेशनल हैपिनेस) इंडेक्स को आधार बनाकर अपनी नीतियां तय करती है और लोगों के जीवन में खुशी लाना अपना लक्ष्य मानती है। वहां 2008 में लागू हुए संविधान में ऐसी व्यवस्था बनाई गई है। यहां गौर करने की बात यह है कि भौतिक सुविधाओं तक पहुंच एक ठोस हकीकत है जिसे देखा, समझा और नापा जा सकता है। उन सुविधाओं की बदौलत किसको कितनी खुशी मिलती है या नहीं मिलती, यह व्यक्ति की अपनी बनावट और मन:स्थिति पर निर्भर करता है। इसे कैसे नापा जाए और सरकारें इसे नीति निर्धारण का आधार बनाएं तो उन नीतियों की सफलता-असफलता का आकलन कैसे हो? हालांकि यह व्यक्ति के मनोजगत की बात है, फिर भी इसके कुछ सूत्र पंजाब यूनिवर्सिटी की स्टडी में मिलते हैं। जैसे, रिश्तों के फैक्टर को लें तो रिपोर्ट में पाया गया कि शादीशुदा लोगों के मुकाबले अविवाहित लोग खुद को ज्यादा खुश बताते हैं। इसका मतलब यह लगाया गया कि स्थिरता के बजाय जिम्मेदारियों के झंझट से बचे रहना खुशी का एक जरिया हो सकता है।
सवाल यह है कि आखिर वे कौन सी जरूरतें या जिम्मेदारियां हैं जिनसे किसी को अपने जीवन की खुशी छिनती हुई जान पड़ती है। बच्चों की पढ़ाई की चिंता जैसी खुचड़ सरकार की नीतियों में मामूली हेरफेर से कम की जा सकती है। ऐसे ही बीमार पड़ने पर किसी आर्थिक संकट में फंसे बगैर इलाज हो जाने का भरोसा महत्वपूर्ण है और एक सही सरकारी नीति इस भरोसे को पुख्ता बना सकती है। बहरहाल, इस अध्ययन से इतना तो पता चलता ही है कि सरकारी नीतियों की दिशा ऐसी होनी चाहिए जो लोगों के जीवन की गुणवत्ता के सवाल को 'पर कैपिटा इनकम' के आंकड़े से निपटाने के बजाय उनके सुकून को अपनी सफलता की कसौटी बनाए।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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